Tuesday 29 October 2013

भारतीय संस्कृति में समरसता के मूल तत्व

        

अशोक कुमार सिन्हा
          भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा है सर्वांगीण विकास सबका विकास। भारतीय संस्कृति स्पृृष्य अपृृष्य का विचार नही करती। हिन्दू अहिन्दू आर्य-अनार्य का भेद नही करती। सभी प्राणीयों को प्रेम और विकास के साथ आलिंगन करके ज्ञानमय व भक्तिमय कर्म का अखण्ड आधार ले कर यह संस्कृति मांगल्य सागर सच्चे मोक्ष समुद्र की ओर ले जाने वाली है। यह महान संस्कृति हमारे पूर्वजों के ज्ञान का परिणाम है। विष्व में हमारी विषिष्ठ प्राचीन ऐतिहासिक पहचान भारतीय संस्कृति के कारण हैं। ईष्वर एक है और समस्त प्राणियों में उसका ही अंष है-यह हमारी संस्कृति की मूल अवधारणा है। आदि नगरी काषी में आदि शंकराचार्य को एक चाण्डाल ने यही भाव समझाया था अतः वे उस चाण्डाल को अपना गुरू बना लिये थे, क्योंकि वे उसके तर्कों से ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और साष्टांग दण्डवत कर आदर प्रगट किया था। 
        अनेकता में एकता का भाव एक उच्च सांस्कृतिक अहसास है, क्योंकि सबकी भलाई और हित हमारा व्यवहार रहा है। ‘‘आत्मवत् सर्व भूतेषु। परोपकाराय पुण्याय पापाय परपड़िनम् एक ही परमात्मा पूरे चराचर जगत में व्याप्त है। वह सबकी आत्मा में समाया हुआ है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम् हम सभी विष्वास रखतें हैं कि धरती मेरी माँ है और हम सब उसकी संतानें हे और इस प्रकार हम सभी भ्राता हैं। उपासना पद्धति भिन्न हो सकती है परन्तु हम एक ही ईष्वर की उपासना में रत हैं। सभी संस्कृतियाँं प्रेम सेवा बंधुत्व की मूल आधार षिला पर अवस्थित हैं और सबका उद्देष्य मानव कल्याण है। हिन्दू दर्षन अनेकों पंथ में होने पर भी कभी यह दावा नही करता है कि केवल उसका ही मार्ग सही है। 
        हिन्दू संस्कृति को पूरे विष्व में अनूठा इसी लिये माना जाता है कि हम सामाजिक, आर्थिक, पंथिक या राजनैतिक अधिपत्य स्थापित करने में विष्वास नही करते। हम समत्वमूलक समाज में विष्वास रखते हैं। परिवार और शरीर की प्रकृति के आधार पर समता का भाव है। बच्चा छोटा है-वह माता-पिता को आदर देता है लेकिन बच्चे के बारे में बड़ों के मन में ऊँच-नीच का भाव नही होता। समाज में आर्थिक या प्रतिभा या बुद्धिमत्ता के आधार पर अन्तर हो सकता है परन्तु इस कारण व्यवहार या परस्पर प्रेम की दृष्टि से ऊँच-नीच का भाव न हो- यह हिन्दू संस्कृति का मूलभूत दृष्टिकोण है। 
          यह सब होते हुये विचित्र बात यह है कि विष्व में शायद ही ऐसा कोई संस्कृति व धर्म हो जिसमें मानवीय उच्चता, समानता, समरसता के इतने महान आर्दष सामने रक्खे गये हो, परन्तु यह भी उतना ही सच है कि विष्व में शायद ही कोई दूसरा समाज होगा जिसमें अपने ही समाज के लोगों के प्रति केवल जन्म एवं जाति के आधार पर इतने अमानवीय भेदभाव भारत में अपनाये गये हों। एकता का भाव यदि संस्कृति है तो विकृति भी यह है कि जाति प्रथा नष्ट करने की उक्ति और कृति में भारत में जितना अन्तर पाया जाता है, उतना पूरे विष्व में कही नही दिखाई पड़ता। जाति के कारण मनुष्य की दृष्टि साफ नही रहती है। वरिष्ठ जाति के गुनाह माफ किये जाते हैं और उनके द्वारा किया हुआ अन्याय चुपचाप सहा जाता है। वरिष्ठ जातियाँ अपना राजनैतिक आर्थिक और धार्मिक वर्चस्व बनाये रखना चाहती हैं। इस लिये ऊँचा वर्ण कनिष्ठ वर्ण की उपेक्षा और तिरस्कार करता है और कनिष्ठ वर्ण वरिष्ठ वर्ण से द्वेष करता है। यह स्थिति उचित नही हैं। वंचित जाति आपसी संघर्ष में रत है, उनमें परस्पर एकजुटता नही हैं अतः उनका वास्तविक विकास अवरूद्ध है। भेदभाव एवं विषमता पर आधारित जाति व्यवस्था नष्ट होने के लिये सभी को समरसता की भावना से कार्य करना चाहिये। राजनैतिक आधार पर हम एकात्मकता उत्पन्न नही कर सकते। राजनीति जोड़ने का कार्य कम और तोड़ने का कार्य अधिक करती है। सांस्कृतिक एवं धार्मिक आधार पर ही देष में एकता व समरसता का भाव उत्पन्न हो सकता है। इसी कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करता है। 
           स्वामी विवेकानन्द ने इसी हिन्दू संस्कति और वेदान्त का गहन चिन्तन मनन कर के कहा था कि ‘‘हे भारत! मत भूल कि नीच अज्ञानी दरिद्र अनपढ़ चमार मेहतर सब तेरे रक्त-मांस के हैं वे सब तेरे भाई हैं। ओ वीर पुरूष! साहस बटोर निर्भीक बन और गर्व कर कि तू भारतवासी है। गर्व से घोषणा कर कि ‘मैं भारतवासी हूँ प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है।
          मुख से बोल ‘अज्ञानी भारतवासी दरिद्र और पीड़ित भारतवासी ब्राहमण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी सभी मेरे भाई हैं। तू भी एक चीथडे़ से अपने तन की लज्जा को ढक ले और गर्वपूर्वक उच्च स्वर में उद्घोष कर ‘प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है भारतवासी मेरे प्राण हैं भारत के देवी देवता मेरे ईष्वर हैं। भारतवर्ष का समाज मेरे बचपन का झूला मेरे यौवन की फुलवारी और बुढ़ापे की काषी है। मेरे भाई! कह भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है। भारत के कल्याण में ही मेरा कल्याण है। अहोरात्र जपा कर हे गौरीनाथ हे जगदम्बे! मुझे मनुष्यत्व दे! हे शक्तिमयी मां मेरी दुर्बलता को हर लो मेरी कापुरूषता को दूर भगा दो और मुझे मनुष्य बना दो मां।
          भारतीय संस्कृति अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में नरोत्तम नागरिकों का निमार्ण करती है, परन्तु विभिन्न कालखण्डों के प्रवाह से गुजरने के बाद हमारी श्रेष्ठता सांस्कृति परम्परायें होने के बाद भी विकृति एवं कुरितियों के षिकार हुये। इस कारण एकता का भाव कम हुआ और यह समाज 12 सौ वर्षों की दास्तां की बेड़ियां में जकड़ गया। दास्तायुग में यह कुरीतियाँ और परवान चढ़ी तथा दासत्व के कारण भी अनेक विकतियाँ हमें ग्रसित करने में सफल हुई। आज आवष्यकता है कि हम सबल बने सजग और समरस समाज के मूल्यों की पुर्नस्थापना कर समृद्ध तेजोमय जीवन क्षेत्र की रचना करें। इसके लिये हमें अपने सांस्कुतिक मुल्यों में ही रास्ता तलाषना होगा। 
           राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वित्तीय सरसंघचालक मा0 माध्वराव सदाषिव गोलवरकर ने इसी भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्षो को संतो महात्माओं के समक्ष रक्खा और सतत् प्रयास कर के प्रयाग कुम्भ के अवसर पर धर्म संसद में घोषणा करवाई कि ‘‘हिन्दवो सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत् मम् दीक्षा हिन्दू रक्षा मम् मंत्र समानता हिन्दू कभी पतित नही होता-यह वाक्य संतो के मुख से कहलाया गया। संघ तो इस मंत्र को 1925 से आचरण में क्रियान्वित कर रहा है। वर्तमान काल में षिक्षा, धर्म, संस्कृति ने एक दूसरे के प्रति नफरत, घृणा और छुआछूत की भावना को कम किया है। 
          नौजवान पीढ़ी जो रोजगार के लिये प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में प्रवेष कर गई है। उसके लिये सभी सामाजिक विकृतियाँ षिथिल हो गई है। राजनैतिक स्वार्थ हिन्दू मुसलमान जाति व्यवस्था को भड़का कर भेद खड़ा करने में लगी है। परन्तु एक दूसरे में प्रेम, आदर और समकार्य का भाव उत्पन्न करने के लिये हमें अपने मूल भारतीय संस्कृतिक चिन्तन को आधार बनाना होगा। जनता की सम्मिलित शक्ति से सब कुछ सम्भव है। ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया की मूल अवधारणा पर समाज को ले जाने के लिये हमें अपने प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों को बल प्रदान करना ही होगा।
लेखक- लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान के निदेशक हैं।

Thursday 4 April 2013

भारत की आजादी में पूर्वाचंल का योगदान


अशोक कुमार सिन्हा
 
      आज नई पीढ़ी को यह बताने की आवश्यकता है कि 66 वर्षों की यह आजादी हमारे पूर्वजों की उस लड़ाई के कारण मिली है जिन्होंने अपनी गरीबी, संसाधनों की कमी और अनेक लाचारी के बाद भी जाति, पथ, भगौलिकता, भाषा की सीमा से बाहर जाकर लड़ा था। पूर्वाचंल को अगर आज पिछड़ा, गरीब या उद्योगविहीन क्षेत्र के रूप में माना जाता है तो इसके पीछे भी उसका बागी तेवर रहा है। पूर्वाचंल के नागरिकों ने गुलामी को मन से कभी स्वीकार नहीं किया और चाहे मुगल रहे हों या अंग्रेज सभी को जब भी और जहां भी मौका मिला, यहां के लोगों ने उनके विरूद्ध जम कर संघर्ष किया। यही कारण था कि प्रत्येक विदेशी शासकों को पूर्वाचंल खटकता रहा। वे यहां पैर नही टिका सके। यही कारण रहा कि उन्हें जब भी विकास करने की याद आयी चाहे वह सड़क उद्योग, कृषि, नहरें और अन्य साधन रहें हों, पूर्वाचंल को सदैव छला गया। यहां केवल थाना, तहसील,जेल तो बनाये गये, जिससे राजस्व वसूली हो सके। परन्तु जब विकास की बात याद आयी तो वे उन क्षेत्रों की ओर मुड़ गये, जहां के लोगों ने विदेशियों की चापलूसी की, उनका आवभगत किया और सेना में भर्ती होकर उनकी ओर से अपने लोगों पर अत्याचार किया। निःसन्देह आज भी आजादी के 62 वर्षों के बाद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है। कई प्रधानमंत्री और देश को दिशा देने वाला नेतृत्व पूर्वाचंल ने दिया परन्तु उसकी झोली में सिर्फ गरीबी, बेकारी और उपेक्षा ही मिली फिर भी पूर्वाचंल ने अपना तेवर कभी नहीं बदला और न समय उसे बदल पायेगा। यहां की मिट्टी और पानी का कुछ ऐसा असर है कि यहां का निवासी आत्मा और मन से सदैव स्वतंत्र, फकड़मस्त और अन्याय, अनाचार शोषण के खिलाफ सदैव आवाज उठाने वाला बना रहता है।

                आजादी की लड़ाई में यदि पहला नाम उभर कर आता है तो वह मंगल पाण्डे का। 29 मार्च 1857 को पूर्वाचंल बलिया का यह नौजवान बंगाल के बैरकपुर में अंग्रेजों द्वारा किये जा रह जुल्म के खिलाफ विद्रोह कर देता है। अपने सार्जेन्ट मेजर ह्यूसटन को गोली मार कर मौत के घाट उतार देने के बाद भी उसका मन शांत नही हुआ। मौका-मुवायना करने आने वाले लेफ्टीनेन्ट बाब पर भी उसने गोली दाग दी परन्तु वह गोली उसे न लगकर उसके घोड़े को लगी। तुरन्त मंगलपाण्डे ने उसे तलवार के घाट उतार दिया। 8 अप्रैल 1857 को उस क्रान्तिकारी बीर को फांसी दे दी गयी।


                काशी नरेश महाराजा चेतसिंह ने वारेन हेस्टींग के खिलाफ विद्रोह कर दिया जिसका पूरा विवरण चेतसिंह का सपनानामक पुस्तक में वर्णित है। चेतसिंह के सैनिकांे ने अंग्रेजी फौज के सैनिकों की मारकाट शुरू कर दी। काशी के स्वामीबाग मे उन दिनों वारेन हेस्टींग स्वयं कलकत्ता से चलकर महराजा चेतसिंह को दण्डित करने के लिये आकर रूका हुआ था। उसे जब विद्रोह की सूचना मिली तो वह औरतों का वेश बदल कर डोली में बैठ कर चुनार होते हुये कलकत्ता भाग गया। वाराणसी में आज भी कहावत प्रसिद्ध है कि-
                                                                                घोडे़ पर हौदा, हाथी पर जीन।
                                                                                ऐसे भागा वारेन हेस्टींग।।
                गोरखपुर में रूद्रपुर के सतासी नरेश की सेना तथा क्रान्तिकारियों मे मिल कर विद्रोह का विगुल फूंका। तत्कालीन ज्वाइंट मजिस्ट्रेट मिस्टर बर्ड विद्रोहियों को काबू करने में विफल रहे तथा गोरखपुर पर 1857 में क्रान्तिकारियों ने कब्जा जमा लिया था। इसी प्रकार सरदार नगर के जमीदार बन्धू सिंह ने अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह का विगुल फूंका। इतिहास में दर्ज है कि महारानी विक्टोरिया के शासन संभालने के बाद क्रान्तिवीर बन्धू सिंह को फासी तथा सतासी नरेश को कालापानी की सजा दी गई। बन्धू सिंह की पूरी जमीदारी अंग्रजों ने जप्त कर ली। बाद मे इस स्थान का नाम सरदार सिंह किया गया। 1857 में ही बरहज देवरिया के निकट स्थित पैना नामक गांव के क्रान्तिवीरों ने 2 माह तक गांव को अंग्रेजों के नियंत्रण से मुक्त कर लिया था, सरकारी खजाना लूटा गया। नदी तथा सड़क मार्ग पर कब्जा हो गया। 31 जुलाई 1857 को अंग्रेजांे ने इस विद्रोह को दबाने के लिये ब्रिगेडियर डगलस एवं कर्लन एक्राफ्ट के नेतृत्व में सेना भेज कर पूरे गांव को जला डाला। 85 क्रान्तिकारी मारे गये। 250 ग्रामीण जल कर खाक हो गये अनेकों महिलायें नदी में कूद गई जिससे उनकी मौत हुई। गांव के जमीदार धन्नू सिंह सहित 6 क्रान्तिकारी पकड़े गये। गांव के क्रान्तिबीरों ने गिरफ्तारी का विरोध किया तथा अंग्रेज सैनिको की ओर से आये असलमखाँ तथा दफेदार बब्बन सिंह को मार डाला। आज भी पैना गांव में शहीदों का स्मारक बना हुआ है।
                गोरखपुर के निकट बडहलगंज में नरहरपुर के राजा हरिप्रसाद, बढ़यापार के राजा तेज प्रताप बहादुर चन्द्र, निचलौल के राजा रनदौला सेन, डुमरी के बाबू बन्धू सिंह, पैना के हकीम मिया, मुहम्मद हसन, पाण्डेपार के गोविन्द बली सिंह, भौवापार के श्री नंत जमीदार, लार के भवन सिंह, अहिरौली के श्री नारायण दयाल कानूनगो आदि ने स्वतन्त्रता की लड़ाई अपनी पूरी शक्ति से लड़ी और सभी का एक ही लक्ष्य था, विदेशी दासता से अपने देश को मुक्त कराना।
                आजमगढ़ में प्रथम स्वतत्रता संग्राम का बिगुल भोदू सिंह यादव जो 17वीं नेटिव इन्फैन्ट्री आजमगढ़ के सुबेदार थे, ने बजाया। बाबू कुवंर सिंह ने स्वतन्त्रता सेनानियों का बहुत अच्छा संगठन खड़ा कर दिया था। कानपुर मे सती चैराघाट पर नावों से नदी पार कर रहे अग्रेजों पर गोलीवर्षा कर मौत के घाट उतारने वाले विद्रोही सैनिक भी आजमगढ़ के ही थे। बाबू कुंवर सिंह ने बाद में अपनी जन्म भूमि जगदीशपुर को स्वतन्त्र करा कर 26 अपै्रल 1858 को स्वेच्छया से मृत्यु का वरण किया था। आजमगढ़ के भीखी साव और गोगा साव तथा बनारस के राष्ट्रभक्त बाबू भैरव प्रसाद महाजन ने क्रान्तिकारियों की बड़ी मदद की।
                बलिया के चित्तू पाण्डेय को कौन नहीं जानता जिन्होंने स्वतऩ्त्रता के पहले ही बलिया को स्वतन्त्र घोषित कर स्वयं कलेक्टर बन कर विद्रोह का संचालन करते रहे। बलिया, रसडा, बैरिया, नगरा, आदि में हजारों हजार क्रान्तिकारियों ने बागी तेवर की तलवार चमकाई। अंग्रेजों के अड्डो को फंूक कर जला दिया गया जिसका कोई अधिक प्रतिरोध करने का साहस अंग्रेजो में नहीं हुआ ।
            गाजीपुर में 6 जून 1857 को गृहयुद्ध की स्थिति बन गई थी। गाजीपुर का खजाना बनारस भेज दिया गया। मैथ्यू नामक अंग्रेज के नील गोदाम मे बांसगांव के विद्रोहियों ने आग लगा दी । मैथ्यू भाग निकला । गहमर के ठाकुर मैगर राय ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। 21जून 1857 की घटना के प्रतिशोध में गाजीपुर तहसील के चैत नामक पूरा गांव जला दिया गया। 50 पैदल व 50 घुड़सावार बागी सैनिक चैसा थाना फूक गये। नील गोदाम व बंगलों में आग लगा दी गई । मैगर राय ने नेपाल की पहाडि़यों में शरण ली। बाद में नवम्बर 1860 में उन्होंने बनारस के न्यायाधीश के समक्ष आत्मसमपर्ण किया।
                 बाराणसी में हिन्दू मुसलमानों की कौमी एकता देख कर अंग्रेज थर्रा गये थे। अंग्रेजों ने फूट डालने का बहुतेरे प्रयास किया। भदोही के पास उदवंत सिंह को क्रांति के जुर्म में फांसी दे दी गयी। बदले में भूरी सिंह ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट मि0 मूर का सर कलम कर दिया था। भोला सिंह व राम बक्श सिंह ने अपने को भदोही का राजा घोषित कर दिया था।
              जौनपुर के माताबदल चैहान को 13 अन्य लोगों के साथ अंग्रेजो ने विद्रोह करने पर फांसी पर लटका दिया। आदमपुर के अमरसिंह तथा उनके पुत्र जानकी सिंह तथा नेवढि़या के संग्राम सिंह अंग्रेजों के लिये खौफ बन गये थे। बदलापुर के ठाकुर सल्तनत बहादुर सिंह ने क्रान्तिबीरता दिखाई जो अविस्मरणीय है। अंग्रेज ने उन्हें पूजा करते समय गोली से उड़ा दिया। उनकी मृत्यु का बदला जगेसर बक्श, अर्जुन सिंह आदि ने अंग्रेजो से लिया। बदलापुर से चांदा तक का क्षेत्र इन्हांेनें अंग्रेजविहीन कर दिया था। मछली शहर भी क्रान्तिकारियों का अड्डा बना रहा। डोभी के आगे दानगंज में यादवों ने अंग्रेजों से मोर्चा ले रक्खा था।
                इलाहाबाद में क्षत्रियों से धर्मान्तरित मेव जाति के मुसलमानों ने विशेषकर सैफखाँ, शमशेर खाँ, दिलदार खाँ ने भी स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी जान गवाँई, भखारी स्टेशन फूक दिया गया था। इलाहाबाद में मार्सल लाॅ लागू कर दिया गया था। यहां कर्नल नील ने देश भक्तों के खून से होली खेला था। पूर्वाचंल में स्वतन्त्रता की जन्मजात भावना क्रान्तिबीरों मे थी। इस लड़ाई में पत्रकार, व्यपारी, बुद्धिजीवी सभी लगे थे। पं0 मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने राष्ट्रवादी विचारधारा और आन्दोलन की बड़ी मदद की। आज अखबार ने क्रान्ति का विगुल खूब बजाया। काशी विद्यापीठ, गोरक्षधाम, आदि का इतिहास भी क्रान्ति से भरा पड़ा है। पूर्वाचंल की जनता ने हर चप्पे-चप्पे पर अंग्रेजो को परास्त ही नहीं किया वरण उनके हौंसले भी पस्त कर दिये। यद्पिि कुछ राजे-महाराजे और जमीदार अंग्रेजो से भी मिल गये परन्तु जनता नें क्रान्तिबीरों का पूरा साथ दिया। यहां के अनेक साधू सन्त, महात्माओं ने भी सवतन्त्रता संग्राम में बढ-चढकर हिस्सा लिया। भोजपुरी लोकगीतों में भी सवतंत्रता संग्राम का पूरा इतिहास छिपा पड़ा है। अंगे्रजो से नाराज सहज ग्रामीणों ने चैरी-चैरा थाना ही फंूक दिया था। जिसमें 18 लोगों को फांसी की सजा सुनायी गई। स्वयं मदनमोहन मालवीय जी ने उन क्रान्तिकारियों का मुकदमा लड़ा था। आज भी गोरखपुर के निकट चैरी-चैरा थानें मे उन क्रान्तिबीरों के नाम शिलापट्ट पर अंकित है।
                कहावत है कि जहर से कुछ ही लोगों की जान ली जा सकती है। तीर, तलवार, गोली से भी चंद लोगों की जान जाती है परन्तु यह विचारों का आक्रमण करो तो पूरा देश मारा जा सकता है। मीडिया अखबारों ने भारतीय स्वतन्त्रता की प्राप्ति में अतुलनीय योगदान किया था। शायर अकबर ने लिखा था-                                            
खींचों न कमानों को, न तलवार निकालों।
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।।

             अंग्रेजी तोपों के प्रतिरोध में पूर्वाचंल की हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी शक्तिमत्ता का भरपूर प्रदर्शन किया था। काशी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कवि वचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन, निकाल कर देशभक्ति के राष्ट्रीय भाव को खूब जगाया। 23 मार्च सन् 1874 की कविवचन सुधा में उन्होने जोर दिया था ’’हम लोग आज के दिन कोई विलायती कपड़ा नही पहनेगें। हिन्दुस्तान का ही बना कपड़ा पहनेंगें।इलाहाबाद से पं0 सुन्दर लाल ने कर्मयोगी, तथा भविष्य साप्ताहिक निकाला। बनारस में सन् 1920 में प्रारम्भ हुये आज, के सम्पादक बाबू राव विष्णु पराड़कर ने राष्ट्रीयता और भारत स्वाधीनता के लिये क्या क्या नहीं लिखा। उस समय भूमिगत क्रान्तिकारी पन्नों का भी प्रकाशन हुआ था। काशी के कोतवाली में रणभेरीका प्रकाशन होता था और काशी की सी0आई0डी0 शहर करा चप्पा-चप्पा छान रही थी। उस समय स्व0 शिव प्रसाद गुप्त ने काशी में क्रान्तिकारियों की न केवल मदद की वरन समाज सेवा के माध्यम से भी उन्होने राष्ट्रीयता की अलख जगाई। वे स्वयं बडे़ क्रान्तिवीर थे। उनके द्वारा स्थापित आजअखबार के सम्पादकीय पर अंग्रेजी हुकूमत ने कई बार प्रतिबन्ध लगा दिया। सेंसर किया परन्तु क्रान्ति की ज्वाला बुझी नही।
(लेखक- लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान जियामऊ, लखनऊ, उत्तरप्रदेश के निदेशक हैं.)