Thursday 27 August 2020

 

माटी कहे किसान से


अशोक कुमार सिन्हा 

हम मिट्टी से ही बने है। खेत से पेट भरता है। माटी की हम पूजा करते है और माटी से जब तक जुड़े रहते है तब तक हमारी पहचान बनी रहती है। और अन्त में पंचतत्व में विलीन भी हम माटी में ही होते है। किसान का जीवन और उसका पूरा कुनबा इसी मिट्टी और खेत में पलता-बढ़ता है। भारत की पहचान यहां की मिट्टी और गांव ही हैं। मिट्टी की सेहत से ही हम स्वस्थ रह सकते हैं। पिछले कई दशकों से मिट्टी की सेहत में खराबी आई कि हमें व्याधियां घेरने लगी। हम जैसे-जैसे रासायनिक उर्वरकों का उपयोग बढ़ाते गये, मिट्टी की जान निकलती गई। यही मिट्टी जो हमारी जान और शान थी, आज बीमारियों की जड़ बन गई। रासायनिक खाद और कीटनाशकों ने कई घातक बीमारियों को जन्म दिया है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का दुष्प्रभाव पूरे परिस्थितिकी याने वातावरण और पर्यावरण पर पड़ता है। मित्र कीट भी मर जाते हैं अत: कीटों का जैविक नियन्त्रण नही हो पाता। कई उपयोगी पक्षी, जानवर, जीव-जन्तु मर जाते हैं। नदियों का जल भी प्रदूषित हो जाता है अत: जलचर भी मरने लगते हैं। शरीर पर इसका इतना घातक प्रभाव पड़ता है कि मां का दूध भी अब प्रदूषित हो रहा हैं। जरा सोचिये कि नवजात बालक के जीवन पर कितना घातक असर पड़ता होगा।

  भारत के अस्पतालों में कैंसर सहित अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त रोगियों की भरमार हो गई है। हम रासायनिक उर्वरकों का अन्धाधुन्ध प्रयोग बढ़ाते गये और यह नही समझ पाये कि हमारी भावी पीढ़ी पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। माना कि किसान की यह निर्भरता और मजबूरी दोनों है। परन्तु इससे स्वायल टेक्सचरही बदल गया यह मिटï्टी के मूल गुणों को समाप्त करता गया और कई प्रकार के विषैले तत्व हमारे शरीर को खोखला करते गये। अब हालत यह हो गई है कि हम छुटकारा तो चाहते हैं परन्तु कोई रास्ता नहीं दिखार्ई पड़ रहा है। जमीन में कई सूक्ष्म आवश्यक तत्वों जैसे मैगनीशियम, जिंक, आयरन की कमी हो गयी है। जमीन के मित्र बैक्टीरिया समाप्त हो गये हैं। पूरा भारत इस संकट से गुजर रहा है। यह क्षरण दिखाई नहीं देता परन्तु उसका प्रभाव जीवन और फसलों पर स्पष्ट दिखाई देता है। हमारा अधिकांश भोजन मिटï्टी से ही उत्पन्न होता है। यदि इसमें विष घुल गया है या गुणवत्ता में क्षरण हो गया है तो हमारा भविष्य क्या होगा?

जैविक खेती उपाय है

हमें धीरे-धीरे रासायनिक उवर्रकों पर अपनी निर्भरता कम करनी होगी। इस पहल से अनेकों लाभ मिलेगा। नये रोजगार के रास्ते निकलेंगे। पर्यावरण शुद्घ होगा। विकास के नये रास्ते खुलेंगे। अन्न का निर्यात बढ़ेगा क्योंकि आज विश्व के अनेकों देश यह कहकर हमारे देश से अन्न आयात नहीं करते क्योंकि हम कई प्रकार के प्रतिबन्धित और घातक रासायनों को प्रयोग खेती में कर रहे हैं। फलों का निर्यात भी प्रभावित होता है। उत्पादन बढ़ेगा तथा खेती जो आज घाटे का व्यवसाय बन गया है, धीरे-धीरे मुनाफे का जरिया बनेगा। पशुधन का उपयोग होने लगेगा तथा छोटे और मझोले किसानों की रूचि खेती में बढ़ेगी छोटे और मझोले किसानों के लिये यह वरदान है क्योंकि वे जैविक खेती करने में सक्षम है। जल-जंगल और जमीन तीनों संरक्षित होंगे। जैविक खेती युवाओं को रोजगार दे सकता है। गांव स्तर पर ही हम अपने उत्पाद का मूल्य जैविक उत्पादन के रूप में बढ़ा सकते हैं। तथा किसानों की आय वृद्घि कर सकते हैं। कम्पोष्ट खाद, केचुआ खाद, तथा अन्य आय नये रोजगार सृजित करेंगे साथ ही गांव व जंगल के स्वास्थ्य पर भी सार्थक असर पड़ेगा।

गांवों का समग्र विकास होगा। रासायनों का आयात घटेगा साथ ही जल श्रोतों की गुणवत्ता में वृद्घि होगी। हम सिक्किम जैसे राज्यों का उदाहरण ले सकते हैं जहां शत प्रतिशत जैविक खेती हो रही है। इसके कारण अस्पतालों में मरीजों की संख्या घटी है। निर्यात बढ़ा है तथा रोजगारों का नवसृजन हुआ है।

जैविक खेती की पहल में राज्यों तथा केन्द्र सरकार का योगदान आवश्यक है। कृषि विभागों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी।

सरकारें अपनी किसानोपयोगी योजनाओं तथा अनुदानों का रूख तेजी से छोटे तथा मध्यम किसानों को सुविधा देने के लिये कर सकती हैं। लोकल के लिये वोकल का नारा भी सार्थक होगा। फलों, पशु उत्पादों जैसे दूध-घी आदि की गुणवत्ता बढ़ेगी तो भोजन का स्वाद बढ़ेगा। कृषि प्रशिक्षणों का रूख इसी ओर मोडऩा होगा। सब्जियों में स्वाद बढ़ेगा तथा भरपूर उत्पादन होगा। आशा है कि सरकार तथा किसान भाई दोनों सचेत तथा प्रयत्नशील होंगे।

 

 

 

 

सनातन गुरुप्रकाश


अशोक कुमार सिन्हा 

त: स्मरणीय वेदव्यास जी वैदिक वांगमय के संकलनकर्ता तथा महाभारत ग्रंथ के रचयिता के रूप में विख्यात हैं। यही कारण है कि अति प्राचीनकाल से ही हिंदू समाज में उन्हें गुरूपद प्राप्त था।

भारतीय समाज में गुरू धारण करने की परम्परा अति प्राचीन है। वैदिक काल के आरम्भ से ही गुरू परम्परा विद्यमान रही हेै। हमारे पूर्वजों की मान्यता थी कि बिन गुरूज्ञान कहां से पाऊं अर्थात गुरू के अभाव में ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। जीवन के प्रति सही दृष्टि गुरू के मार्गदर्शन से ही मिलती है। वेदों में गुरू की महिमा का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है। देवताओं के गुरू बृहस्पति तथा असुरों के गुरू शुक्राचार्य का वर्णन मिलता है। भगवान श्रीराम के गुरू महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र प्रसिद्ध हैं। भगवान श्रीकृष्ण के गुरू संदीपनी थे। हिंदू समाज की मान्यता है कि गुरू कृपा से ही ईश्वर का साक्षात्कार संभव होता है।

राष्ट्र जीवन में अत्यंत प्रभावकारी भूमिका निर्वाहन करने के कारण ही गुरू को समाज में अत्यधिक श्रद्धा और सम्मान का स्थान प्राप्त हुआ था। इसी कारण गुरू को बह्मï, विष्णु और महेश कहा गया -

गुरूबह्मïा गुरूविष्णु: गुरूदेवो महेश्वर:।

गुरू साक्षात् परब्रहम तस्मै श्री गुरूवे नम:।। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक परम पूज्यनीय डा. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने भी हिंदू समाज की गुरू परम्परा को राष्ट्र जीवन मेंं पुन: प्रस्थापित करने का निर्णय लिया परंतु किसी व्यक्ति विशेष को संघ का गुरू स्वीकार न करते हुए परम पवित्र भगवा ध्वज को गुरू रूप  में मान्यता प्रदान की। डाक्टर जी की मान्यता थी कि कोई व्यक्ति किसी संगठन का गुरू नहीं हो सकता। व्यक्ति का जीवन आयु सीमा में बंधा हुआ है और व्यक्ति की सोच सदैव ही एक समान रहेगी यह भी आवश्यक नहीं है। व्यक्ति कभी पूर्ण नहीं है। अत: उन्होंने स्वयंसेवकों को व्यक्ति पूजा के स्थान पर तत्व की आराधना करने का मार्ग प्रदान किया। 

तत्व पूजा अपनाने वाला संघ प्रथम संगठन नहीं था इसके पूर्व श्री गुरू गोविंद सिंह जी महाराज ने सिख पंथ के लिए दशम गुरू के पश्चात पवित्र संतों की वाणी के संग्रह गुरूग्रंथ साहब की गुरूरूप में प्रतिष्ठा की और अब गुरूग्रंथ साहब ही सिख समुदाय का मार्गदर्शन करता चला आ रहा है।

भगवाध्वज :

भगवा ध्वज त्याग, तपस्या, ज्ञान, पवित्रता, तेज का संदेश देने वाला अग्नि, सूर्य और यज्ञ का प्रतीक है। यह हमारे धर्म, संस्कृति और इतिहास का स्मरण दिलाकर साहस, त्याग, स्फूर्ति और बलिदान की दिशा में मार्गदर्शन करने वाला है। अनेक अवसरों पर  फिर चाहे वह वैदिक काल रहा हो अथवा रामायण तथा महाभारत का समय हिंदू समाज ने पुरूषार्थ और पराक्रम इस ध्वज की छत्रछाया में ही प्रकट किया है। गुरूपूर्णिमा के दिन सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज का पूजन कर नवीन उत्साह के साथ कार्य में संलग्न हो जाते हैं।

गुरू कैसा होना चाहिये, गुरू किसे मानना चाहिये इत्यादि का वर्णन हमारे शास्त्रकारों ने किया है। इन सभी के द्वारा वर्णित गुरू के लिए आवश्यक सदगुण किसी एक व्यक्ति का पा सकना असंभव है। गुरूत्व की इस कसौटी पर कसकर ही संघ ने परम पवित्र भगवा ध्वज को जो हमारे हिंदू राष्ट्र के प्राचीन गौरव सभ्यता और इतिहास परम्परा का प्रतीक स्वरूप है, अपना गुरू माना है। 

गुरूस्थान पर किसी भी व्यक्ति को मान लेने पर पश्चाताप का प्रसंग आ सकता है। संघ में किसी प्रकार का अनर्थ न पैदा हो इसलिए डाक्टर जी ने शुरू से ही हमें व्यक्ति पूजा के पाठ नहीं सिखाये।

हमारे ध्वज में अपनी पूर्व परम्परा को प्रकट करने की जो शक्ति है उसको नष्ट करने के लिए न काल समर्थ है और न यमदंड। इस प्रकार के चिरंजीवी उदीयमान बाल सूर्य का तेज धारण करने वाले प्राची के मुख की अरूण ज्योति के समान इस पवित्र त्यागमय ध्वज को हमने अपना पवित्र गुरू माना है। इस पर हमें गर्व है। किसी व्यक्ति विशेष के कुछ गुणों का अवलोकन करने पर व्यक्ति के सम्बंध में मन में आदर की भावना निर्मित होती है किंतु कभी-कभी कुछ काल बीतने पर व्यक्ति के सम्बंध में वह सम्मान की भावना यथापूर्व नहीं रह पाती। कभी-कभी सव्यक्ति के बारे में मन में तिरस्कार की भावना पैदा होती है। अति प्राचीनकाल से अपने इस राष्ट्र में जो जीवनधारा सतत् चली आयी है उसमें यज्ञ को अत्यधिक महत्व दिया गया है। यज्ञ कर्म के पीछे जो तत्व है उसका अवलोकन करें। यज्ञ अग्निप्रधान है। अत: उस अग्नि का प्रतीक जो उसकी ज्वाला है उस ज्वाला के रंग के प्रतीक इस ध्वज को हम लोगों ने गुरूरूप में स्वीकर किया है। 

हमारे नित्य के जीवन में ध्वज का भली भांति दर्शन होता है। प्रात:काल भगवाध्वज अपने सात घोड़े वाले रथ पर लहराने वाला ध्वज लेकर आता है और सारा अंधेरा नष्ट करता है। वह ध्वज स्वच्छ आकाश में देखा जाये तो हल्के लाल रंग का दिखायी देता है। उसमें सुवर्ण रंग की छटा रहती है। वही है भगवान की प्रकाशवान ज्ञान की ध्वजा। वही ध्वजा हम लोगों ने अपनी राष्ट्रीय विषमताओं के आविष्कार अथवा प्रतीक के रूप में मानी है। भगवाध्वज का अपभ्रंष होकर भगवा ध्वज कहा जाता है। राष्ट्र का प्रत्यक्ष रूप प्रकट करने वाला  यज्ञ ज्वाला का प्रतीक, प्रकाशमान सूर्य का यह ध्वज जीवन में अंधेरे को दूर कर प्रकाश देने वाला है। इसे ही हमने अपना गुरू माना है।

अपना ध्वज ही अपने राष्ट्र का उपास्य देवता है। श्रद्धा के श्रेष्ठ केंद्र और सब शक्तियों को चुनौती देने वाले इस ध्वज को ही हम अपने हृदय में उच्चतम स्थान देंगे इसके सामने नतमस्तक होंगे और इसी को जीवन समर्पित करेंगे  यह धारणा लेकर हम लोगों ने इस पवित्र पताका को अपना गुरू माना है । 

गुरूदक्षिणा :

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जहां कहीं भी  हम रहें अंत:करण में तीव्र ज्वाला लेकर ऐसा आदर्श जीवन प्रकट करें कि प्रत्येक मुंह में हमारा ही नाम रहे। उस क्षेत्र में अपने जीवन का एक आदर्श उपस्थित करें।

केवल स्कंध, अक्षत, फूल चढ़ाकर पूजा करना पर्याप्त नहीं उसमें सर्वस्व समर्पण की भावना होनी चाहिए। पूजा करके धन रूप से दक्षिणा अर्पण करना उस समर्पण भावना का दृष्य स्वरूप है।  स्वार्थ के लिए उपयुक्त तथा संसार की सारी उपभोग्य वस्तुएं जिसके द्वारा प्राप्त होती है वह वस्तु है धन।  उसका समर्पण गुरू को किया जाये तो सर्वसमर्पण की भावना को स्पष्ट करने वाला वह एक प्रतीक होता है।  सहजता से पैसा ध्वज के सामने रखना समर्पण नहीं है। उसके पीछे तुच्छता की भावना नहीं होनी चाहिए तथा किसी के अनुरोध पर भी यह  कार्य नहीं होना चाहिये। स्वयं को धन के अभाव का कष्ट अनुभव होकर श्रद्धा से गुरू को धन देना चाहिये। संघ ने इसी पद्धति को अपनाया है।

गुरूदक्षिणा निश्चित धनराशि देने का आग्रह अथवा नियमित रूप से इकटï्ठा किये जाने वाला चंदा नहीं है। यह कार्य केवल स्वेच्छा का है। किन्ही भी परिस्थितियों में यह पूजन नहीं टालना चाहिये। अंत:करण की ओतप्रोत श्रद्धा से ध्वज को प्रणाम कर केवल एक पुष्प अर्पण किया तो भी काफी है। इस प्रकार के भाव से दिया हुआ एक पैसा भी धनी व्यक्ति द्वार्रा अर्पित किये गये सहस्रों रूपयों से अधिक मूल्य का है। संघ कार्य के लिये  प्रत्येक व्यक्ति की शक्ति और बुद्धि पूर्ण रूप से काम में आनी चाहिये। राष्ट्रकार्य के लिये  परमेश्वर की कृपा से जो कुछ प्राप्त हुआ है वह सब गुरूचरणों में अर्पण करना चाहिये। 

जिस प्रकार रोज खाना, पीना निद्रा आदि लेते हैंं उसी प्रकार पूजन भी नित्य होना चाहिये। संघ पिता की वह निष्ठा, वह लगन और वे सारे भाव हम अपने व्यक्तिगत जीवन में लाने के लिये  प्रयत्नशील रहें। तभी कह सकेंगें कि हमने वास्तविक गुरू पूजा की है। हमारा उदï्देश्य सफल होता है  तो होता है हमारा सबकुछ सफल। उसी में जीवन सर्वस्व की सफलता है अन्यथा सारी बातें सब व्यर्थ है। इसी निष्ठा से प्रेरित होकर हम अपने अंदर का ईश्वरी अंश प्रकट करें। कार्य में अग्रसर हों, यही आज परमावश्यक हैं।     

गुरूदक्षिणा

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जहां कहीं भी  हम रहें अंत:करण में तीव्र ज्वाला लेकर ऐसा आदर्श जीवन प्रकट करें कि प्रत्येक मुंह में हमारा ही नाम रहे। उस क्षेत्र में अपने जीवन का एक आदर्श उपस्थित करें। केवल गंध, अक्षत, फूल चढ़ाकर पूजा करना पर्याप्त नहीं उसमें सर्वस्व समर्पण की भावना होनी चाहिए। पूजा करके धन रूप से दक्षिणा अर्पण करना उस समर्पण भावना का दृष्य स्वरूप है।  स्वार्थ के लिए उपयुक्त तथा संसार की सारी उपभोग्य वस्तुएं जिसके द्वारा प्राप्त होती है वह वस्तु है धन।  उसका समर्पण गुरू को किया जाये तो सर्वसमर्पण की भावना को स्पष्ट करने वाला वह एक प्रतीक होता है।  सहजता से पैसा ध्वज के सामने रखना समर्पण नहीं है। उसके पीछे तुच्छता की भावना नहीं होनी चाहिए तथा किसी के अनुरोध पर भी यह  कार्य नहीं होना चाहिये। स्वयं को धन के अभाव का कष्ट अनुभव होकर श्रद्धा से गुरू को धन देना चाहिये। संघ ने इसी पद्धति को अपनाया है।

 

 

 

 

 

सामाजिक समरसता का महोत्सव रक्षाबन्धन


अशोक कुमार सिन्हा 

क्षाबन्धन का पर्व पुराण काल में वर्णित है। भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव दानव युद्ध में देवताओं को पराजित होता देख इन्द्र वृहस्पति के पास गये। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी ने एक रेशम का धागा अभिमंत्रित कर श्रवण पूर्णिमा के दिन अपनें पति के दाहिने हाथ पर बांधा।  इन्द्र युद्ध में विजयी हुए। द्वापर में शिशुपाल का वध करते समय श्री कृष्ण की तर्जनी उंगली घायल हो गई। जिसके उपरान्त द्रोपदी ने अपनी साड़ी फाडक़र उनकी उंगली पर बांध दी थी। उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी, श्री कृष्ण नें द्रोपदी को किसी भी कष्ट के समय सहायता का वचन दिया था। स्कन्ध पुराण, पद्म पुराण और श्रीमदभगवत् गीता में वामन अवतार का वर्णन मिलता है। जिसमें रक्षाबन्धन का वर्णन है। राक्षसराज दानवेन्द्र राजा बली ने 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र ने भगवान विष्णु से अनुनय विनय करने पर विष्णु ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण वेश में राजा बली से तीन पग भूमि भिक्षा में मांग ली। शुक्राचार्य के मना करनें पर भी राजा बली नें तीन पग भूमि दान दे दी। भगवान ने तीन पग में समस्त पृथ्वी, पाताल, आकाश नाप ली परन्तु तीन पग भूमि में तब भी कुछ कमी रह गयी। राजाबली ने तीसरा पग रखने के लिये अपना सर प्रस्तुत किया। फलत: भगवान विष्णु ने प्रसन्न हो वर मांगने को कहा। बली ने भगवान विष्णु से सदैव अपने सम्मुख रहने का वचन ले लिया। भगवान विष्णु को द्वारपाल बनना पड़ा। विष्णु के न लौटने पर लक्ष्मी जी ने नारद मुनि से सलाह मांग कर योजनानुसार श्रावण पूर्णिमा के ही दिन राजा बलि को रक्षासूत्र बांध कर उसे अपना भाई बना लिया तथा भगवान विष्णु को छुड़ा कर अपने साथ ले आयीं। तभी से रक्षा सूत्र बांधते समय निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करतें है।

येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबल:।

तेन त्वां अनुबध्नामि, रक्षे माचल माचल।।

इसका हिन्दी अर्थ है कि, जिस रक्षा से महाशक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था उसी से मैं तुम्हे बांधता हूं। हे रक्षे, (राखी) तुम अडिग रहना (तु अपने संकल्प से कभी विचलित न हो)

इसी प्रकार विष्णु पुराण के एक प्रसंग में यह भी कहा गया है की श्रावण पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु नें हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रम्हा के लिये फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतिक माना जाता है।

इतिहास में वर्णन है कि राजपूतिनियां युद्ध में जाते समय राजपूतों को उनके माथे पर कुमकुम लगा कर रेशमी धागा दाहिनें हाथ की कलाई पर रक्षासूत्र के रूप में बाध्ंाती थी। एक बार मेवाण की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाण पर हमले की पूर्व सूचना मिली तो उसने मुगल बादशाह हूंमायंॅु को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हूंमायॅुंं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाण की ओर से लड़ते हुए रानी कर्मावती  व उसके राज्य की रक्षा की। एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी नें हिन्दू शत्रु पुरूवास  को राखी बांध कर मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। युद्ध के समय पुरूवास ने बहन को दिये वचन का सम्मान करतें हुए सिकन्दर को

जीवनदान दिया। महाभारत के युद्ध के समय युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी  संकटों को कैसे पार कर सकता हंू तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना को राखी का त्यौहार मनानें की सलाह दी थी। द्रोपदी द्वारा भगवान कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यू को राखी बांधने का उल्लेख मिलता है।

वर्तमान युग में बहनें अपने भाई की रक्षार्थ उसकी दाहिनी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधती हैं यह उत्सव भाई बहन के निष्छल प्रेम से बंधा है। भाई भी बहन की रक्षा का वचन देता है। नेपाल में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय समुदाय रक्षाबन्धन गुरू और भगिनेय के हाथ से तथा बहन के हाथ से राखी बंधवाते हैं।

सामान्य जीवन में प्रधानमंत्री मोदी सीमा पर जाकर सैनिकों को राखी बांधते हैं। धर्म, देश, जाति बन्धन से परे जाकर जनता राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को राखी बांधती है। गुरू शिष्य को राखी बांधता है। आज भी धार्मिक अनुष्ठान में पुरोहित यजमान को रक्षा सूत्र बांधता है। विवाह के बाद अपनें भाई का घर छोड़ कर अपने पति घर गई बहन इस पर्व पर अपनें भाई के घर आकर भाई को राखी बांधनें आती हैै और रिश्तो का नवीनीकरण करती है।

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जनजागरण हेतु आपस में राखी बाधनें की परम्परा निभाई गई थी  बंगभंग आंदोलन में इसका राष्ट्रीय एकता हेतु सहारा लिया गया। उत्तरांचल में श्रावणी के दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म कर यज्ञोपवीत धारण करता है। इसी दिन अमरनाथ यात्रा हिमानी शिवलिंग के समक्ष पूर्ण होतीे है। महाराष्ट्र में नारियाल पूर्णिमा या श्रावणी इसी दिन मनाया जाता है। राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी बाधनें का रिवाज है। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और दक्षिण भारतीय ब्राहम्ण इस पर्व को अवनि अविन्तम कहते है। ब्रज में हरियाली तीज के अवसर पर भगवान झूले पर झूलतें रहते है।

सम्पूर्ण भारत ही नहीं विदेशों में भी इस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में वर्ण, जाति पंथ, प्रांत आदि भेदों से अलिप्त एकरस तथा स्नेहपूर्ण समाज के मानविन्दुओं की रक्षा करने के लिए त्यागपूर्ण, कटिबद्ध होने की जिम्मेदारी का स्मरण करने हेतु अपनें 6 उत्सवों में से एक उत्सव रक्षाबन्धन महोत्सव मनातें हैं।

यह पर्व भारतीय समाज कही समरसता तथा समाज की एक चैतन्यता शक्ति के अभार का प्रतीक है। पंथ, भाषा, भेदभाव, छुआछूत का भेदभाव मिटा कर समाज को एक सूत्र में बांधने का संकल्प आज लिया जाता है भारत में वैचारिक प्रवाह कभी भी ठहराव का शिकार नहीे हुआ। हिन्दू समाज की सबसे बड़ी समस्या अस्पृश्यता और जाति भेद रहा है। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गांधी तथा डॉ. केशव बली राम हेडगेवार जैसे समाज सुधारकों नें विकेन्द्रीकृत अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रमों को केन्द्रीकृत करने का प्रयास किया। महात्मा गांधी ने 1934 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्धा शीत शिविर  में  आश्यर्चयजनक रूप से ब्राह्मणों, महारों को सहज स्वाभाविक सरल तरीके से साथ साथ जीवनचर्या निभाते देखा था। उनके अंन्तर्मन को यह मूलभूत परिर्वतन छू गया था संघ का यह सामाजिक समता मात्र वैचारिक विलास नहीें था। 1969, विश्व हिन्दू परिषद का उडुपि में प्रान्तीय अधिवेशन में छुआछूत के विरूद्ध सभी साधु संत एक हुए। 1974 में बसंत व्याख्यानमाला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बाला साहब देवरस ने कहा कि, अगर अस्पृश्यता पाप नहीं है तो कुछ भी पाप नहीं है। अस्पृश्यता में सामंतवादी छाप, हीनता और क्रूरता तो है ही, साथ ही सवेदनहीनता तथा मानसिक जकडऩ भी है। भारतीय परिस्थिति मेंं सामाजिक समता का दृश्य बहुत ही जटिल एवं बहुभाषी तो है परन्तु सतही राजनेता अपनें दिखावटीपन और उपरी प्रचार के कारण इसे और जटिल बनातें जा रहें है। कानपुर का विकास दूबे काण्ड इस जटिलता का एक वीभत्स्व रूप है। आज कोई भी वर्ण या जाति अस्तित्व में नहीं है। हम सभी का एक ही वर्ण और एक ही डीएनए है और वह है हिन्दू। समरसता ही बन्धुत्व है और इसका क्रियात्मक स्वरूप है रक्षाबन्धन का महाउत्सव। परस्पर सम्पर्क द्वारा परिवर्तन आयेगा। मानवता का आधार समरसता है। समाज के प्रति प्रतिष्ठा का भाव जागृत करते हुए उपेक्षित एवं पिछडें़ बन्धुओं को समता एवं एकात्मता की अनुभूति कराना रक्षाबन्धन का मूल उद्देश्य है। हजारी प्रसाद द्विवेदी बलिया के अपने गृह जनपद में खेतों से होकर जा रहे थे जहां खेत में एक हरिजन अछूत मजदूरन को सांप नेे पैर में डंस लिया था। उन्होंने तत्काल अपनें जनेउ से उसका पैर बांधा, चीरा लगाया और मुंख से रक्त चूसकर निकाला अस्पताल ले गये। यह एकात्मभाव का दिन भी श्रावणी था। जनेउ रक्षाबन्धन बन गया था। सत्यवती और शान्तनु, मुनि व्यास, कृष्ण और देवकी, सत्यकाम और ऋषि गौतम, भीम और हिडिम्बा, अर्जुन और मणिपुर की राजकुमारी चित्रांगदा, ऋषि जरातकरू, और नांगवशी कन्या का विवाह, शकुन्तला, और भरतजन्म, बरबरीक, एकलव्य आदि उदाहरण इसी हिन्दू समाज के है। रक्षाबन्धन का पवित्र दिन सब भेदों से उपर उठ कर एक सूत्र में बंध कर एक राष्ट्र के रूप में खडें़ होने का सन्देश देता है। सम्पूर्ण विश्व एक कुटुम्ब है तो हिन्दू समाज भी एक कुटुम्ब है। आदि शंकराचार्य का भी काशी में एक म्लेच्छ को अपना गुरू बनानें का यही उद्देश्य था। रक्षाबन्धन समाज को सुदृढ़ करने तथा विषमता को समाप्त करनें का कार्य करता है।  राजनीति जटिलता को बढानें को कार्य करती है। समरसता समाजिक पहल से आयेगी। रक्षाबन्धन महोत्सव एक अवसर है। उठें, जागें और लक्ष्य की प्राप्ति तक चलते रहें। यही इस पर्व का मूल है।

 

जन-जन के राम


अशोक कुमार सिन्हा 

राम सम्पूर्ण विश्ïव के आदर्श हैं। राम जन-मन में बसे हैं। राम राष्ट्रपुरुष मर्यादा पुररुषोत्तम हैं। राम शबरी, अहिल्या, जटायू, केवटराज, पिछड़े, गिरीजन आदिवासी बनवासी, गिलहरी, बानर, भालू, उत्तर-दक्षिण, भारतखण्ड, जम्बूदीप, अमेरिका से आस्ट्रेलिया अफ्रीका, योरोप, रूस सभी के आदर्श हैं। सत्य पर धैर्यपूर्वक अडिग रहना, पूजा से समान व्यवहार तथा दीन दुखियों पर विशेष कृपा करने वाले दीन दयालु हैं। विश्व के कई भाषाओं में रामायण लिखी गई है। इण्डोनेशिया, कम्बोडिया, थाईलैण्ड, ईरान, चीन सब जगह राम प्रसंग, रामकथा प्रचलित है। भारत की समृद्ध, विरासत, संस्कृति, धर्म, कर्तव्य सब राममय है; राम के चरण एवं आचरण दोनों स्पर्श एवं आत्मसात करने के विषय हैं।

वाल्मीकि के राम, तुलसी के राम, कम्ब के राम, वशिष्ठï के राम, जानकी के राम, इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड के राष्ट्रपुरुष है राम। उन्होंने मानवता में आदर्श स्थापना हेतु कष्ट, विसंगति, झंझावात और विपत्तियां सही परन्तु इसे वे अवसर में परिवर्तित करते गये। धैर्यशील बनकर जन-जन को जोड़ा, संगठित किया, खड़ा किया और अन्याय-अत्याचार, नारी गरिमा के रक्षार्थ रावण जैसे पराक्रमी आततायी राक्षस को मारा और ध्वंसकर दिया। मोह नहीं पाला, स्वर्णमयी लंका को तत्काल विभीषण को सौंप कर वापस अयोध्या आ गये। वैराग्य को सौभाग्य में परिवर्तित कर दिया परन्तु पिता की आज्ञा, कैकेयी की इच्छा को माना, सीमित संसाधनों से अजेय पराक्रम दिखा कर अखिल ब्रह्माण्ड के नायक बन गये। अवतारी हो कर भी कोई चमत्कार नहीं दिखाया, कर्म करके दिखाया। क्षमाशील भी बने। संयम और अनुशासन के प्रतीक बनकर हर समस्या का मर्यादा में रहते हुये समाधान निकाला, सबको साथ लेकर चले। सभी दोषों, विकारों से मुक्त सम्पूर्ण जगत को अपनाने वाले राम अजातशत्रु थे। राम सामाजिक समरसता के कार्यशील प्रतीक थे जो जन-जन के हृदय में वास करते हैं। राम वह शक्ति सत्ता है जो सम्पूर्ण भारत राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोते हैं तथा एकता एवं सम्प्रभुता की प्रेरणा देते हैं। राम अपरिभाषित हैं। वह बोले नहीं जिये जा सकते हैं। वह अपराजित पौरुष के प्रतीक हैं। वह जीवन के साथ और जीवन के बाद भी साथ रहने वाले जाग्रत परमात्मा हैं। उनकी अनन्तता चिरस्थाई सहज-सबल हैं। वह अमीर-गरीब सबके समर्पण भाव से सहज प्राप्त हो जाते हैं। वह सबके और सबमें उपलब्ध हैं। जटायू को उनकी गोद मिली। राम का अर्थ है सुशासन, मर्यादा, नेतृत्व, शौर्य और लोकतन्त्र। राम उस सीमा तक लोकतन्त्रिक हैं कि एक अवसर पर कहते हैं कि यदि अनुमति हो तो कुछ कहूं और यदि मेरे कहने में कुछ अनुचित देखें तो मुझे टोक दें मैं सुधार कर लूंगा। वह अपने राज्य में रहने वाले प्रत्येक नागरिक की राय के आधार पर फैसला लेने में हिचकते नहीं। गिरिजनों और बनवासियों में आत्मविश्वास उत्पन्न कर सभी वंचित, शोषित वर्गों को आदर देकर उनके सहयोग से एक अजेय शक्ति खड़ा कर समुद्र लांघ जाते हैं। सत्यनिष्ठ, कर्मनिष्ठ और धर्मनिष्ठ आचरण से रावण को भी परास्त कर देते हैं। वह जन-जन के ऐसे प्रेरणा पुरुष हैं जिन्होंने सम्पूर्ण मानवता के लिये आदर्श खड़ा कर दिया। वह कर्तव्यपालन की सीख देकर पुरुषोत्तम हो गये। वह स्वराज्य के त्रिकाल सत्य बन गये। लोकमत का आदर कर राम राज्य का झण्डा गाड़ दिया।

अमेरिका सहित विश्व के कई देशों में राम जन्मभूमि पूजन एवं कार्यारम्भ के अवसर पर अपार हर्ष का वातावरण बन गया था। अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में बड़े-बड़े डिजिटल होर्डिंग दर्शाये गये। कलियुग में त्रेतायुग साकार दिखाई पडऩे लगा। भारत में तो लगभग हर प्रांत की अपनी भाषा में रामायण न केवल वाचन किया जाता है वरन रामलीला मंचन होता है। पूर्वोत्तर एशिया के कई देश तो उन्हें अपना राष्ट्रनायक मानते हैं और मंचन करते हैं। रामलला के जन्मस्थान पर भव्य मन्दिर बने यह जन-जन की आकांक्षा हैं और थी। मन्दिर राष्ट्र का गौरव है, यह भारत के स्वाभिमान, आत्मसम्मान और आध्यात्मिक विरासत का जयगान है। यह हमारी सांस्कृतिक चेतना को स्पंदित करता है। सबका लक्ष्य प्राणिमात्र का कल्याण हैं। एक समरस, समृद्ध, सक्षम भारत के निर्माण की आकांक्षा की पूर्ति इस राष्ट्रमन्दिर से होने वाली है। संविधान में वर्णित कल्याणकारी राज्य की संकल्पना यदि जमीन पर उतारना है तो हमें राम को आदर्श मानकर रामराज्य की ओर बढऩा होगा। राम किसी के लिये भगवान हैं तो किसी के लिए नबी है। किसी के लिये अवतार हैं तो किसी के लिये मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। किसी के विरासत हैं तो किसी के लिए संस्कृति है। किसी के लोकनायक हैं तो किसी के बच्चों के लिये संस्कार हैं। किसी के लिये ‘‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदति’’ का जयगान हैं। कबीर, रहीम, रसखान सबके राम हैं। यह हमारी सभ्यता, संस्कृति की अविरल धारा के प्रतीक हैं। आज भी जापान, कोरिया, चीन, तिब्बत, रुस, कम्बोडिया, लाओस, थाईलैण्ड, वियतनाम, म्यांमार, श्रीलंका, त्रिनिदाद, गुयाना, मारीशस, सुरीनाम में राम मानवता के महाप्राण हैं। चीन में दूसरी शताब्दी का धर्मकीर्ति द्वारा स्थापित अंगोखाट का दुनिया का विशालतम मन्दिर है। यह विश्वज्ञान की चैतन्यता का प्रतीक है। महात्मा बुद्ध, महावीर, गुरुनानक सबके हैं राम। राम जन-जन के श्वांस में बसे रचे हैं। कई उत्थान पतन हो गये परन्तु राम नाम और रामकथा की प्रगाढ़ता से लोक जनजीवन में जीवन मूल्यों के दृष्टांत के रूप में राम विराजमान है। हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता हमारी मानसिकता में समावेशित हैं। सौम्य राम, धनुर्धारी राम, भक्त राम, लक्ष्मण शक्ति और सीताहरण पर विलाप करते राम, अहिल्या का उद्धार करते राम, हमारे जीवन में रच बस गया है। जन्म से भरण तक उन्हीं के नाम का सहारा है हनुमान के हृदय में बसे राम भारत के लाखों रामपुर, रामनगर, रामगांव और करोड़ों राम कुमार हैं। रामनवमी, दशहरा, दीपावली यह सारे त्योहार उनके लिए मनाये जाते हैं। उनकी पूजा अर्चना असंख्य राम स्तुतियों से होती है। गुरुनानक देव, गुरु तेग बहादुर जी तथा गुरु हरिगोविन्द सिंह जी ने रामजन्मभूमि जाकर पूजा अर्चना की और जय श्रीराम का उदï्घोष किया। राम सम्पूर्ण के पर्याय हैं। श्री राम चरित्र और आचरण सार्वभौमिक एवं सर्वस्पर्शी है। राम ने हर उस गुणधर्म को अत्मसात किया जो मानवीय एवं पिरवासी सम्बन्धों, सामाजिक व्यवस्था, धार्मिक नैतिक आचरण और संस्कृति की उत्कृष्टता की ओर ले जाय।

श्री राम के चरित्र ने समतामूलक समाज के प्रति समाज को संवेदनशील बनाया। सम्पूर्ण विश्व उनसे धर्म के प्रति एक विशेष आग्रह है जिसके अनुपालन से धार्मिक और साम्प्रदायिक सौहार्द को नई दिशा दी जा सकती है। आज मानवीय मूल्यों के क्षरणकाल में राम की सहर्ष त्याग वाली प्रवृत्ति यही दर्शाती है कि दीर्घकालीन लोकल्याण के लिये सुशासन और सुराज के दलबदल की राजनीति, फिल्म जगत के चरित्रहीन आचरण का चित्रण और स्वार्थ साधना की आंधी में रामचरित्र शुचिता का आधार बन सकता है। राम का जीवन अनवरत रुप से सत्कर्म के प्रयोग की विधि के रूप में देखा जा सकता है। राम हम सभी के सद्गुणों के परिष्कार की पटकथा के रचनाकार हैं। वह भारतीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अस्मिता का वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाले प्रयोगधर्मी मानव हैं।

मानव को देवत्व से जोडऩे का अप्रतिम माध्यम हैं राम। उनके जीवन लीला में स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व के मूल्य प्रवाहमान हैं। वास्तव में राम जन-जन के हैं, हम सबके हैं और हम सबमें हैं।

 

 

 

 

 

 

 

राष्ट्र के पुनरुत्थान का दिन


अशोक कुमार सिन्हा 

५ अगस्त 2020 भारत राष्ट्र के पुनरुत्थान का दिन बन गया है। इसी दिन वर्ष 2019 में जम्मू एवं काश्मीर से धारा 370 समाप्त हुआ और इसी दिन वर्ष 2020 में प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान पर भारत के प्रधानमंत्री द्वारा भूमिपूजन कर मन्दिर निर्माण का शुभारम्भ किया गया। यह मात्र मन्दिर का शुभारम्भ नही राष्ट्रमन्दिर, राष्ट्रीय मूल्य, विरासत के प्रतीक और सनातन परम्परा का प्रमाण भूमि पूजन एवं कार्यारम्भ था। 5वीं सदी के अविरल संघर्षमय, जनतान्त्रिक धैर्य के बाद एक अनुपम संयोग एवं युगान्तरकारी घटना है। भारतीय संस्कृति, जीवनमूल्य एवं सनातन परम्परा के आदर्शतम सर्वोत्तम, पुरुषोत्तम स्वरुप भगवान श्रीराम की बालरुप मूर्ति जिसको 25 मार्च को टेन्ट से अस्थायी मन्दिर में स्थानान्तरण किया गया था, के लिये विश्ïव के भव्यतम् मन्दिर में ले जाने का कार्यारम्भ हुआ। प्रभु राम राष्ट्रपुरुष है तथा भारतीय संस्कृति के लिये यह संक्रान्ति का दिन था। अयोध्या का सम्बन्ध सभी भारतीय पन्थों एवं सम्प्रदायों से है। यही कारण है कि 36 मत, पन्थ के कुल १35 प्रतिनिधि कार्यक्रम में उपस्थित थे। यह भारत के इतिहास में एक अनोखा और पहला एकत्रीकरण था। यह भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक एकता एक अनूठी एकता का प्रतीक था। अयोध्या से जैनपन्थ के 06 तीर्थंकरों का जन्म से सम्बन्ध रहा है। इसी प्रकार सिख पन्थ के गुरुओं ने सेना लेकर रामजन्मभूमि की रक्षा हेतु युद्ध किया है। कोरिया की राजकुमारी का मायका अयोध्या ही है। बौद्ध धर्म का केन्द्र भी अयोध्या रहा है। अयोध्या का नेपाली राम मन्दिर नेपाल की रानी द्वारा भव्यरुप में बनवाया गया है, जहां उन्होने वर्षों पूजा अर्चना की है। राम सबके हैं और सबमें राम है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री मा. नरेन्द्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूज्य मोहनराव भागवत का ऐतिहासिक सम्बोधन राष्ट्र के दिल को छू गया। इस अवसर पर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तथा श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास के अध्यक्ष महन्त नृत्य गोपालदास ने भी अपने जो उदï्गार व्यक्त किये, उससे स्पष्ट होता है कि अयोध्या का कायाकल्प होगा। इस अवसर पर देशभर से समस्त नदियों का जल, पवित्र भूमियों की मिट्टी एकत्र कर नींव में डाला गया। प्रधानमंत्री ने पारिजात वृक्ष का पौधा रोपित किया। प्रधानमंत्री ने प्रारम्भ में ही अयोध्या के संकटमोचक वीर हनुमान का दर्शन कर कार्य पूरा करने की अनुमति आशीर्वाद के रुप में लिया। भारत के किसी प्रधानमंत्री की यह प्रथम यात्रा थी जिसमें श्री नरेन्द्र मोदी ने रामलला के समक्ष साष्टांग दण्डवत् कर दर्शन किया तथा गर्भगृह के स्थान की मिट्टी माथे से लगाई। सचमुच यह सब अकल्पनीय दृश्य थे। भारत धर्म के लिये राम एक वैश्ïिवक अवधारणा हैं। आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि अब सांस्कृतिक भारतीय राष्ट्र की भावना प्रबल होगी तथा अयोध्या तीर्थ का समग्र चतुर्दिक विकास सम्भव होगा।