Monday 29 December 2014

भारतीय जनसंचार: कहाँ आ गए हम



                                                                                                                                                                              
                                                                  -अशोककुमार सिन्हा

               भारत में पहला प्रिंटिंग प्रेस पुर्तगाली मिशनरियों द्वारा सन-1550 में गोवा में लगाई गई. उद्देश्य था बाइबिल छापना. जनसंचार का यह माध्यम भारत में आगे बढ़ा तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी की उपेक्षा के शिकार हुए जेम्स आगस्टस हिकी ने सन- 1780 में एक सूचना पत्रक निकाला. यही से पीत पत्रकारिता की शुरुवात हुयी. हिकी कम्पनी के अधिकारियों पर छीटाकशी करता रहता था. हिन्दी पत्रकारिता के उदय का लक्ष्य देश की आज़ादी और चरित्र निर्माण था. तमाम आर्थिक कठिनाइयों और तंगी के बाद और कई अंग्रेजी कानूनों का सामना करते हुए हिन्दी पत्रकारिता ने नई उचाइयां हासिल कीं. कई समाचार पत्रों और उनके संपादकों ने नए आदर्श स्थापित किये. कईयों ने धनाड्य पूंजीपतियों के अंगूठों तले दबकर संपादकत्व की गरिमा के नष्ट होने के गंभीर खतरों से बचते रहें. तत्कालीन फ़िल्मों में भी ‘नया दौर’ का साथी हाथ बढ़ाना जैसे गानों से नए युग का सूत्रपात हुआ. फ़िल्मों के माध्यम से छुआछूत, समाज सुधार, शिक्षा जैसे विषयों पर अच्छे प्रबोधन के कार्य हुए. यद्यपि इस युग में रेडियो एवं टेलीवीजन ने बहुत अच्छा कार्य किया. कृषि विकास, सामाजिक, आर्थिक एवं भारत निर्माण के क्षेत्र में रेडियो एवं टेलीवीजन के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रिंट मीडिया जो ‘मिशन’ था वह ‘प्रोफेशन’ की ओर उन्मुख हुआ. प्रिंट मीडिया में व्यापारीकरण ने जोर पकड़ा.

1975 में आपातकाल के दौरान एक दो को छोड़कर शेष समाचार पत्रों ने सरकार के आगे झुकने के बजाय रेंगना शुरू कर दिया था. जनसंचार भी बाद के दिनों में डिजिटल युग में प्रवेश कर गया. अतः जनसंचार के क्षेत्र में तीव्र विकास का युग आया. पत्रकारिता को  व्यापारीकरण के आगे झुकना पड़ा. पहले पत्रकार समाज में पेड़ न्यूज़ का प्रचलन बढ़ा परंतु बहुत शीघ्र ही यह पत्रकारों के हाथ से निकल गया और सीधा लाभ मालिकों को मिलने लगा. कुछ बड़े अखबारों का तो यह हाल हो गया कि वे संवाददाताओं को वेतन देना तो दूर, उनसे कमीशन लेने लगे. कहीं-कहीं यह कहा जाने लगा कि जो भी कमाई करो, उसमे से वेतन ले लो और ऊपरी आमदनी अखबार को वापस कर दो. अखबार और चैनल ठेकेदारों, पूंजीपतियों वा बिल्डरों के फ़ैशन स्टेटस बन गये. 600 से अधिक टेलीवीजन चैनल इस समय अस्तित्व में हैं जिसमे से मुश्किल से 60 चैनल ही मानकों पर सही होंगें, शेष बाहर हैं. एक मीडिया नेट बन गया जो कहने लगा कि हम हर खबर को बेच सकते हैं. आज हर अखबारों का प्रथम पृष्ठ बिक गया है. एक दो पेज खोलने के बाद ही समाचार पढ़ने को मिलता है क्योंकि आगे का पेज विज्ञापन होता है. अब अखबार मालिक टेलीवीजन कम्पनी में शेयर लेने लगे हैं. सन टीवी, जया टीवी, केरली टीवी, एक विचारधारा विशेष के ही चैनल बन गये हैं. ‘क्रास मीडिया ओनरशिप’ का युग आ गया. एक ही मालिक समाचार एजेंसी, अखबार और चैनल सब चलाएगा. इसका परिणाम यह हुआ कि सभी में समाचारों की विषयवस्तु एक ही होने लगी. जहां मीडिया की विविधता थी वहीं ‘मोनोपॉली’ होने लगी. प्रजातंत्र में मीडिया की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ गई. जनता इसे चौथे स्तम्भ के रूप में देखने की इच्छुक है, परंतु यह कभी-कभी प्रजातंत्र के लिए ही घातक रूप ग्रहण करने लगा. पत्रकार जब चैनल पर किसी विषय विशेषज्ञ या नेता से यह पूछता है कि आपसे राष्ट्र यह जानना चाहता है. तब दर्शक को पता नहीं होता कि यह राष्ट्र की परिभाषा चंदी एस.एम.एस., कुछ फ़ोन व कुछ ई मेल तक सिमट कर रह गया है.

अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व अधिक बढ़ जाने से अंग्रेजी अखबारों का वर्चस्व इतना कायम हो गया कि राजनीतिक हलकों में अंग्रेजी समाचार पत्रों के समाचार अधिक ध्यानाकर्षक हो गये. अंग्रेजी अखबारों की रद्दी भी मंहगी बिकने लगी. भाषायी पत्रकारिता में कई अखबार केवल इंटरनेट संस्करण के रूप में आने लगे. कई ‘मल्टिपल एडीशन’ हो गये. शोसल मीडिया ने अपना स्थान इतना बना लिया कि अब हर नागरिक संवाददाता, विचारक, फ़ोटोग्राफ़र और पत्रकार बन गया है. ‘सिटिजन जर्नलिस्ट’ शब्द प्रयोग होने लगा. कई देशों में सामाजिक क्रान्ति वा राजनैतिक परिवर्तन में शोसल मीडिया एक हथियार का रूप ग्रहण करने लगा. अर्थात प्रयोगधर्मिता ने जनमाध्यमों का सम्पूर्ण रूप ही बदल डाला है. प्रसार भारती ही केवल ‘पब्लिक ब्राडकास्टर’ रह गये. शेष कमर्शियल हो गये हैं. ‘लाइव व्यू’ का प्रचलन बढ़ गया है. अब तो ओवी वैन सिमटकर एक ‘हैंडबैग’ जैसे उपकरण में आ गया है.

मीडिया की नकारात्मकता आज चिंता का विषय बन गया है.  ‘इलीट माइंड सेट’ के कारण दिल्ली की हत्या की घटना मुख्यपृष्ठ पर परंतु सुल्तानपुर की बड़ी घटना ‘ब्रीफ़ न्यूज़’ में छपती हैं. आज अच्छे कार्य भी हो रहे हैं. आगे बढ़ते भारत को मीडिया से कुछ सकारात्मक चाहिए. मीडिया समाज का पिछलग्गू नहीं है. वह समाज का नेतृत्व करता है. मीडिया समाज से ही निकलकर आया है. यह भी समाज का हिस्सा है- पैसा भी चाहिए, परंतु यह शब्द राष्ट्र के आगे बौने लगते हैं. मीडिया समाज का विशिष्ट अंग या चौथा स्तम्भ क्यों कहा जाता है. इसलिए कि मीडिया सत्ता के करीब है. सत्ता चाहिए तो बेगुनाहों की जुबान बनो. विशिष्ट हो तो समाज को दिशा दो. युगधर्म है कि मीडिया अपने ऊपर स्वनियंत्रण स्थापित करें. मीडिया में भी काफ़ी गलत लोग घुस गये हैं. इन्हें स्वनियंत्रण से हतोत्साहित करना होगा. सज्जन शक्तियों को एकत्रित करना होगा. नागरिक समाज को खड़ा करना होगा. अब केवल टीवी चैनल के रिमोट का बटन दबाकर चैनल परिवर्तन से ही संतोष नहीं होगा. नागरिक खड़ा होगा तो सन्देश जाएगा कि मीडिया भी क़ानून से ऊपर नहीं है. भारतीय दंड संहिता और संविधान निपट लेगा मीडिया से भी, परंतु जनता को जागना होगा तभी अच्छे दिन आ सकते हैं.
                                                                      
                                          (लेखक- लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान, लखनऊ के निदेशक हैं)


भारत में वैचारिक शून्यता क्यों ?



अशोक कुमार सिन्हा
वर्तमान भारत वैचारिक शून्यता से ग्रसित हो गया है. देश के समक्ष कोई एक सक्षम, सशक्त विचारधारा ही नहीं रह गई है जिसका देश अनुसरण कर तेजी से विकास कर सकें. अब तक  जिस विचारधाराओं को आगे रखकर हम  अनुसरण कर रहे थे वे सब पस्त हो गईं हैं. प्रमुख विचारधाराएँ  थीं गांधीवाद, साम्यवाद, समाजवाद व हिन्दूवाद. एक समय था जब गांधीवाद देश में बहुत प्रभावी था. आज भी अखिल भारत में गांधीवाद याद तो किया जाता है परंतु देश इस विचारधारा का अनुसरण कर तेज प्रगति कर सकेगा, इसका प्रचलन नहीं रह गया है. दूसरी विचारधारा साम्यवाद है. 1920 में मन्मथनाथ राय ने ताशकंद में कम्युनिष्ट पार्टी की स्थापना की थी. बाद में कानपुर में इस पार्टी की आम सभा हुई. इस पार्टी को बंगाल में फलने-फूलने का अधिक अवसर मिला. श्री अमृत्पाद डांगे, श्री रणदिवे, श्री सुन्दरैय्या, श्री ज्योतिबसु इनमें से कोई भी कोलकाता का नहीं था. यह विचारधारा सम्पूर्ण भारत की विचारधारा नहीं थी. अतः इस सीमित विचारधारा का भी अंत हो गया. बाद में कम्युनिष्ट पार्टी का भी विभाजन हो गया और धीरे-धीरे यह विचारधारा भारत में तो पस्त हो ही गई, पूरे विश्व में इसका संध्याकाल आ पहुंचा है. जहां तक समाजवाद की बात है. यह विचारधारा एक समय ऐसी थी कि इसे प्रगतिवाद का फ़ैशन माना जाता था. डॉ राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण के  जीवनकाल में यह चरम पर रहा परंतु आज यह विचारधारा  एक परिवार तक सीमित होकर रह गई है. आदर्श और आचरण में इतना अंतर आ गया कि यह विचारधारा देश क्या एक प्रदेश की उन्नति और विकास में कोई योगदान नहीं कर पा रही है. हम संक्षेप में यह कह सकते हैं कि गांधीवाद, साम्यवाद और समाजवाद की विचारधाराएँ वर्तमान सन्दर्भ में पूरी तरह पस्त और निष्प्रभावी हो गई है. भारत में इस प्रकार एक वैचारिक शून्यता का काल आ पहुंचा है.
जहां तक हिन्दूवाद की विचारधारा है, वीर सावरकर इसके अधिष्ठाता रहे परंतु हिन्दू महासभा की समाप्ति के बाद राजनैतिक दृष्टि से हिन्दूवाद भी समाप्त हो गया. सन 1925 में नागपुर में डॉ केशवराव बलिराम हेडगेवार ने हिन्दू समाज के संगठन, स्वतंत्रता तथा सर्वांगीण उन्नति के उद्देश्य  से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. इनका दर्शन  भारत की अस्मिता, प्रगति और सर्वांगीण उन्नति की प्रतीक बनीं. आज आरएसएस की विचारधारा को छोड़कर कोई सामाजिक और राजनैतिक तौर पर वैचारिक अधिष्ठान नहीं बचा है जो देश विदेश को दिशा दे सके. हिन्दू पुनुरुत्थान में ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज, रामकृष्ण मिशन, अखिल भारत हिन्दू महासभा का भी उल्लेख करना समीचीन होगा. ब्रह्म समाज कोलिकाता के बुद्धजीवियों तक सीमित रहा. इसकी कुल सदस्य संख्या 1000 से ऊपर नहीं पहुँच पाई. असम से उत्कल तक इसका विशेष प्रभाव रहा. यह पटना तक नहीं पहुँच सकी. इसका तात्विक एवं आध्यात्मिक प्रभाव ही अधिक रहा. सम्पूर्ण लोकजीवन में प्रभाव नहीं रहा. गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर इससे प्रभावित रहे. कुल 20 वर्ष के जीवन में इस संगठन में तीन बार फूट पड़ी. राजा राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचंद्र सेन अलग-अलग हो गये.
रामकृष्ण मिशन आन्दोलन की सम्पूर्ण भारत का नहीं बन सका. स्वामी विवेकानंद मद्रास, कन्याकुमारी, राजस्थान, लाहौर, उत्तर प्रदेश गये. मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश नहीं पहुँच पाए. बाद के दिनों में मिशन सेवाकार्य में लगा. पूरी शक्ति सेवाकार्य में जुट गई. संगठन पिछड़ गया. स्वामी विवेकानंद के विचार तात्विक सैद्धांतिक हैं. कार्यकर्ता प्रचार में नहीं लगे. पंजाब, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र में सीमित प्रभाव रहा. देश के बाहर रंगून में आश्रम बना. वर्मा में उथल-पुथल के समय आश्रम छोड़कर भागे तो आज तक वहां वापस नहीं गए. आसेतु हिमांचल पूरा भारत प्रभावित नहीं हुआ. आर्य समाज सन 1875 में स्थापित  हुआ. स्वामी श्रद्धानंद तक ठीक चला. सेवा कार्यों में रचनात्मकता लगी रही परंतु संस्थागत दुर्बलता बनी रही. डीएवी कालेजों और आर्यकन्या पाठशालाओं की स्थापना हुई. स्वामी श्रद्धानंद गुजरात के थे. आन्दोलन गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, पश्चमी उत्तर प्रदेश तक सीमित रहा. दक्षिण भारत में कहीं भी प्रभाव नहीं है. सम्पूर्ण भारत को दिशा देने की क्षमता नहीं रही.
आदि शंकराचार्य के धार्मिक क्रान्ति के बाद सही रूप से अखिल भारतीय स्तर पर यदि पूर्ण कार्य किसी संगठन का विस्तारित और स्थापित हुआ तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के सभी जिलों में शाखा, एक उद्देश्य एक निष्ठा के साथ स्वयंसेवकों का हर क्षेत्र में समर्पण भाव से सहभागिता. डॉ. हेडगेवार, दादाराव परमार्थ, बालासाहेब देवरस, एकनाथ रानाडे, बालासाहेब आप्टे जैसे लोग संघ के नींव के पत्थर बनें. सन 1940 के संघ शिक्षा वर्ग नागपुर में डॉ. हेडगेवार ने अपने मृत्यु के कुछ ही दिनों पूर्व संघ स्वयंसेवकों के सभी प्रान्तों से आये प्रतिनिधियों को देखकर कहा था कि “आज मैं एक लघु भारत का दर्शन कर रहा हूँ.” बाद के लोगों ने इसी विचारधारा को और आगे बढाया. बालासाहब देवरस में उत्कृष्ट संगठनात्मक शक्ति थी. संघ चला चरित्र निर्माण और दैनिक शाखा पर पड़ने वाले संस्कारों से. स्वार्थी हिन्दुओं को राष्ट्रवादी और चरित्रवान हिन्दू बनाना यही संघ का उद्देश्य बना. खेल, व्यवहार और संपर्क से निःस्वार्थी नागरिक खड़ा करना यही पद्धति अपनाई गई. एकनाथ रानाडे के प्रयास मूलक शब्द थे ‘संघ का काम सर्वस्पर्शी और सार्वभौमिक होना चाहिए’. मंडल स्तर तक शाखा ले जाने की योजना उन्हीं की थी. दादाराव परमार्थी और बाबा साहब आप्टे, ये सर्वस्पर्शी विचारधारा के सेनापति थे , जो जहां गये, वहां संघ कार्य खड़ा कर दिये . सम्पूर्ण भारत में संगठन कार्य को फैलाया. आज के संघ प्रचारक जो 2500 की संख्या से भी ऊपर हैं, संघ की रीति-नीति, बैठक, मिलना-जुलना, ध्येयवाद, समर्पण, कार्य को आज चला रहे हैं. मानव संसाधन निर्माण का देशव्यापी कार्य आज केवल संघ में हो रहा है.
माधवराव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी ने 33 वर्षों तक राष्ट्र निर्माण का अखंड यज्ञ किया. प्रचारकों के रूप में घुमंतू जीवन का प्रयोग. जो भारत में जन्मा है, वही भारतीय, वही हिन्दू. सम्पूर्ण विश्व में जहां भारतीय गये, सब अपने हैं. अतः संघ कार्य सम्पूर्ण भारत में फैला. केवल भारत वर्ष में 45000 स्थानों पर शाखा प्रतिदिन लगती हैं. 36 से अधिक संगठन ऐसे जहां प्रत्यक्ष स्वयंसेवकों की सहभागिताहै . जिसे मीडिया संघ परिवार कहता है. संगठन बना नहीं कि संघ शक्ति और कार्यकर्ताओं के विस्तार से वह विश्वव्यापी हो जाता है. भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद्, भारतीय मजदूर संघ, विद्या भारती, बनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, आयुर्वेद परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे अनेकों संगठन जिसे स्वयंसेवकों ने स्पर्श किया और वे विश्व संगठन बन गये. यह है हिन्दू मूवमेंट. “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया” सभी का कल्याण, सभी अपने हैं, उपासना पद्धति कोई भी हो परंतु सबमें सांस्कृतिक एकता और भावना का निर्माण. यही हिंदूवादी विचारधारा, जिसे साम्प्रदायिक कह कर हतोत्साहित किया गया. पूरा विश्व उसे नयी दृष्टि से देख रहा है कि कहीं पृथ्वी का कल्याण इसी में तो नहीं है.
अन्य विचारधाराएँ मारकाट, साम्राज्यवाद  और मैं ही श्रेष्ठ हूँ, मेरा मत ही सर्वश्रेष्ठ है, इस अहंकार में सर्वनाश की ओर अग्रसर है. ऐसे में हिन्दू विचारधारा उस खाली स्थान को भरने के लिए तैयार हैं, जो विश्व में अन्य विचारधाराओं के पस्त हो जाने से रिक्त हुआ है. आखिर विश्व चलेगा किस विचारधारा के साथ. विचारधाराशून्य समाज नहीं होता. विश्व उसी के पीछे आज चलने को तैयार है. जो सबको साथ लेकर चले. परम ध्येयवादी कार्यकर्ता जिस विचारधारा के संचालन  में विश्वासपूर्वक लगे हों. वह अवश्य विश्व का नेतृत्व करेगा. यही परम सत्य है.
(लेखक: लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान के निदेशक हैं.)

Friday 10 October 2014

जनसंचार के विविध आयाम

लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान के सेमिनार में प्रतिभागिता कर रहे छात्रों के मध्य श्री अशोक सिन्हा, अतुल कुमार सिंह
-अतुल कुमार सिंह
‘मीडिया तय करती है शक्ति और सत्ता की जवाबदेही’
सोशल मीडिया ने खोले अभिव्यक्ति के नए क्षितिज
‘पत्रकारिता के विविध आयाम’ विषयक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
संगोष्ठी को संबोधित करते प्रवक्ता के सम्पादक श्री संजीव सिन्हा
संगोष्ठी को संबोधित करते श्रीजगदीश उपासने जी
                    लखनऊ. विश्व संवाद केन्द्र ट्रस्ट लखनऊ द्वारा संचालित “लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान” द्वारा “जनसंचार के विविध आयाम” विषयक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारम्भ रविवार को संस्थान के अधीश सभागार में किया गया. संगोष्ठी के उदघाटन सत्र में “मीडिया का धर्म और संकट” विषय पर विशेषज्ञ व्याख्यान के लिए मुख्य वक्ता के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्विद्यालय भोपाल के नोयडा परिसर के निदेशक और इण्डिया टुडे के पूर्व सम्पादक श्री जगदीश उपासने जी, ने कहा कि ‘मीडिया आज अपने व्यावसायिक धर्म और उसके संकट’ के बीच समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. एक ओर जहां उसने अपने लिए खुद ही लक्षमण रेखा भी खीचनी है तो दूसरी ओर सामाजिक सरोकार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी तय करनी है. श्री उपासने जी ने आगे कहा कि मीडिया का काम सत्य का आग्रह है. निडर होकर, स्वतंत्र होकर, पक्षपातरहित विश्लेषण प्रस्तुत करना ही मीडिया का धर्म है. आज इस पर भी सवाल उठ रहे हैं. मीडिया पक्षपाती, व्यावसायिक हितों की पूर्तिकर्ता, नेता और स्वार्थी, निजता का हनन, मीडिया की जवाबदेही और उसके पत्रकारों का उत्तरदायित्व तय होना चाहिए. मुख्य धारा की मीडिया के सम्मुख आज वेब पत्रकारिता ने एक चुनौती पेश की है. आने वाले समय में मीडिया का कौन सा संस्करण रहेगा यह तो नहीं कहा जा सकता पर मीडिया जरूर रहेगा क्योंकि उसे सत्ता और शक्ति की जवाबदेही तय करनी है. प्रथम सत्र में अध्यक्षता क्र रहे वरिष्ठ सम्पादक और पूर्व राज्यसभा सांसद श्री राजनाथ सिंह सूर्य जी ने अपने संबोधन में कहा कि पत्रकारिता ने हमेशा ही अपनी मर्यादा में रहते हुए भारतीय जन आकांक्षाओं और सरोकारों को ही अपने लिए हमेशा प्राथमिकताएं निर्धारित की थीं.
                    सेमीनार के ‘‘सोशल मीडिया: वैकल्पिक पत्रकारिता” विषयक द्वितीय सत्र में वेब पत्रकारिता पर जनयुग डाट काम के सम्पादक डॉ. आशीष वशिष्ठ ने विषय प्रवेश करते हुए इसकी वर्तमान उपादेयता को रेखांकित किया. उन्होंने बताया कि समाचार के यह जनमाध्यम जहां एक ओर सार्वभौमिक हैं वहीं दूसरी ओर वह इको फ्रेंडली माध्यम भी है. वेब पत्रकारिता का भविष्य निश्चित ही सुनहरा है क्योंकि भारत में इस माध्यम को अभी एक दशक ही हुआ है. इस सत्र के मुख्य वक्ता और प्रवक्ता डाट काम के सम्पादक श्री संजीव सिन्हा, ने बताया कि हिन्दी ब्लागिंग ने जनसंचार और पत्रकारिता के लिए नए क्षितिज खोलने का कार्य किया है. उन्होंने आगे बताया कि हिन्दी ब्लागिंग ने लोगों की अभिव्यक्ति को मंच दिया है. इसने विचारों का लोकतंत्रीकरण किया है. हिन्दी ब्लागिंग आज रचनात्मकता को अभिव्यक्ति दे रहा है. हिन्दी ब्लागिंग ने सम्पादकीय कैंची से लेखन को मुक्त कर दिया है. यहाँ लेखक ही सम्पादक और प्रकाशक की भूमिका में है. हिन्दी ब्लागिंग ने मुख्यधारा के मीडिया को चुनौती दी है. यहाँ अनेक क्षेत्रों में विपुल लेखन हो रहा है. इसकी विश्वसनीयता भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. यह वैकल्पिक पत्रकारिता का सशक्त मंच बन गया है. ऐसा भी कह सकते हैं कि अब वेब मीडिया ही मुख्यधारा का मीडिया बन गया है. अब आने वाले समय की पत्रकारिता का भविष्य वेब मीडिया ही है.
                     अध्यक्षता कर रहीं सोशल मीडिया विशेषज्ञ और पब्लिक फोरम की सम्पादक डॉ. नूतन ठाकुर ने अपने संबोधन में कहा कि सोशल मीडिया ने जनसंचार की सीमारेखाओं का अतिलंघन तो किया है पर उसने स्कैनिंग न्यूज की परम्परा को भी धक्का पहुचाया है. इस माध्यम ने समय और परिस्थिति के सारे गढ़े गढ़ाए मानकों से बाहर जाकर अभिव्यक्ति के नए क्षितिज तलाशने का काम किया है. सोशल मीडिया आज क्रांतिकारी अभिव्यक्ति का माध्यम लेकर आया है. ये दीगर बात है कि आप हिन्दुस्तान के सत्ता और सामाजिक परिवर्तन के पीछे इसकी अहमियत को जिम्मेदार मत मानिए पर सोशल मीडिया ने दुनिया के आधा दर्जन देशों की तानाशाही को उखाड़ फेकने का काम किया है. सामाजिक कार्यकर्ता श्री राजेन्द्र सक्सेना जी ने विषय प्रवेश किया. अतिथियों का स्वागत संस्थान के अध्यक्ष श्री रामनिवास जैन और ‘लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान’ का परिचय निदेशक श्री अशोक कुमार सिन्हा तथा विश्वविद्यालय परिचय राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन विश्विद्यालय की क्षेत्रीय समन्वयक डॉ. नीरांजलि सिन्हा द्वारा प्रस्तुत किया गया.
संगोष्ठी को संबोधित करते संस्थान के निदेशक श्री अशोक सिन्हा
संगोष्ठी को संबोधित करते पूर्व समाचार वाचक श्री नवनीत मिश्र जी
‘दूरदर्शन का दायित्व विज्ञापन का दास बनाना नहीं’

               सत्र के विशिष्ट वक्ता और शैक्षिक दूरदर्शन केंद्र लखनऊ में प्रवक्ता डॉ. हेमंत श्रीवास्तव जी ने अपने संबोधन में बताया कि, “दूरदर्शन ने अपनी स्थापना काल से लेकर आज तक अपनी सामाजिक जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व को न सिर्फ सफलतापूर्वक संपादित किया है. हमें निराश होने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है दूरदर्शन इसका निरंतर प्रयास कर रहा है.” मुख्य वक्ता के तौर पर पूर्व उपमहानिदेशक, दूरदर्शन केन्द्र लखनऊ श्री आर. के. सिन्हा जी ने अपने संबोधन में कहा कि, “दूरदर्शन अपने 700 चैनलों की विशाल श्रंखला के साथ पूरे देश में सामाजिक हितचिंतन में शामिल है. कृषि क्षेत्र में इसके सरोकार बढ़े हैं काफी प्रगति हुई है. महिला विषयक कार्यक्रम दूरदर्शन के लिए बेहद गंभीर और संवेदनशील विषय है. हमें दूरदर्शन के आईने में भी पुरातन पर विश्वास करना होगा. संस्कृति को महत्व देना सीखना पडेगा. प्रसार भारती ने अपनी कोई सकारात्मक भूमिका का निर्वहन नहीं किया है. डीडी हमारी संस्कृति को सम्मुख रखती है.” अध्यक्षता कर रहे ल.वि.वि. में पत्रकारिता विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. रमेश चन्द्र त्रिपाठी जी ने अपने संबोधन में बताया कि, “बदलती परिस्थितियों में आज दूरदर्शन भी बदल रहा है इसे सामाजिक सरोकार की याद दिलाते रहना होगा. संवेदनशीलता का अभाव, मानवीयता का अभाव जैसे मुद्दों को भी सूचना की महत्वपूर्ण भूमिका में शामिल करना होगा.” इस सत्र के उपरान्त पावर प्वाइंट प्रस्तुतीकरण वनस्थली महिला विश्वविद्यालय में शोध छात्रा सुश्री प्रभात दीक्षित और राष्ट्रीय सहारा लखनऊ में पत्रकार श्री हेमंत पाण्डेय जी, द्वारा ‘मीडिया ट्रायल इन पब्लिक ओपीनियन’ विषय को बेहद संजीदा और तथ्यों के साथ लोगों के मध्य किये गए अपने सर्वेक्षण और उस पर प्राप्त की गई प्रतिक्रया के विश्लेषण को प्रस्तुत किया गया.
                   ‘रेडियो कार्यक्रमों की कलात्मकता’ द्वितीय सत्र में विषय प्रवेश करते हुए लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान के निदेशक श्री अशोक कुमार सिन्हा जी ने बताया कि रेडियो कार्यक्रम हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक जनता के लिए जनसंचार के लिए बेहद लोकप्रिय और प्रभावी माध्यम माना गया है. इसलिए ग्रामीण भारत में रेडियो को जीवन्तता प्रदान करने की कोशिश निरंतर जारी रखनी चाहिए. बतौर मुख्य वक्ता, जाने माने कथाकार व पूर्व समाचार वाचक श्री नवनीत मिश्र जी ने रेडियो पर संगृहीत अपने अनुभवों को साझा करते हुए संबोधन में कहा कि, “भारतीय ग्रंथों में कुशल और प्रभावी वक्ता के छः गुण बताये गए हैं. मधुरता, स्पष्टवक्ता, अच्छा स्क्रिप्ट लेखन, सुस्वर वाचक, धैर्यम, लैसमत्वं, को आज भी अपनाने की जरुरत है. वक्ता को सबसे पहले यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे क्या नहीं बोलना है. लिखने वाले को यह सोचना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है. श्रोता, दर्शक और पाठक को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि क्या नहीं सुनना, देखना और पढना है. चित्र से शब्द नहीं गढ़े जा सकते पर शब्दों से चित्र का निर्माण किया जा सकता है. वक्ता को सामान्य ज्ञान से पूरी तरह से परिपक्व भी होना चाहिए. वाणी सजीव जैसी ही प्रतीत होनी चाहिए. यह जरूरी नहीं की रेडियो के क्षेत्र के व्यक्तियों को ही अच्छा वक्ता होना आवश्यक है बल्कि सामान्य वक्ता के लिए भी यह गुण होना नितांत आवश्यक है.” अध्यक्षता कर रहे प्रांत प्रचारक व सामाजिक कार्यकर्ता श्री संजय जी, ने कहा कि लोगों के मध्य रहकर कार्य करने वाले संघ कार्यकर्ताओं को वक्तृत्व का गुण होना भी नितांत आवश्यक है यहां आकर मैंने इस तथ्य को भली-भांति सीखने का कार्य किया है.

                     “जनसंचार के विविध आयाम” विषयक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन ‘दूरदर्शन के सामाजिक उत्तरदायित्व’ विषयक सत्र दूसरे सत्र में विषय प्रवेश करते हुए विश्व संवाद केन्द्र, लखनऊ के सामजिक कार्यकर्ता, श्री राजेन्द्र जी ने अपने संबोधन में कहा कि, “दूरदर्शन ने सामाजिक उत्तरदायित्व की अपनी महती भूमिका को अब तक काफी हद तक समर्पण भाव से पूरा करने का हर संभव प्रयास किया है. समय और देशकाल की बदलती परिस्थितियों ने भले ही कुछ बनावटी चुनौतियां खड़ी करने की कोशिश की हो पर उनसे पार पाने के लिए भी दूरदर्शन अपने आपको काफी हद तक तैयार कर रहा है. वह अपने सर्वजन हिताय के उद्देश्य की ओर बढ़ रहा है.” मानवाधिकार कार्यकर्ता व समाजशास्त्री डॉ. आलोक चांटिया जी ने विषय प्रवेश करते हुए विज्ञापन के माध्यम से दूरदर्शन के सामाजिक उत्तरदायित्व और समाज पर उसके पड़ने वाले सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों के विषय में विस्तार से बताया. उन्होंने अपने संबोधन में बताया कि “दूरदर्शन कैसे अनायास ही अपनी जकड़न में ले लिया है. हम आज धीरे-धीरे विज्ञापन जगत के वश में शामिल होते जा रहे हैं. सुबह गुड मार्निंग चाय के विज्ञापन से लेकर हम गुड नाइट के विज्ञापन के साथ ही सोते हैं, लिहाजा विज्ञापन ने हमको एक तरह से अपना गुलाम बना लिया है. दूरदर्शन का सामाजिक दायित्व भी बेहद महत्वपूर्ण है उसके इसी प्रयास के तहत ही पोलियो, कुष्ठ रोग और क्षय रोग जैसी बीमारियों की रोकथाम की जा सकी. दूरदर्शन की कथनी और करनी के बीच में द्वन्द चल रहा है. जब हम विपणन पर ज्यादा जोर देते हैं तो भारतीय संस्कृति टूटकर बिखरती है. दूरदर्शन ने स्वच्छता, शौचालय अभियान जैसे कार्यक्रमों से दायित्व निर्वहन का वास्तविक स्वरुप निखरकर सामने आ रहा है.”
पत्रकारिता का आदर्श मनुषत्व है: डॉ. रहीस सिंह
‘सर्वग्राहिता है मीडिया लेखन की भाषा का सार’
संगोष्ठी को संबोधित करते प्रख्यात स्तंभकार डॉ रहीस सिंह जी

संगोष्ठी को संबोधित करते स्वतंत्र भारत के पूर्व सम्पादक श्री नन्द किशोर
            संगोष्ठी के अंतिम दिन “जनसंचार के विविध आयाम” विषयक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के अंतिम दिन के ‘प्रिंट मीडिया: मिशन और प्रोफेशन’ विषयक प्रथम सत्र के दौरान विषय प्रवेश करते हुए विभाग प्रचारक व सामाजिक कार्यकर्ता श्री अमरनाथ जी ने अतिथियों का स्वागत किया. सिटी टाइम्स में सम्पादक डॉ. मत्स्येन्द्र प्रभाकर ने विषय प्रवेश करते हुए प्रिंट मीडिया के विभिन्न उपादानों और उसमें किस तरह से मिशनरी और प्रोफेशनरी स्वरुप के मध्य संतुलन बनाकर रख सकते है इस पर विस्तार से प्रकाश डाला. विशिष्ट वक्ता के तौर पर बोलते हुए द डेक्कन हेराल्ड के विशेष संवाददाता डॉ. संजय पाण्डेय ने बताया कि मीडिया में प्रोफेशनलिज्म का शामिल होना गलत नहीं है बशर्ते कि हम समाचार की दशा और दिशा का ध्यान रखें.
               बतौर मुख्य वक्ता के तौर पर आमंत्रित वैश्विक एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ डॉ. रहीस सिंह ने अपने संबोधन में कहा कि मीडिया ने वर्तमान समय में निजी राय से ही समाज हांकने की परम्परा को अख्तियार कर लिया है. देश दुनिया में घटने वाली दर्जनों ऐतिहासिक और अनिवार्य तथ्यों के स्थान पर वह सिर्फ उस खबर का ही चुनाव करता है. उन्होंने आगे बताया कि संवाद और विवाद की प्रक्रिया में एक आईना है जो संवाद करता है. फिर वही आईना विवाद पैदा कर देता है. पत्रकारिता का अपना अनुभव तत्व होता है वह पढने की नहीं करने की चीज होती है. सम्पादक को मालिक या विज्ञापन किसी अच्छे समाचार को छपने से रोकता नहीं है बशर्ते कि आप उसे प्रकाशित करना चाहते हों. मीडिया भटकाव की स्थिति में है उसने शान्ति स्थापना में नहीं तनाव को बढावा दिया है. विवाद की स्थिति का निर्माण हथियार करते हैं और हथियारों की धार संचार से तय होती है इसलिए आने वाले समय में हमें जनसंचार के इस इस भयावह खतरे के प्रति भी सावधान रहना होगा. सत्र की अध्यक्षता कर रहे महानिदेशक, नागरिक सुरक्षा, उत्तरप्रदेश श्री अमिताभ ठाकुर ने अपने संबोधन में कहा कि मीडिया को हमेशा अपनी भूमिका के सन्दर्भ में जागरूक रहना चाहिए. केवल परिस्थितियों को दोषी न माने मिशन और प्रोफेशन में कोई द्वन्द नहीं है. अच्छा प्रोफेशनल भी अच्छा मिशनरी हो सकता है. मिशन के साथ साथ एक पत्रकार के लिए जीवन की मूलभूत जरूरतों को पूरा करते हुए अच्छा जीवन स्तर जीना भी अपराध नहीं माना जाना चाहिए.
         
संगोष्ठी का संचालन करते कार्यक्रम संयोजक अतुलकुमारसिंह 
  ‘पत्रकारिता की भाषा और शिल्प’ विषयक द्वितीय सत्र में विषय प्रवेश करते हुए जनयुग डाट काम के सम्पादक डॉ. आशीष वशिष्ठ ने कहा कि शब्द प्रमाण है. शब्द ब्रह्म का रूप होता है. पत्र की भाषा भी आम बोलचाल की भाषा ही होनी चाहिए. भाषा के प्रयोग में निष्पक्षता और पूर्वाग्रह रहित शब्दावली और शैली का इस्तेमाल करना चाहिए. जैसे हरिजन, हिजडे और वैश्या जैसे शब्दों को लिखने से अब परहेज किया जाता है ठीक उसी प्रकार भाषा को गत्यात्मक होना चाहिए. शिल्प के स्तर पर हमेशा ही इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि हमारा मीडिया लेखन किस वर्ग को लक्षित करके किया जा रहा है. सत्र की अध्यक्षता कर रहे स्वतंत्र भारत के पूर्व सम्पादक श्री नन्द किशोर श्रीवास्तव जी ने बताया कि हम पहले कहते थे कि अपनी भाषा सुधारनी हो तो समाचार पत्र और पत्रिकाएं पढ़िए अब तो इसका उलटा हो जाएगा ठीक होने का अवसर तो नहीं है खराब होने की पूरी गुंजाइश बनी रहेगी. अतिथियों का धन्यवाद ‘लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान’ के निदेशक श्री अशोक कुमार सिन्हा द्वारा दिया गया. आपने अपने संबोधन में बताया कि इस सेमीनार में कुल 98 प्रतिभागियों ने प्रतिभाग किया. आयोजन को सफल बनाने में संस्थान के छात्र श्री ओम शंकर पाण्डेय, श्री विनोद कुमार मिश्र, श्री कृष्ण कुमार, श्री मनोज कुमार चौरसिया, श्री अजीत कुशवाहा, श्री ऋषि कुमार सिंह, कु. चांदनी गुप्ता ने पूरा योगदान दिया. संगोष्ठी का तीनों दिन तक सफल संचालन संगोष्ठी संयोजक अतुल कुमार सिंह द्वारा संपन्न किया गया. इस त्रिदिवसीय संगोष्ठी का आयोजन 5 से 7 अक्तूबर तक किया गया था.
विश्व संवाद केन्द्र लखनऊ के श्री अधीस स्मृति सभागार में संगोष्ठी में विचारमग्न प्रतिभागी

Friday 26 September 2014

कलश नहीं नीव का पत्थर बनाता है संघ

अशोक कुमार सिन्हा
भारतवर्ष आज तीव्र परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है. अनेक प्रकार की समस्याएं मुंह बाएं खड़ी हैं. विघटनकारी प्रवत्तियां अस्थिरता निर्माण करके देश की एकता एवं अखंडता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने पर आमादा हैं. भारतवर्ष की सीमाओं पर प्रतिदिन घटनाएँ घटित हो रही हैं. देश में जातीय विषमताओं के पूर्व में बोये गए बीज अब वृक्ष बनकर जहरीले फल देने लगे हैं. सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक उथल-पुथल नया संकेत दे रही है.
      ऐसी स्थिति में भारतीय समाज को आसेतु-हिमाचल एकसूत्र में पिरोने की साधना में रत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आवश्यकता को बौद्धिक जगत तीव्रता से अनुभव करने लगा है. नौजवान पीढ़ी यह जाने को उत्सुक है कि संघ वास्तव में क्या करता है. वह किस प्रकार स्वयंसेवकों में सम्पूर्ण देश व समाज के प्रति एकात्मकता का भाव निर्माण करता है. वह कौन से तत्व हैं जिनके आधार पर स्वयंसेवक प्रांत-निष्ठा, भाषा-निष्ठा, सम्प्रदाय-निष्ठा आदि से ऊपर उठ जाता है और राष्ट्र-निष्ठा बन जाता है. वह किसी भवन का कलश नहीं नीव का पत्थर बनना चाहता है. ऐसे ही स्वयंसेवकों में से जब कोई प्रधानमंत्री जैसे पद पर पहुंचकर राष्ट्र निर्माण में योगदान देने लगता है तब लोगो को सुखद आश्चर्य भी होने लगता है “सबका साथ सबका विकास” का नारा भी नया लगाने लगता है. वस्तुतः सबके मूल में है संघ की कार्यपद्धति और रचना. बारह सौ वर्षों की देश की पराधीनता की उपजी सामाजिक-मानसिक विकृतियां तथा गुलामी की विसमताओं का हल ढूँढ़ते-ढूँढ़ते नागपुर के एक युवा क्रांतिकारी डॉ. केशवराम बलिराम हेडगेवार जी ने, जो पेशे से एक चिकित्सक थे, परंतु समाज के दर्द को महसूस कर विजया दशमी के दिन सन 1925 में पांच किशोरवय नवयुवकों को साथ लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. उद्देश्य था भारत राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाना. व्यक्ति निर्माण के माध्यम से एकता और अखंडता, समृद्धि और नवनिर्माण, तेजस्विता और स्वावलंबन, समता और बंधुता, स्वतंत्रता और सुरक्षा को पोषक तत्व प्रदान करना हमारी असफलता, दुर्बलता, गरीबी, असमानता का मूल कारण राष्ट्रीय एकता का अभाव है. अतः बिना जाति, पंथ, भाषा के भेदभाव के सभी संगठित हो, सम्मिलित बुद्धि से पग से पग मिलाकर चलें. सबके मनों में समान बोध हो यही संकल्पना रखी गई है.
      अपने देश और उसकी परम्पराओं के प्रति, उसके ऐतिहासिक महापुरुषों के प्रति, उसकी सुरक्षा तथा समृद्धि के प्रति जिनकी अव्यभिचारी एवं एकान्तिक निष्ठा हो- वे सभी जन राष्ट्रीय कहे जायेंगे. ऐसे सभी व्यक्ति बिना जाति, पंथ, भाषा के भेद के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवक बनते हैं तथा राष्ट्र निर्माण में योगदान करते हैं. संघ ऐसे व्यक्तियों को साम्प्रदायिक मानता है, जो उपयुक्त प्रकार की निष्ठा रखते हुए भी, शेष समाज से अलग, अपने पंथ, बिरादरी, भाषा और तथाकथित जाति के आधार पर सोंचते हों, और अपने निजी लाभ के लिए एवं राजनैतिक सत्ता के उपयोग के निमित्त, ऐसे विशेष अधिकारों और सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हों, जो कि सर्वसामान्य समाज को उपलब्ध न हों. इस उद्देश्य से वे दूसरों के साथ घृणा व द्वेष भी करें, उनका विरोध करें तथा कभी-कभी हिंसात्मक उपायों का भी अवलंबन करें.
      संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने ऐसे राष्ट्रीय व्यक्तियों का, जो स्वयं की प्रेरणा, व स्वेक्षा से राष्ट्र सेवा में लगें, को स्वयं सेवक माना तथा इनके अन्दर राष्ट्रभक्ति, चरित्र निर्माण, संस्कार तथा विकास के लिए दैनिक शाखा, जो प्रायः एक घंटे की होती है- में आने को प्रेरित किया. ऐसी शाखाएं सम्पूर्ण भारत में लगभग 55 हजार स्थानों पर आज भी लगती हैं जिसमें कोई भी भारतवासी भाग ले सकता है. विदेशों में भी तीन हजार के लगभग शाखाएं 33 देशों में लगती हैं. साप्ताहिक मिलन, रात्रि मिलन, मित्र मंडली आदि देशकाल की आवश्यकतानुसार अनेकों हैं. ऐसी शाखाओं की मुख्य पांच विशेषताएं हैं- पहली विशेषता है कि शाखा दैनिक, अनवरत लगती है इन शाखाओं पर जाड़ा, गर्मी और बाढ़ आदि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. दूसरी विशेषता है कि इस एक घंटे की शाखा में प्रति मिनट निर्धारित कार्यक्रम होते हैं जैसे- खेल, व्यायाम, योगासन, दंड व्यायाम, गीत, सुभाषित वाचन, जन्मदिन के अनुसार भारतीय महापुरुषों की जीवनी का स्मरण, पंचांग तथा संघ प्रार्थना. संघ स्थान पर राष्ट्र के प्राचीनतम भगवा ध्वज को ही गुरू मानकर उसकी प्रार्थना की जाती है. जो भारत माता का प्रतीक है. तीसरी विशेषता है कि इस शाखा में अपने को राष्ट्रीय माने वाला इस देश का प्रत्येक नागरिक चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई हो सभी भाग ले सकते हैं. संघ शाखा के द्वार सभी के लिए खुले हैं. चौथी विशेषता है, सर्वदूर जहां-जहां भारतीय हैं, वहां शाखा हैं. विदेशों में यह भारतीय स्वयं सेवक संघ, या हिन्दू स्वयं सेवक संघ के नाम से जाना जाता है. पांचवी विशेषता है कि सामान्य कार्यक्रम-शाखा का जो कार्यक्रम है वह साल में कभी एक-दो बार करेंगे, किसी त्यौहार की तरह ऐसा नहीं है. शाखा प्रतिदिन लगती है, शाखा एक घंटे की ही लगती है. शेष 23 घंटे स्वयं सेवक अपने निजी कार्य के उपयोग में ला सकते हैं. इसमें सभी आयु-वर्ग के लोग चाहें बाल, किशोर, प्रौढ़ या वृद्ध हों भाग ले सकते हैं. इन शाखाओं पर केवल पुरुष स्वयं सेवक ही भाग ले सकते हैं. महिलाओं की शाखा अलग से राष्ट्र सेविका समिति के नाम से लगती है. यही संघ कार्यकर्ता संघ की कार्य चेतना शक्ति व खेवनहार होते हैं. इनका गहन प्रशिक्षण प्रत्येक जिले में संघ शिक्षा वर्ग के नाम से वर्ष में दो बार आयोजित होता है. चिंतन, चर्चा, निर्णय, योजना, परिश्रम और सफलता यह समूह में होता है, यहीं संस्कारों की नींव पड़ती है. आदर, आत्मीयता, प्रेम, श्रद्धा और विश्वास इसी शाखा में जन्म लेता है. ध्येय के साथ एकरूपता और अन्तःस्फूर्ति का जन्म इसी शाखा पर ही हो जाता है.
      यही स्वयंसेवक जब कभी बाढ़, सूखा, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा या दुर्घटना आती है तो स्वतःस्फूर्त भावना से समाजसेवा में लग जाता है परंतु राजनैतिक स्वार्थ हर शक्ति को अपनी सवारी में जोतने का लोभी होता है, और जो शक्ति उसके इस उद्धेश्य को पूरा नहीं करती है उसके प्रति बरबस ही संदेह और अविश्वास के वातावरण बना देने की प्रवृत्ति का प्रचलन भी राजनीति में रहा है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भी इसी कारण संदेह के घेरे में उलझाने के प्रयत्न हो रहे हैं. बिना उचित कारण व सबूत के संघ पर तीन बार प्रतिबन्ध लगे. इसे साम्प्रदायिक कहा गया परंतु निरंतर 88 वर्षों से यह संगठन राष्ट्र साधना में रत है. इसकी आर्थिक व्यवस्था स्वशाषी तथा स्वावलम्बी है. वर्ष में एक बार समर्पण भाव से स्वयं सेवक भगवा ध्वज को गुरू मानकर गुरू दक्षिणा करता है. यही एकमात्र इसका आर्थिक आधार है. हिन्दू किसी उपासना पद्धति का नाम नहीं है, यह राष्ट्रीयता की पहचान है. इस मान्यता से हिन्दू समाज का संगठन राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है. “राष्ट्र स्वाभिमानी बने, भारतीय संस्कृति, इतिहास, महापुरुष यह गर्व की बात है” ऐसा भाव जागे तभी राष्ट्र आगे बढेगा. भारत जगत कल्याण के लिए बना है, पूरा विश्व सुखी हो, संघ मानव मूल्यों के मौलिक दर्शन में विश्वास करता है. समग्र सोच के साथ आध्यात्म केन्द्रित विकासपूर्ण आदर्शनीति इसकी थाती है. संघ कुछ भी नहीं करेगा, इसका स्वयं सेवक राष्ट्र हित में सब कुछ करेगा. यही कारण है कि संघ के स्वयं सेवक 36 अनुषांगिक संगठनों सहित लगभग जीवन के हर क्षेत्र में राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगे हैं. शिक्षा, व्यवसाय, संस्कृति, बनवासी, गिरिवासी, चिकित्सा, स्वास्थ्य, पर्यावरण व सामाज कल्याण जैसे सभी क्षेत्रों में स्वयं सेवक निष्ठापूर्वक कार्य कर रहा है. विश्व में भारतीय विचार की व्यापकता है. अतः हर देश में भारतीय व्यक्ति कार्यरत हैं उसका आधार है हमारा भारतीय जीवन दर्शन. संघ इसी भारतीयता को हिंदुत्व कहता है. आप चाहें जिस भी शब्द का प्रयोग करें परंतु राष्ट्र सबसे आगे और उसका हित सबका हित है यही संघ की प्रासंगिकता है.
(लेखक- पूर्व वरिष्ठ पूर्व प्रसाशनिक अधिकारी रहे हैं, तथा वर्तमान में लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान, लखनऊ में निदेशक हैं.)