Thursday 8 June 2023

 भारतीय संस्कृति का विष्वव्यापी स्वरूप

अषोक कुमार सिन्हा
सांस्कृति राष्ट्र की नैसर्गिक इकाई को आज राष्ट्र राज्यों में बांट कर संचरण बाधित कर दिया गया है अतः सांस्कृतिक सजीवता विरल हो गई है। आज भारतीयों की स्थिति यह हो गयी है कि वह स्वयं को पहचाननें में कठिनाई का अनुभव कर रहें हैं। भारत जैसे गौरवषाली राश्ट्र की सर्वकल्यायकारी सनातन संस्कृति की महानता उसके विष्वव्यापी ज्ञान और आध्यात्मिकता के कारण है। षाष्वत सत्य के सतत खोज में भारतीय ऋशि विज्ञानियों ने सम्पूर्ण विश्व में जा कर अपने ज्ञान का अलख जगाया। जिस समय विष्व के अधिकांश देष सभ्यता के विकास की प्रथम सीढ़ी पर थे, उस समय भारत अपनी सभ्यता और संस्कृति के कारण विष्वगुरु माना जाता था। विश्व के कोने-कोने से विद्यार्थीगण भारत में ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने के लिये तक्षषिला, नालन्दा, विक्रमशिला एवं वाराणसी के महान विद्वानों के पास आया करते थे। ऐसे विद्याथियों की ज्ञान पिपासा शान्त करने की क्षमता केवल भारत में थी। एक ओर फाहियान और ह्वेनसांग भारत के विश्वविद्यालयों में विद्याध्ययन के लिये आते थे तब दूसरी ओर यहाँ के आचार्य, ऋशि और विद्वान सुदूर देषों में संस्कृति और धर्म, आध्यात्म का दीप जला रहे थे। भारतीय संस्कृति और धर्म-विज्ञान के प्रचार-प्रसार में अगस्त्य मुनि का नाम विश्व के अन्य भागों में भारत का ज्ञान का दीप जलाने वालों में प्रथम स्थान रखता है। इन्होने दक्षिण पूर्व एशिया के अर्द्धसभ्य राष्ट्रों में ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित करने का कार्य किया। इन्होने दक्षिण भारत से वरुण द्वीप, शंख द्वीप, मलय द्वीप और यव द्वीप सहित अनेक देशों की सांस्कृतिक यात्रा की, जहाँ इनके नाम की षपथ ली जाती है। दीपंकर बुद्ध से जावा, सुमात्रा, सेलिबीज, श्याम और अन्नाम में ज्ञान प्रकाशित हुआ। मौर्य शासक सम्राट अशोक ने पूर्व-पष्चिम, उत्तर-दक्षिण चारों दिशाओं में धर्म प्रचारक भेजे। इसा की मातृभूमि में बुद्ध की शिक्षाएँ अशोक ने पहुँचायीं थी। स्वयं बुद्ध ने साठ अर्हत विभिन्न दिशाओं में धर्म प्रसार के लिये नियुक्त किये थे। इन्ही धर्म प्रचारकों ने हिमालय के किरात लोगों और स्वर्ण भूमि के आग्नेय लोगों के बीच भारतीय संस्कृति व धर्म का बीजारोपण किया। अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा ने सिंहल द्वीप के अनुराधपुर नगर मे बोधि वृक्ष की शाखा रोपी। जावा और सुमात्रा में नालन्दा शिक्षित धर्मपाल ने अपने शिश्य शीलभद्र व धर्मकीर्ति के साथ संस्कृति व धर्म पताका लहरायी। 65 ई. में कष्यप, मतंग और धर्मरत्न ने तथा बुद्धभद्र ने चीन में ज्ञान का दीपक जलाया। कुमारजीव का नाम संस्कृत और चीनी भाशा के प्रकाण्ड विद्वान के रूप में चीन में जाना जाता है। सार्वभौम मस्तिश्क का सिद्धान्त चीनी दर्शन को भारत की देन है। 372 ई. में बौद्ध धर्म चीन से कोरिया पहुँचा और वहीं से भारतीय संस्कृति का प्रवेष जापान में हुआ। मंगोलिया का सम्बन्ध भारत से ईसा के आठवीं षताब्दि में जुड़े। प्रज्ञा नामक भारतीय विद्वान ने संस्कृति का बौद्ध ग्रन्थों का मंगोल भाषा में अनुवाद किया। नालन्दा प्रशिक्षित पद्मसम्भव ने तिब्बत में 30 वर्श प्रवास किया और नागरिक व धार्मिक कानून बनाये। विक्रमषिला विष्वविद्यालय प्रषिक्षित दीपषंकर श्रीज्ञान ने नेपाल, तिब्बत, भूटान, सिक्किम और भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में, जीवन, आचार-विचार, व्यवहारों और भारतीय संस्कृति से प्रमाणित किया। नेपाल ने अपने को हिन्दू राश्ट्र घोशित किया।
    बगदाद के खलीफा हारुल-रषीद के प्रषासन में भारतीय संस्कृति के प्रवाह से बगदाद का दरबार आप्लावित था। बरभक नामक वहाँ के वजीर भारतीय वैद्यों को बुला कर बगदाद में वैद्य के पदों पर नियुक्त करते थे। अरब विद्यार्थियों को वे भारत पढ़ने के लिये भेजते थे। भारत से गणित व संगीत को अरब लोगों ने ही यूरोप पहुँचाया। पंचतंत्र की कहानियाँ भी उन्ही के द्वारा विदेशों में पहुँची। भारत ही वह महान देष है जिसने विश्व को उपनिषदों और भगवत गीता का ज्ञान दिया। भारत में गुप्त साम्राज्य की प्रस्थापना होने से पहले ही भारत के जलयान पश्चिमी एशिया के अनेक भागों की यात्रा करते रहते थे। मुख्य रूप से पष्चिमी देशों की ओर से बसरा को भारत का प्रवेश द्वार माना जाता था। बहुमूल्य रत्नों, मोतियों, रजत, स्वर्ण के साथ अनेक उपयोगी वस्तुओं का व्यापार भारत की ओर से किया जाता था। ईसा की पहली दो शताब्दियों में पेत्रा नामक स्थान भारतीय वाणिज्यिक व्यापारिक वस्तुओं के विक्रय का प्रमुख केन्द्र था। दजला और फरात नामक दो नदियों के संगम पर बसा हुआ ‘उबला’ नामक नगर भारतीय वस्तुओं के खरीद का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। म्यानमार, स्याम, कम्बोडिया, हिन्द चीन, जावा, मेडागास्कर, अरब, पुर्तगाल, समुद्रमार्ग से भारतीयों ने सभ्यता और संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने वाले नौचालक वर्ग से जुड़े भारतीय ही थे। दक्षिण में, चोल राजाओं की राजधानी कावेरीपट्टनम एक सुप्रसिद्ध बन्दरगाह था और राजेन्द्र चोल ने मलय द्वीप पर विजय प्राप्त कर भारतीय संस्कृति का व्यापाक प्रसार किया। चम्पा द्वीप से भारतीय सीधे चीन पहुँचते थे। चीन में हुवाई षान के नाम से प्रसिद्धि पाने वाले भारतीय भिक्षु हरिचन्द ने ईसा की पाँचवी शताब्दी में चीन हो कर मेक्सिको की यात्रा की थी।
    हरिचन्द अपने षिश्यों के साथ भरतीय ज्ञान, आध्यात्म की ज्योति जगा कर वृद्धावस्था में पुनः चीन आ गये। उन्होने योरोपवासियों से पूर्व ही अमेरिका की खोज कर ली थी। इस यात्रा का वर्णन एडवर्ड पी0 विनिंग नामक विदेषी लेखक ने ‘अज्ञात कोलम्बस’ षीर्शक से किया है। अफगानिस्तान, नेपाल, तिब्बत, खोतान, मंगोलिया, श्रीलंका, म्यान्मार, थाईलैण्ड, कम्बोडिया, चम्पा जावा, बाली, बोर्नियो, चीन, जापान आदि अनेकानेक देषों में गणपति गणेष की पूजा अर्चना होती रही है। इण्डोनेषिया की मुद्रा या नोटों पर आज भी गणेष का चित्र अंकित रहता है। स्वर्ण भूमि एयरपोर्ट पर समुद्रमथंन की सोने की बड़ी सी मूर्ति बनी है। श्रीलंका में रामायण का 7150 वर्श पुराना सम्बन्ध है। रामसेतु उसका जीवित प्रमाण है।
    हिन्दू जीवन मूल्यों का प्रसार रामायण और रामकथा के माध्यम से लगभग 7 हजार 150 वर्शों से अधिक पुराना है। राम के प्रमाण रूस, इजिप्ट, से ले कर वियतनाम तक विस्तारित हैं। कोरिया जापान का सीधा सम्बन्ध अयोध्या राज्य से है। अयोध्या की राजकुमारी का विवाह कोरिया के षासक किम से हुआ था। आज भी भारत के साथ-साथ राम के जीवनवृत्त से सम्बन्धित षिलापट्ट विदेषों के पुरातत्व सर्वेक्षकों के लिये आष्चर्य का विशय है। सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता बी.यस. वाकणकर द्वारा मिश्र से तीसरी षताब्दी में ब्राह्मी लिपि के एक षिलालेख को खोज निकालने से वहाँ वैदिक हिन्दू संस्कृति की विद्यमानता की पुश्टि होती है। यह षिलालेख मिश्र की राजधानी काहिरा के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है। अबीसीनिया में बड़ी संख्या में कुशाणकालीन स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुई है। इतिहासकार अलबरूनी ने लिखा है कि खुरासान, फारस, इराक, मोसुल और सीरिया तक बौद्ध धर्म का बहुत अधिक प्रचार-प्रसार हो चुका था। सिख मत के प्रणेता गुरुनानक देव जी सन 1518 में अपने दो षिश्यों बाला और मरदाना के साथ सूरत से अरब देष गये। उनकी स्मृति में अदन में आज भी एक मन्दिर विद्यमान है। वे जेद्दा, मक्का भी गये थे, बगदाद, हलीब, तेहरान, इस्फान, तुर्किस्तान, ताषकन्द बुखारा, समरकन्द और अफगानिस्तान की यात्राएँ भी की और इस्लाम के गढ़ में जा कर भारत की सांस्कृतिक दिग्विजय का झण्डा गाड़ा था। भारत का विचार चिन्तन एवं संस्कृतियाँ श्रेश्ठ है लेकिन जब तक हम सामाजिक स्तर पर संगठित नहीं होंगे तब तक संस्कृतियों का संरक्षण एवं उत्थान सम्भव नहीं है। सभी पुरातन संस्कृतियाँ एक दूसरे का सम्मान करें परन्तु रुपान्तरण के दबाव से मुक्त रहें। यही भारतीय परम्परा है। पारिवारिक संस्कार, प्रकृति के प्रति आदर भाव और उनके संरक्षण के माध्यम से हमे पूरे विष्व में सार्थक बने। मानवता के लिये सुखोन्मुखी विचार के कारण विष्व में भारतीय विचार की व्यापकता रही। आज संसार में 3500 वर्श पुरानी ऋग्वेद की प्रति उपलब्ध है। नीति, सिद्धान्त, कर्म आध्यात्म का आज जितना भी साहित्य उपलब्ध है, वह इन वर्शों के बाद का है। संसार भर के भाषा विज्ञानियों ने यह स्वीकार कर लिया है और दुनिया की एकमात्र वैज्ञानिक भाषा संस्कृत है। ब्रिटिष संग्राहल में ब्रिटेन में एक चौखट जैसा स्तम्भ है जिसमें नाग, स्वास्तिक और मयूर के चिन्ह है। एक अन्य पत्थर पर स्वास्तिक और अश्टदल कमल उत्कीर्ण है। स्वास्तिक और मयूर भारतीय चिन्ह है जो केवल वैदिक मन्दिरों में हो सकते हैं जो प्रमाण है कि ईसा पूर्व ब्रिटेन में वैदिक संस्कृति और मन्दिर हुआ करते थे। रोम और इटली के प्राचीन इतिहास की लगभग प्रत्येक पुस्तक में ‘वेस्टा’ मन्दिरों का जिक्र है जो विश्णु से सम्बन्धित हैं। इसे समझने के लिये ‘क्यूमंट’ की विष्व प्रसिद्ध पुस्तक रोमन सम्राटों की धारणाएँ (स्ष्म्जमतदपजम कमे म्उचमतंअतष्े त्वउंदे 1896) के पृश्ठ 442 महत्वपूर्ण है जिसमें लिखा है कि रोमन सम्राटों की धारणाएँ तथा उनके राजकुलों में होने वाली विधि भारतीय राकुलों जैसी ही थी। वेद कहते हैं ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ पूरा विष्व एक परिवार है। अफ्रीका की जुलू परम्पराएँ भी कहती हैं ‘उबुन्टू’ मानव एक है। दक्षिण अफ्रीका का आर्य समाज आन्दोलन इसी उबुन्टू भावना के साथ खड़ा होकर कार्य कर रहा है। संकल्पमंत्र कहता है कि ‘‘जम्बूद्वीपे भारत खण्डे आर्यावर्तेकदेषे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे बौद्धावताराय।’’ हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म एक वृक्ष की दो षाखाओं की तरह हैं। इसी तरह नाग पूजा की विधि भारतीय धर्म तन्त्र के साझा सूत्र हैं। नाग पूजा पूरे विष्व में होती है। ब्राह्मण और ब्राह्मण देवताओं का नाग से नाता बहुत बड़ा है। जल के साथ नाग का सम्बन्ध भारत की सीमाओं से भी परे जाता है। बाली जैसे द्वीपों सहित बासुकी या नाग वासुकी को जल देवता वरुण का सहयोगी माना जाता है।
आत्मवत सर्व भूतेशु
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम।।
    हमारे पास स्वाभाविक रूप से यह अनुभव और विचार है कि सभी भगवान उस एक ही दिव्य सत्य के अनेक रूप है जो पूरे जगत में अन्तर्भूत है। संस्कृति उन सब गुणों का समूह है जिन्हें मनुष्य शिक्षा तथा प्रत्यत्नों द्वारा प्राप्त करता है जिसके आधार पर मनुष्य का व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन विकसित होता है। भारतीय संस्कृति ने पूरे विश्व को इसी आधार पर विविधता और व्यापकता तथा समन्वय से प्रभावित किया है। भारतीय संस्कृति ज्ञान प्रधान संस्कृति है:-
ईशावाश्यमिदं सर्व यत किन्चजगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुंजीयाः मा गृधः कास्यस्वित घनम्।।
    दुनियाँ में जो भी जीवन है, सब ईश्वर से भरा हुआ है। कोई चीज ईष्वर से खाली नही हैं। यहाँ केवल उसी की सत्ता है। वही सबका मालिक है। यह समझ कर हमें सब उसी को समर्पण करना चाहिये, और जो कुछ उसके पास से मिले उसे प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिये। यहाँ मेरा कुछ भी नही, सब ईश्वर का है। यही विचार/ज्ञान इशोपनिषद देता है। धर्म, कर्म, आत्मा, पुर्नजन्म हिन्दुत्व, आश्रम, मोक्ष मातृपूजा भारतीय जीवन के मूल तत्व है। पूरा विश्व इस ज्ञान से पूर्व में प्रभावित होता रहा है। अनेक कष्टों, कुविचारों के परिणाम देख पुनः विश्व भारत की ओर देख रहा है।
- लेखक विश्व संवाद केन्द्र लखनऊ के सचिव एवं पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं।