Saturday 10 October 2015

मीडिया अभ्युदय और राजनीति के सात दशक

*अशोक कुमार सिन्हा
       
सामाजिक नियंत्रण और समाज को प्रभावित करने में मीडिया की भूमिका निर्विवाद है| मीडिया समाज को समर्पित है| विश्व ग्राम की संकल्पना में सर्वाधिक योगदान भी संचार एवं मीडिया का है| भारत में पहला अखबार अंग्रेजी में सन 1780 में कलकत्ता से अंग्रेजी मूल के व्यक्ति जेम्स आगस्टस हिक्की ने इस लिए निकाला क्योंकि ईस्ट इंडिया कम्पनी के लोग भारत को अपने धन अर्जन की मूल भावनावश बुरी तरह से लूट रहे थे और परम अत्याचारी हो गए थे| हिक्की यद्यपि स्वयं इसी उद्देश्य से भारत आया था और वह भी ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक अंग था परन्तु उसे अत्याचार और गवर्नर जनरल के भ्रष्ट कारनामों से घुटन हो रही थी| “बंगाल गजट एंड कलकत्ता जनरल एडवरटाईज़र” नामक यह अख़बार मष्तिष्क और आत्मा की स्वाधीनता के नाम था| बाद में दिग्दर्शन (1818) गास्पल मैगज़ीन (1820) और उदन्त मार्तंड (1826) से जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से ऐसे जुडा की वह राष्ट्रीयता के विकास की कहानी बन गया| उस समय प्रत्येक स्वतंत्रता संग्राम का चहेता व्यक्ति अख़बार निकालकर भारतीय जनमानस में जाग्रति लाना चाहता था|
               खीचों न कमानों को, न तलवार निकालो|
               जब तोप मुकाबिल हो तो, अख़बार निकालो||
      स्वर्गीय अज़ीमुल्ला खान, प. मदन मोहन मालवीय, विष्णुराव पराड़कर, महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी, मोती लाल घोष, लाला लाजपत राय, राजा राममोहन राय आदि ने इस परंपरा को पल्लवित, पुष्पित किया| स्वतंत्रता आन्दोलन में मीडिया एक मिशन था, जिसका उद्द्येश्य भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु जनमानस को प्रेरित करना था| सन 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और आज हमें आजाद हुवे 68 वर्ष बीत चुके हैं| मीडिया स्वतंत्रता मिशन की भावना से भटक गई और मीडिया मिशन के स्थान पर उद्योग का स्वरुप ले चुका है| व्यावसायिकता और तकनिकी का मीडिया में तेजी से विकास हुआ है| इलेक्ट्रोनिक उपकरणों नें मीडिया में अकल्पनीय विकास के मार्ग खोल दिए हैं| पहले जहाँ अत्यंत सिमित साधनों में मीडिया काम करता था फिर भी अत्यन्त उच्य कोटि की राष्ट्रीयता और सामाजिक सरोकारों के दर्शन होते थे, वहीँ आज अख़बारों पर प्रधान संपादकों का कब्ज़ा हो गया है, जो अधिकांशत; पूंजीपति या व्यवसाई होते हैं| मीडिया लाभ कमाने का उद्द्योग बन गया है| विज्ञापन के बिना अख़बार नहीं चल सकते| विज्ञापन क्षेत्र के मार्केटिंग मैनेजर या सी.इ.ओ. अंग्रेजी मानसिकता के लोग हैं, जो समझते हैं कि भारतीय बाज़ारों में खरीददार अंग्रेजी पढ़ते हैं या अंग्रेजी बोलते व् समझते हैं, इस लिए वे ज्यादातर विज्ञापन अंग्रेजी समाचार पत्रों को देते है| इससे भाषाई समाचार पत्रों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती गयी और वे विकासक्रम में पीछे रह गए| व्यावसायिकता के दौड़ में राष्ट्रहित तिरोहित होने लगा है| पत्रकारिता जीवनयापन का साधन होने के कारण उसकी निष्पक्षता प्रभावित होने लगी है| पत्रकार के हाँथ में समाज वैसे ही होता है जैसे चिकित्सक के हाँथ में मरीज़| एक गलती सबकुछ नष्ट कर सकती है| पत्रकार समाज के प्रति उत्तरदाई होता है और वह समाज का प्रतिनिधि भी है| स्वतंत्रता के पांचवे दशक में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगा था की मीडिया स्वाभिमानी होने के स्थान पर अहंकारी होती जा रही है| 
      सन 1951 के बाद हिंदी भाषा में दैनिक जागरण, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, आज, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, नई दुनिया (अब नेशनल दुनिया) आदि ने पत्रकारिता को नए आयाम दिए| असमिया भाषा में नूतन असमिया, अजीर बातोरी, उड़िया में “समाज”, उर्दू में जदीद-इन –दीनन, कौमी आवाज़, कन्नड़ में प्रजावानी, तमिल में  दिनथाथी, तेलगू में इनाडू, पंजाबी का अजीत, बंगाली में आनंद बाज़ार पत्रिका मराठी का नवकल, मलयाली में मलयाला मनोरमा, संस्कृत में लोक संस्कृतम आदि समाचार पत्रों ने भाषाई पत्रकारिता में अपना अलग स्थान बनाया| सामाजिक आर्थिक सूत्रधार के रूप में इन पत्रों का अपना अलग योगदान है| राष्ट्रीय, प्रादेशिक विस्तार के बाद अब इनके आंचलिक विकास का दौर प्रारम्भ हो चुका है| अंग्रेजी समाचार पत्र प्रारम्भ से राष्ट्रीय महत्त्व को बनाये रखे हैं| दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, आनंद बाज़ार पत्रिका, दी टेलीग्राफ, हिंदुस्तान टाइम्स, स्टैट्समैन, एवं दी हिंदू ने अपने विकास क्रम से एक खास वर्ग को पत्रकारिता के महत्त्व से रूबरू कराये रक्खा|
    संवाद समितियां भी मीडिया की अहम् अंग होती हैं| ब्रिटिश काल में “रायटर” की सब्सिडियरी ए.पी.आई. ही भारत की प्रमुख संवाद समिति थी, परन्तु 1947 में प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया का गठन हुआ जिसने  1949 से काम संभाला| 1948 में “हिंदुस्तान समाचार“ के नाम से समाचार समिति बनी जिसके प्रेरणाश्रोत वीर सावरकर थे और उन्होंने ही 1942 में बाबा साहेब आप्टे जी को भारतीय संवाद समिति की कल्पना दी थी| स्वतंत्रता के बाद के ही काल की उपज “यू.एन.आई. व समाचार भारती नामक संवाद समितियां हैं| पी,टी.आई. ने भाषा तथा यू.एन.आई. ने वार्ता नाम से बाद में हिंदी समाचार सेवा का प्रारम्भ किया| समाचार भारती संवाद समिति तो बंद हो गयी परन्तु आपातकाल के झटके के बाद हिन्दुस्थान समाचार समिति नें स्व. श्री श्रीकांत जोशी के प्रयासों से सन 2000 के बाद नवोत्थान काल में प्रवेश कर चुकी है जो लगभग सभी भारतीय भाषाओँ की अग्रणी बहुभाषी समाचार समिति के रूप में कार्य कर रही है|
     सन 1975 के आपातकाल में पत्रकारों और प्रेस की आज़ादी पर जो मनमाने अत्याचार हुए उसमें पत्रकारिता का एक नया रूप उभर कर सामने आया| राजनीती और पत्रकारिता का अंतरद्वंद उभर कर समाजहित में एक परिवर्तन का कारण बना| राजनीतिज्ञों को प्रेस की ताकत का एहसास हुआ, परन्तु यह भी सच है कि राजनीती और पत्रकारिता का गठजोड़ तथा सत्ता के आगे रेंगने लगना कुछ पत्रकारों व पत्रकार घरानों की बदनामी का भी कारण बना|
     इलेक्ट्रोनिक क्रांति ने मीडिया को वर्तमान स्वरुप में और अधिक आकर्षक बना दिया है| त्वरित गति से टी.वी रेडियो पर समाचार मिल जाने के कारन अब प्रिंट मीडिया की आवश्यकता समालोचना, विश्लेषण तथा विशेषताओं की टीका टिप्पणी तक सीमित हो गयी है| देश के राजनीतिज्ञों ने अपने हित में मीडिया को कब्जाने तथा अपने विचारों के प्रसार हेतु प्रयोग करने का नया नया फार्मूला तैयार कर लिया है| विज्ञापन व पेड न्यूज़ का युग कलम के सिपाहियों को मदहोश कर गाफिल बनाने में जुट गए और वतन के व्यापारियों ने देश बेचना शुरू कर दिया है| देश का तीस प्रतिशत भाग नस्लवाद से प्रभावित है| मीडिया में वामपंथी विचारधारा के अनेक लेखक, पत्रकार, साहित्यकारों ने नक्सलियों का साथ दिया| उच्य भौतिक जीवन स्तर की लालसा से अनेक पत्रकार राजनेताओं और उद्द्योगपतियों के हाँथ का खिलौना बन गए| मीडिया अंधी व्यवसायिक स्पर्धा में प्रवेश कर गया है| अपराध,राजनैतिक भ्रष्टता, स्टिंग ऑपरेशन, अश्लीलता ने इस दौर में मीडिया की विश्वसनीयता पर ग्रहण लगा दिया है| जहाँ मीडिया का प्रभाव बढा, वहीँ विश्वसनीयता घटी है| कालखंड के अनुरूप वैज्ञानिक प्रभावों तथा नई मीडिया के आ जाने से मीडिया के स्वरूप में परिवर्तन स्वाभाविक है परन्तु पत्रकारिता धंधा नहीं बनना चाहिए| यह धंधा सेवा भाव के कंधे पर बैठ गया है| मीडिया ख़बरें बेचने वाला एजेंट बन गया है| खरीददार के अनुरूप ख़बरों को आकर्षक व चटपटा बना कर अपनी ओर खींचने का काम पत्रकार करने लगे हैं| पत्रकार धर्म अब धंधा हो गया है| फिर भी उम्मीद की किरने अभी बाकी हैं और विश्वास है कि पत्रकारिता अपने पुराने स्वरूप को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करेगा|
     गर्व करने की बात यह है की मीडिया ने राजनीती के सात दशकों में अपने उठान के नए कलेवर गढ़े हैं| नया रूप प्रचलित कर समाज की स्वीकार्यता गढ़ी है| फेसबुक, ब्लॉग, इन्टरनेट, ट्विटर, ईपीएस और उपग्रहीय प्रणालियों से त्वरित समाचार प्रसार, मुद्रण व वितरण के नए प्रतिमान बनायें है| अनेक प्रशासनिक भ्रष्टाचार, राजनेताओं के पक्षपात, देशद्रोह तथा न्यायपालिका के कुछ निर्णयों के विरुद्ध उल्लेखनीय कार्य किया है| आज मीडिया के पास अधिक साधन व सुविधाएँ है| आवश्यकता है देश व समाज के प्रति निडरता से कर्तव्य निभाने, निष्पक्ष समाचारों से देश की प्रगति में सहायक बनाने की है| अधिक सुंदर, रंगीन फोटोयुक्त सामग्री देकर भी आज अख़बार पाठकों से जीवंत रिश्ता स्थापित नहीं कर पा रहें है| कारण कि मीडिया अधिक साधन संपन्न होने पर भी अपनी वास्तविक पहचान खोती  जा रही है|
     वस्तुतः मीडिया व्यवसाय नहीं सामाजिक उत्तरदायित्व का नाम है| इसका उद्देश्य सामाजिक यथार्थ, विसंगति तथा अन्याय से समाज को अवगत कराना है| मीडिया को सबके साथ न्याय करते हुये निष्पक्ष रहकर राष्ट्रहित को अंतिम लक्ष्य बनाना चाहिए| स्वतंत्रता के सात दशकों में उल्लेखनीय घटना यह हुई है कि ६९ वर्षों में हिंदी मीडिया ने अंग्रेजी का अधिकार तोड़ कर अपना महत्त्व प्रदर्शित किया है| पत्र-पत्रिकाओं में समाचार, साहित्य, संस्कृति, समाज, धर्म, महिला व बाल जगत, संगीत, सिनेमा, शेयर, उद्द्योग, व्यापर, कानून, आयकर, कृषि, खेलकूद, भविष्यवाणी,व्यंग, विज्ञानं, स्वास्स्थ्य, शिक्षा आदि स्तंभों से गुणात्मक परिवर्तन आया है| मीडिया का बहुआयामी विकास हुआ है| राष्ट्रीय भावना, भाषा आन्दोलन, गहन सांस्कृतिक चेतना, इतिहासबोध, जनजागृति का संकल्प, विचार-स्वातन्त्र्य तथा शैलीगत पैनापन आया है| इन्टरनेट युग में प्रवेश कर मीडिया नें अपनी इलेक्ट्रोनिक पहुँच से बता दिया है कि भारत के लगभग एक अरब मोबाईल धारक अपनी मुट्ठी में दुनिया ले कर घूम रहें है| समाज और राजनीति बदली है तो पत्रकारिता भी बदली है| वास्तव में अब अधिकांश पत्रकारों के आखों के सामने पहले देशहित और समाज  होता है बाद में प्रोफेशन| ऐसे सेवाभावी पत्रकारों का एक नया वर्ग अब खड़ा हो गया है| सही अर्थों में ऐसी पत्रकारिता आदर्श कही जा सकती है|                                                                     *लेखक लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान के निदेशक हैं|