Saturday 10 October 2015

मीडिया अभ्युदय और राजनीति के सात दशक

*अशोक कुमार सिन्हा
       
सामाजिक नियंत्रण और समाज को प्रभावित करने में मीडिया की भूमिका निर्विवाद है| मीडिया समाज को समर्पित है| विश्व ग्राम की संकल्पना में सर्वाधिक योगदान भी संचार एवं मीडिया का है| भारत में पहला अखबार अंग्रेजी में सन 1780 में कलकत्ता से अंग्रेजी मूल के व्यक्ति जेम्स आगस्टस हिक्की ने इस लिए निकाला क्योंकि ईस्ट इंडिया कम्पनी के लोग भारत को अपने धन अर्जन की मूल भावनावश बुरी तरह से लूट रहे थे और परम अत्याचारी हो गए थे| हिक्की यद्यपि स्वयं इसी उद्देश्य से भारत आया था और वह भी ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक अंग था परन्तु उसे अत्याचार और गवर्नर जनरल के भ्रष्ट कारनामों से घुटन हो रही थी| “बंगाल गजट एंड कलकत्ता जनरल एडवरटाईज़र” नामक यह अख़बार मष्तिष्क और आत्मा की स्वाधीनता के नाम था| बाद में दिग्दर्शन (1818) गास्पल मैगज़ीन (1820) और उदन्त मार्तंड (1826) से जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से ऐसे जुडा की वह राष्ट्रीयता के विकास की कहानी बन गया| उस समय प्रत्येक स्वतंत्रता संग्राम का चहेता व्यक्ति अख़बार निकालकर भारतीय जनमानस में जाग्रति लाना चाहता था|
               खीचों न कमानों को, न तलवार निकालो|
               जब तोप मुकाबिल हो तो, अख़बार निकालो||
      स्वर्गीय अज़ीमुल्ला खान, प. मदन मोहन मालवीय, विष्णुराव पराड़कर, महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी, मोती लाल घोष, लाला लाजपत राय, राजा राममोहन राय आदि ने इस परंपरा को पल्लवित, पुष्पित किया| स्वतंत्रता आन्दोलन में मीडिया एक मिशन था, जिसका उद्द्येश्य भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु जनमानस को प्रेरित करना था| सन 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और आज हमें आजाद हुवे 68 वर्ष बीत चुके हैं| मीडिया स्वतंत्रता मिशन की भावना से भटक गई और मीडिया मिशन के स्थान पर उद्योग का स्वरुप ले चुका है| व्यावसायिकता और तकनिकी का मीडिया में तेजी से विकास हुआ है| इलेक्ट्रोनिक उपकरणों नें मीडिया में अकल्पनीय विकास के मार्ग खोल दिए हैं| पहले जहाँ अत्यंत सिमित साधनों में मीडिया काम करता था फिर भी अत्यन्त उच्य कोटि की राष्ट्रीयता और सामाजिक सरोकारों के दर्शन होते थे, वहीँ आज अख़बारों पर प्रधान संपादकों का कब्ज़ा हो गया है, जो अधिकांशत; पूंजीपति या व्यवसाई होते हैं| मीडिया लाभ कमाने का उद्द्योग बन गया है| विज्ञापन के बिना अख़बार नहीं चल सकते| विज्ञापन क्षेत्र के मार्केटिंग मैनेजर या सी.इ.ओ. अंग्रेजी मानसिकता के लोग हैं, जो समझते हैं कि भारतीय बाज़ारों में खरीददार अंग्रेजी पढ़ते हैं या अंग्रेजी बोलते व् समझते हैं, इस लिए वे ज्यादातर विज्ञापन अंग्रेजी समाचार पत्रों को देते है| इससे भाषाई समाचार पत्रों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती गयी और वे विकासक्रम में पीछे रह गए| व्यावसायिकता के दौड़ में राष्ट्रहित तिरोहित होने लगा है| पत्रकारिता जीवनयापन का साधन होने के कारण उसकी निष्पक्षता प्रभावित होने लगी है| पत्रकार के हाँथ में समाज वैसे ही होता है जैसे चिकित्सक के हाँथ में मरीज़| एक गलती सबकुछ नष्ट कर सकती है| पत्रकार समाज के प्रति उत्तरदाई होता है और वह समाज का प्रतिनिधि भी है| स्वतंत्रता के पांचवे दशक में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगा था की मीडिया स्वाभिमानी होने के स्थान पर अहंकारी होती जा रही है| 
      सन 1951 के बाद हिंदी भाषा में दैनिक जागरण, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, आज, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, नई दुनिया (अब नेशनल दुनिया) आदि ने पत्रकारिता को नए आयाम दिए| असमिया भाषा में नूतन असमिया, अजीर बातोरी, उड़िया में “समाज”, उर्दू में जदीद-इन –दीनन, कौमी आवाज़, कन्नड़ में प्रजावानी, तमिल में  दिनथाथी, तेलगू में इनाडू, पंजाबी का अजीत, बंगाली में आनंद बाज़ार पत्रिका मराठी का नवकल, मलयाली में मलयाला मनोरमा, संस्कृत में लोक संस्कृतम आदि समाचार पत्रों ने भाषाई पत्रकारिता में अपना अलग स्थान बनाया| सामाजिक आर्थिक सूत्रधार के रूप में इन पत्रों का अपना अलग योगदान है| राष्ट्रीय, प्रादेशिक विस्तार के बाद अब इनके आंचलिक विकास का दौर प्रारम्भ हो चुका है| अंग्रेजी समाचार पत्र प्रारम्भ से राष्ट्रीय महत्त्व को बनाये रखे हैं| दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, आनंद बाज़ार पत्रिका, दी टेलीग्राफ, हिंदुस्तान टाइम्स, स्टैट्समैन, एवं दी हिंदू ने अपने विकास क्रम से एक खास वर्ग को पत्रकारिता के महत्त्व से रूबरू कराये रक्खा|
    संवाद समितियां भी मीडिया की अहम् अंग होती हैं| ब्रिटिश काल में “रायटर” की सब्सिडियरी ए.पी.आई. ही भारत की प्रमुख संवाद समिति थी, परन्तु 1947 में प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया का गठन हुआ जिसने  1949 से काम संभाला| 1948 में “हिंदुस्तान समाचार“ के नाम से समाचार समिति बनी जिसके प्रेरणाश्रोत वीर सावरकर थे और उन्होंने ही 1942 में बाबा साहेब आप्टे जी को भारतीय संवाद समिति की कल्पना दी थी| स्वतंत्रता के बाद के ही काल की उपज “यू.एन.आई. व समाचार भारती नामक संवाद समितियां हैं| पी,टी.आई. ने भाषा तथा यू.एन.आई. ने वार्ता नाम से बाद में हिंदी समाचार सेवा का प्रारम्भ किया| समाचार भारती संवाद समिति तो बंद हो गयी परन्तु आपातकाल के झटके के बाद हिन्दुस्थान समाचार समिति नें स्व. श्री श्रीकांत जोशी के प्रयासों से सन 2000 के बाद नवोत्थान काल में प्रवेश कर चुकी है जो लगभग सभी भारतीय भाषाओँ की अग्रणी बहुभाषी समाचार समिति के रूप में कार्य कर रही है|
     सन 1975 के आपातकाल में पत्रकारों और प्रेस की आज़ादी पर जो मनमाने अत्याचार हुए उसमें पत्रकारिता का एक नया रूप उभर कर सामने आया| राजनीती और पत्रकारिता का अंतरद्वंद उभर कर समाजहित में एक परिवर्तन का कारण बना| राजनीतिज्ञों को प्रेस की ताकत का एहसास हुआ, परन्तु यह भी सच है कि राजनीती और पत्रकारिता का गठजोड़ तथा सत्ता के आगे रेंगने लगना कुछ पत्रकारों व पत्रकार घरानों की बदनामी का भी कारण बना|
     इलेक्ट्रोनिक क्रांति ने मीडिया को वर्तमान स्वरुप में और अधिक आकर्षक बना दिया है| त्वरित गति से टी.वी रेडियो पर समाचार मिल जाने के कारन अब प्रिंट मीडिया की आवश्यकता समालोचना, विश्लेषण तथा विशेषताओं की टीका टिप्पणी तक सीमित हो गयी है| देश के राजनीतिज्ञों ने अपने हित में मीडिया को कब्जाने तथा अपने विचारों के प्रसार हेतु प्रयोग करने का नया नया फार्मूला तैयार कर लिया है| विज्ञापन व पेड न्यूज़ का युग कलम के सिपाहियों को मदहोश कर गाफिल बनाने में जुट गए और वतन के व्यापारियों ने देश बेचना शुरू कर दिया है| देश का तीस प्रतिशत भाग नस्लवाद से प्रभावित है| मीडिया में वामपंथी विचारधारा के अनेक लेखक, पत्रकार, साहित्यकारों ने नक्सलियों का साथ दिया| उच्य भौतिक जीवन स्तर की लालसा से अनेक पत्रकार राजनेताओं और उद्द्योगपतियों के हाँथ का खिलौना बन गए| मीडिया अंधी व्यवसायिक स्पर्धा में प्रवेश कर गया है| अपराध,राजनैतिक भ्रष्टता, स्टिंग ऑपरेशन, अश्लीलता ने इस दौर में मीडिया की विश्वसनीयता पर ग्रहण लगा दिया है| जहाँ मीडिया का प्रभाव बढा, वहीँ विश्वसनीयता घटी है| कालखंड के अनुरूप वैज्ञानिक प्रभावों तथा नई मीडिया के आ जाने से मीडिया के स्वरूप में परिवर्तन स्वाभाविक है परन्तु पत्रकारिता धंधा नहीं बनना चाहिए| यह धंधा सेवा भाव के कंधे पर बैठ गया है| मीडिया ख़बरें बेचने वाला एजेंट बन गया है| खरीददार के अनुरूप ख़बरों को आकर्षक व चटपटा बना कर अपनी ओर खींचने का काम पत्रकार करने लगे हैं| पत्रकार धर्म अब धंधा हो गया है| फिर भी उम्मीद की किरने अभी बाकी हैं और विश्वास है कि पत्रकारिता अपने पुराने स्वरूप को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करेगा|
     गर्व करने की बात यह है की मीडिया ने राजनीती के सात दशकों में अपने उठान के नए कलेवर गढ़े हैं| नया रूप प्रचलित कर समाज की स्वीकार्यता गढ़ी है| फेसबुक, ब्लॉग, इन्टरनेट, ट्विटर, ईपीएस और उपग्रहीय प्रणालियों से त्वरित समाचार प्रसार, मुद्रण व वितरण के नए प्रतिमान बनायें है| अनेक प्रशासनिक भ्रष्टाचार, राजनेताओं के पक्षपात, देशद्रोह तथा न्यायपालिका के कुछ निर्णयों के विरुद्ध उल्लेखनीय कार्य किया है| आज मीडिया के पास अधिक साधन व सुविधाएँ है| आवश्यकता है देश व समाज के प्रति निडरता से कर्तव्य निभाने, निष्पक्ष समाचारों से देश की प्रगति में सहायक बनाने की है| अधिक सुंदर, रंगीन फोटोयुक्त सामग्री देकर भी आज अख़बार पाठकों से जीवंत रिश्ता स्थापित नहीं कर पा रहें है| कारण कि मीडिया अधिक साधन संपन्न होने पर भी अपनी वास्तविक पहचान खोती  जा रही है|
     वस्तुतः मीडिया व्यवसाय नहीं सामाजिक उत्तरदायित्व का नाम है| इसका उद्देश्य सामाजिक यथार्थ, विसंगति तथा अन्याय से समाज को अवगत कराना है| मीडिया को सबके साथ न्याय करते हुये निष्पक्ष रहकर राष्ट्रहित को अंतिम लक्ष्य बनाना चाहिए| स्वतंत्रता के सात दशकों में उल्लेखनीय घटना यह हुई है कि ६९ वर्षों में हिंदी मीडिया ने अंग्रेजी का अधिकार तोड़ कर अपना महत्त्व प्रदर्शित किया है| पत्र-पत्रिकाओं में समाचार, साहित्य, संस्कृति, समाज, धर्म, महिला व बाल जगत, संगीत, सिनेमा, शेयर, उद्द्योग, व्यापर, कानून, आयकर, कृषि, खेलकूद, भविष्यवाणी,व्यंग, विज्ञानं, स्वास्स्थ्य, शिक्षा आदि स्तंभों से गुणात्मक परिवर्तन आया है| मीडिया का बहुआयामी विकास हुआ है| राष्ट्रीय भावना, भाषा आन्दोलन, गहन सांस्कृतिक चेतना, इतिहासबोध, जनजागृति का संकल्प, विचार-स्वातन्त्र्य तथा शैलीगत पैनापन आया है| इन्टरनेट युग में प्रवेश कर मीडिया नें अपनी इलेक्ट्रोनिक पहुँच से बता दिया है कि भारत के लगभग एक अरब मोबाईल धारक अपनी मुट्ठी में दुनिया ले कर घूम रहें है| समाज और राजनीति बदली है तो पत्रकारिता भी बदली है| वास्तव में अब अधिकांश पत्रकारों के आखों के सामने पहले देशहित और समाज  होता है बाद में प्रोफेशन| ऐसे सेवाभावी पत्रकारों का एक नया वर्ग अब खड़ा हो गया है| सही अर्थों में ऐसी पत्रकारिता आदर्श कही जा सकती है|                                                                     *लेखक लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान के निदेशक हैं|

Monday 19 January 2015

नीति आयोग से रुकेगा ग्रामीण पलायन

                                                                अशोक कुमार सिन्हा
 
     
भारत में हुए एक सर्वेक्षण में यह स्पष्ट हुआ है कि 42 प्रतिशत से अधिक किसान अपनी खेतिहर ज़मीन बेचकर किसी वैकल्पिक रोजगार अथवा व्यवसाय की तलाश में हैं. इस सर्वेक्षण के नतीजों में एक सन्देश स्पष्ट है कि देश की कृषि व्यवस्था, ग्रामीण जीवन तथा ग्रामीण विकास के प्रति घोर लापरवाही, उदासीनता और भावशून्यता हर तरफ़ से दिखाई गई है. कृषि को ही आज किसान ख़ुद ही घाटे का सौदा मानता है किसान. वर्तमान केन्द्रीय सरकार के घोषणा पत्र में संकल्प लिया गया था कि किसानों की उपज का कम से कम डेढ़ गुना मूल्य अवश्य दिलाया जाएगा. वहीं गन्ना, कपास, धान और मूंगफली जैसी नगदी फ़सलें उगाने वाले किसानों की दुर्दशा देखकर नहीं लगता कि निकट भविष्य में ऐसा कुछ हो पायेगा. आलू, गेहूं, दलहन और तिलहन उगाने वाले किसानों का तो कोई पुरसाहाल ही नहीं है.
      आज भारतीय किसानों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती किसी भी प्रकार से अपने को बचाए रखने की है. भूमि लाभ कमाने वाली एक आर्थिक संपत्ति है लेकिन वह असक्षम हाथों में है. देश की राष्ट्रीय आय में कृषि उपज क्षेत्र की हिस्सेदारी लगातार घटते हुए 14.5 फ़ीसदी से भी नीचे आ गई है. देश की 70 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों अर्थात अधिकांश किसानों की है. वहीं 60 करोड़ से अधिक लोग प्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर हैं. उनके सामने अन्य कोई विकल्प नहीं है इसके बावजूद वह किसानी से ऊब चुके हैं. आत्महत्या कर लेने के एकमात्र विकल्प के सिवा उनके पास अब कोई चारा शेष नहीं दिखाई पड़ता है. देश की आत्मा और अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले गांवों में सबकुछ ठीक नहीं है.
      विडंबना और विषाद का विषय है कि गांवों की पूरी हकीकत, किसानों की आवाज़ मीडिया के माध्यम से देश के समक्ष नहीं आ पा रही है. कृषि जोतों का लगातार विभाजन हो रहा है. आबादी निरंतर विस्फोटक की तरह बढ़ रही है. खेतिहर ज़मीनों का क्षेत्र निरंतर सीमित होता जा रहा है. यह केवल भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में एक साथ हो रहा है. देश में 30 फ़ीसदी सीमान्त किसान हैं, जीनके पास एक हेक्टेयर से भी m ज़मीनें बचीं हैं. खेतिहर ज़मीन कम होने से ग्रामीण जनसंख्या ने ऐसे क्षेत्र की ओर पलायन करना ज्यादा उचित समझा जहां रोजगार के अवसर अधिक उपलब्ध हों. इस पलायन ने देश की मूल आत्मा को घायल कर दिया है. कई नवीन सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ख़तरे बढ़ गये हैं. भूमंडलीकरण से जहां किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर होनी चाहिए थी उसके बरअक्स हालात बदतर हो गए हैं.
      गांवों की सामाजिक स्थितियां ऐसी हैं कि विवाह योग्य किसी लड़की का बाप गांवों में अपनी बेटी प्राथमिकता के आधार पर ब्याहना नहीं चाहता है. जो भी थोड़ा योग्य है, हाथ-पाँव और दिमाग चला सकता है वह शहर की ओर ही भागता है. भले ही वह रिक्शा चलाकर अपना पेट भरने को मजबूर हो. गांवों में कौशलयुक्त और प्रशिक्षित श्रम शक्ति का दायरा लगातार सकरा होता जा रहा है. वहीं शहरों की आबादी और बसाहट तेजी से कुरूप और अनियंत्रित हो रही है. यदि गांवों में पढ़ा-लिखा तबका या शहरी नौकरियों से अवकाश प्राप्त योग्य व्यक्ति अपनी ज़मीन की ओर लौटना भी चाहते हैं तो गांवों में उनका सामना होता है अशिक्षित या अल्पशिक्षित चालबाजों से. अशिक्षा, गंदगी, भ्रष्टाचार, मच्छर, कीचड़, मुकदमेबाज़ी और तिकड़मबाज़ों से ऊबकर वह मज़बूरन शहर की ओर पुनर्पलायन करने को उन्मुख होता है.
      'मनरेगा' जैसी योजनाओं ने यद्यपि ग्रामीण पलायन को कुछ हद तक रोक पाने में सफ़लता अर्जित की है. वहीं इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार ने काफ़ी हद तक निराश भी किया है. सरकारी योजनाओं के चमकते विज्ञापन टी.वी. पर देखकर तो यही लगता है कि गांवों की स्थिति सुधर रही है. वहीं उसके ग्राउंड जीरो पर जाने से पता चलता है कि निराशा के सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला. भारतीय संविधान में प्रत्येक नागरिक को समान माना गया है परन्तु शासन द्वारा संविधान की उपेक्षा करके शहरी नागरिकों की तुलना में और ग्रामीणों के साथ भेदभाव किया जा रहा है. स्वच्छ पेयजल, स्वास्थ्य सुरक्षा, बिजली, राशन वितरण, संचार, सड़क, शिक्षा तथा वातावरण अभी मामलों में गांव उपेक्षित हैं, वहीं शहरी आबादी को ख़ास तवज्जो दी जा रही है.
      शहरी मतदाता सभी दलों की सरकारों के लिए महत्वपूर्ण हैं. गांवों में कृषि और उस पर निर्भरता वाले उद्योगों की नगण्यता और शहरों में रोजगार के अधिक अवसर ग्रामीण पलायन को बढ़ावा दे रहे हैं. बजट के लिए 70 फीसदी राजस्व गांवों से अता है. वहीं चाहें उच्च शिक्षण संसथान हों, चाहें उद्योग धंधे हों, या उच्चतर स्वास्थ्य सेवाएं हों गांव इसके लिए और यह गांवों के लिए नहीं बने हैं. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र गांवों में और मेडिकल कालेज और यूनीवर्सिटी शहरों के लिए हैं. पढने वाले विद्यार्थी गांवों में हैं पर शैक्षणिक संस्थान शहरों में हैं. देश की कुल 25 फ़ीसदी आबादी का 75 फ़ीसदी आबादी ग्रामीणों से अधिक लाभ उठा रही है. शक्ति, सत्ता, पूंजी और संसधानों का इतना असमान और बेढंगा विकेंद्रीकरण तो निश्चय ही अन्याय और विसंगतियों को जन्म देगा.
      पूर्व में गठित योजना आयोग के सिर पर भूमंडलीकरण और उदारीकरण का भूत सवार था. उसमें जो विशेषज्ञ थे वे या तो विदेशी शिक्षा प्राप्त अर्थशास्त्री थे या वे थे जिनको गांवों से कुछ भी विशेष लगाव न था. वे आंकड़ों पर विशेष जोर देकर शहरीकरण को ही देश का सच्चा विकास मानते थे. उनका विश्वास था कि औद्योगिक उत्पादन बढ़ाकर हम देश का विकास कर सकते हैं. पूर्व में नीतियाँ भी ऐसी थीं तथा योजनायें भी ऐसी बनीं थीं कि ग्रामीण पलायन कम होने के बजे और अधिक बढ़ता चला गया. शहरी और ग्रामीण आबादी का अंतर और चौड़ा होता चला गया. औद्योगिक विकास दर से यद्यपि कृषि विकास दर प्रभावित होती है परन्तु नीतियों में कुछ मूलभूत खामियां प्रत्येक सरकारों में रहीं जिसके कारण लगातार कृषि क्षेत्र उपेक्षित होता गया. जिसके चलते ग्रामीण पलायन बदस्तूर ज़ारी रहा. अगर वक्त रहते इस पलायन को रोका नहीं गया तो 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा भी कभी सफ़ल नहीं हो सकता है. संविधान में सभी नागरिकों को समान अधिकार के उलंघन का महापाप और चढ़ता जाएगा.
      पिछली सभी सरकारों को किसान संघों और भारतीय किसान आयोग की चेतावनी निरंतर मिलती रहीं हैं. सभी सरकारों ने अपना चुनाव-चिन्ह और सरकारी नारे भी ग्रामीणों को लुभाने वाले ही रक्खे मगर काम ठीक उल्टा ही किया गया. आम आदमी का अर्थ ही लिया जाता है 'भारतीय किसान' मगर सबसे अधिक उपेक्षा उसकी ही की गई है. अगर सरकारी नीतियों की ओर हम ध्यान दें तो पायेंगे कि कमी सरकारी इच्छाशक्ति और नीतियों के निर्माण में है. कृषि विकास दर यदि 2.5 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है तो ओद्योगिक विकास दर 4 फ़ीसदी की विकास दर से. कृषि उत्पादों में यदि 2.5 फीसदी का इज़ाफा हो रहा है तो कृषि यन्त्र, खाद, बिजली, डीजल जैसे औद्योगिक उत्पादों की कीमत 4 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है. यही अंतर गांव और किसानों को निरंतर गरीब बना रहा है. आज खेती पूर्णतः घाटे का व्यवसाय बनकर रह गई है.
      राज्य और केंद्र सरकारें, कृषि विभाग और कृषि मंत्रालय बनाकर संतोष किये बैठीं हैं. जिसमें वैज्ञानिक कम नौकरशाह अधिक हैं. जो वैज्ञानिक हैं भी वो काम कम, ढोंग अथवा टिटिम्बा ज्यादा कर रहे हैं. रासायनिक खादों का अधिकाधिक प्रयोग खेतिहर ज़मीनों को बंज़र बना रहा है. जैविक खेती का नाटक भी खूब जोरों पर है. पशुओं की संख्या ही घट रही है तो देशी खाद आयेगी कहाँ से. परिणाम यह हो रहा है कि भूमि जहां बंजर हो रही है. वहीं उत्पादन और उत्पादकता एक बिंदु पर ठहर गई है. अब चाहें जितना ही अधिक उर्वरक प्रयोग करें उत्पादकता और उत्पादन बढ़ेगा ही नहीं.
      नई-नई बनी मोदी सरकार ने योजना आयोग को भंग करके नया 'नीति आयोग' (नेशनल इन्स्टीट्यूट फ़ार ट्रान्सफारमिंग इंडिया) का जतान कर क्रांतिकारी काम किया है. वहीं दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. अरविन्द          को उसका उपाध्यक्ष बनाया गया है. कई विषय विशेषज्ञों और सम्बंधित मंत्रियों के साथ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को उसका सदस्य बनाया गया है. उम्मीद का हौसला बंधता दिख रहा है और हम सब इस बात के लिए आशान्वित हो सकते हैं कि यह नीति आयोग ऐसी नीतियों को लागू करेगा, जिससे कृषि विकास दर और औद्योगिक विकास दर की असमानता दूर होगी. कृषि क्षेत्र की विकास दर 4 फ़ीसदी के आंकड़े को प्राप्त कर सकेगी. भूमि संरक्षण, जल संसाधनों और स्रोतों का का बेहतर इस्तेमाल, तथा जैव विविधता और प्रर्यावरण का संरक्षण हो सकेगा.
      हम उम्मीद कर सकते हैं कि समान रूप से क्षेत्रवार कृषि को विकसित करने की कार्ययोजना बनेगी. घरेलू खपत और विदेशी निर्यात की संभावनाओं को देखते हुए कृषि उत्पादन को नियोजित किया जा सकेगा. टिकाऊ खेती के लिए बेहतर प्रयास हो सकेंगे. कृषि शोध में आई जड़ता को समाप्त करते हुए ऐसे नये अनुसंधान हो सकें जो देश की आवश्यकता के अनुरूप हों. विदेशी नकल कम होगी और दिखावे के लिए कागजी काम के बजाय वैज्ञानिक वास्तविक शोध के लिए प्रेरित हो सकेंगे तो बेहतर तस्वीर देखने को मिल सकेगी. कृषि विश्वविद्यालयों का बांझपन दूर हो सके और वहां जमीन से जुड़े शोध विद्यार्थी और स्नातकों-परास्नातकों का निर्माण हो. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद तथा अन्य शोध संस्थानों का यथास्थितिवाद दूर हो. आंतरिक गुटबाजी, दिखावे का अहंकार तथा प्रमोशन की हताशा-निराशा का वातावरण समाप्त होकर नये उत्साह से कार्य प्रारम्भ हो सके.
      ग्रामीण योजनायें इस प्रकार संशोधित की जा सकें जिससे भ्रष्टाचार को दूर करते हुए जमीनी कार्य हो सके. यदि प्रधानमंत्री के आदर्श गांव जयापुर में सबकुछ तेजी से हो सकता है तो तो और गांवों में क्यों नहीं. इसके लिए नौकरशाही पर कड़ा नियंत्रण स्थापित करना होगा. तभी सकारात्मक परिणाम प्राप्त होंगे. क्या नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री और नया 'नीति आयोग' इस कसौटी पर खरा उतर सकेगा. क्या लापरवाही और उदासीनता के वातावरण में पले, बढ़े और काबिज नौकरशाह भी इस बदलाव को स्वीकार करेंगे. शासन उद्योग और अवस्थापना में तो रूचि दिखा रहा है परन्तु कृषि की ओर उसकी दृष्टि नहीं है. कहीं भूमंडलीकरण की चकाचौंध इस निति आयोग को भी योजना आयोग तो नहीं बना देगा. फ़िलहाल आशावादी होने में ही अभी भलाई है. कुछ वक्त इस नई सरकार को और देना ही न्यायसंगत होगा.

(लेखक: उत्तर प्रदेश गन्ना सेवा के गन्ना विकास और चीनी उद्योग में 38 वर्षों तक मुख्य प्रचार अधिकारी रहे हैं. वर्तमान में 'लखनऊ पत्रकारिता एवं जनसंचार संस्थान' के निदेशक हैं.)