Wednesday 28 June 2017

*बनारस : एक समूची संस्कृति*
• हेमंत शर्मा
बनारस को समझने के लिए अपनी परम्परा और संस्कृति को समझना होगा। धर्म, परम्परा और संस्कृति की अनादि अनंत परम्परा से ओतप्रोत बनारस जिसका न कभी इतिहास बदला न भूगोल।
बनारस यानी साम्प्रदायिक सद्भाव का एक हजार साल पुराना गौरवशाली इतिहास। बनारस यानी लुकाठी हाथ में लेकर सच कहने की ‘कबीरी परम्परा’। बनारस यानी ठुमरी, दादरा, कथक और तबले की विरासत। साहित्य और संगीत की अनंत परम्परा।
यह भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिका शहर है। सर्वहारा के देवता शिव यहीं विराजते हैं। वे आदि भी हैं और अंत भी। शायद इसीलिए बाकी सब देव हैं, केवल शिव महादेव।
उत्सव-प्रियता इस शहर का स्वभाव है। शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की इस शहर के पास कला है। यही शैव परंपरा है।
बनारस महज एक शहर नहीं, समूची संस्कृति है। उसकी न धर्म है न जाति। यहां चार सौ साल पहले कबीर चादर बुनते-बुनते आधुनिक समाज का ताना बाना रच गए थे। उसके व्यवहार और विचार के सिद्धान्त गढ़ गए थे।
यहीं उन्होंने हिन्दू मुसलमान के आडम्बर को पहचाना और धर्म के पाखण्ड के खिलाफ शंखनाद किया। जीवन-जगत को जाना। उन्हीं के शब्दों में
“ना कछु किया न करि सका, न करने जोग शरीर।
जो कछु किया सो हरि किया, भये कबीर कबीर।”
तो यहीं कबीर, कबीर हुए। कबीर याने सबसे बड़ा। कबीर अवैध सन्तान थे। इसलिए समाज की सारी अवैधताओं पर उन्होंने यहाँ से चोट की।
बनारस भक्ति के साथ रस भी बरसाता है। पंडित कण्ठे महाराज का अलाप हो या किशन महाराज और गोदई महाराज के तबले का ठेका। गिरिजा देवी की ठुमरी हो या सितारा देवी और गोपीकृष्ण के नृत्य की ताल। हनुमान प्रसाद मिश्र की सारंगी हो या फिर पंडित राम सहाय, राजन-साजन मिश्र का गायन। सबकी जड़ें इसी कबीरचौरा में है। यह शहर प्रसाद, प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल का भी है। देवकीनंदन खत्री , रुद्र काशीकेय , जगन्नाथ दास रत्नाकर और ठाकुर प्रसाद सिंह का भी। हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र का भी। नामवर सिंह और शिवप्रसाद सिंह का भी। मंगला गौरी मंदिर में शहनाई बजाते बिस्मिल्लाह खां का भी। कीनाराम, लाहड़ी महाशय और तैलंग स्वामी का भी। कबीर ने निराकार ब्रह्म को जाना था, तुलसी ने माना था। बनारस दोनों का है।
यह इतिहास से बाहर भूगोल से परे है। परम्परा को जीता और आधुनिकता को ओढ़ता बिछाता। कुछ करने की वासना नहीं। होने का सौन्दर्य है। मस्ती ऐसी कि गंगा नहाने और जूता सिलने में यहां के समाज में कोई फर्क नहीं है। आप जैसे अनाड़ियों को ठेंगे पर रखना इसका स्वभाव है। फक्कड़पन विशिष्टता। लिंग पूजा सांस्कृतिक विरासत है। लुकाठी हाथ में लेकर अपना घर फूंकने की तत्परता इसकी प्रकृति है। रांड़, सांड़, सीढ़ी, संन्यासी प्रतीक हैं।
इसी शहर में कबीर ने सधुक्कड़ी भाषा गढ़ी। जिसे बाद में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा के संस्कार दिए। और तुलसी ने देवभाषा के समानान्तर लोक भाषा खड़ी की।
डॉ. लोहिया ने तो "सुधरो और टूटो" का नारा 19वीं शताब्दी में दिया था। कबीर अपने वक्त में ‘सुधरो या टूटो’ की मुनादी कर रहे थे। वे सुधार चाहते थे, भले व्यवस्था टूट जाए। तब बनारस ने मोटी-मोटी पोथियों के अस्तित्व को नकारा था। किताबी ज्ञान के बरक्स सिर्फ "ढाई आखर प्रेम" की पढ़ने की जरूरत बताई थी। जब लोकतांत्रिक समाज बना ही नहीं था तो इस शहर ने आलोचना को सर्वोपरि माना था। बनारस का एलान था, “निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय।” भले इस विकसित लोकतंत्र में अब किसी को आलोचना बर्दाश्त नहीं है।
मार्क्स से चार शताब्दी पहले बनारस का साम्यवाद देखिए। ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय। मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय।' मांग और आपूर्ति पर यह फतवा मार्क्स से चार सौ साल पहले बनारस का था। मांगने में भी साम्यवाद। अस्तेय और अपरिग्रह का समाज।
तब से लोग इस शहर को समझने की कोशिश में लगे हैं। जिसकी जैसी समझ उसका वैसा बनारस। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, समानता, सद्भाव और पाखण्ड तथा आडम्बर के खिलाफ बीज तत्व इस शहर में मौजूद है। व्यापक दृष्टि के बग़ैर इस शहर के यथार्थ को समझना कठिन है।