Saturday 17 October 2020

 भारतीय मत पंथ सम्प्रदाय के सम्बन्ध में संघ का दृष्टिकोण

अशोक कुमार सिन्हा, विश्व संवाद केन्द्र प्रमुख अवध, लखनऊ। 

विश्व में लगभग एक सौ से ऊपर ईसाई, 56 देश इस्लामिक और सात देश बौद्ध हैं परन्तु इतने देशों में कहीं भी पंथ निरपेक्ष राष्ट्र नहीं है। भारत में 80 प्रतिशत जनसंख्या बहुसंख्यक हिन्दुओं की है। फिर भी भारत एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र नहीं है। इसका कारण भारत में हिन्दू समाज का बहुसंख्यक होना तथा उनका मानवता में विश्वास होना है। भारतीय धरती पर जो भी मत पंथ सम्प्रदाय हैं उनमें एक अभूतपूर्व एकता का मूल भाव विद्यमान है। मत का अर्थ है विचार या दर्शन। पंथ से अभिप्राय यह है कि विचार या दर्शन सनातन काल से चले आ रहे प्राचीन विचार ही मूल है। परन्तु पद्धति विलक्षण और आचार नूतन है। पंथ की स्थापना हेतु नये नियम या उप नियम बनाया जाता है। पंथ से जुड़ी रीति रिवाज, परम्परा, पूजा पद्धति और दर्शन का समूह ही उसे नवीनता प्रदान करता है। परन्तु उनका मूल दर्शन भारत में चली आ रही सनातन प्रवाह से ही जुड़ा रहा है। जहां सम्प्रदाय का अर्थ है वहां यह अभिप्राय लिया जाता है कि भारत की जो प्राचीन जीवन पद्धति एवं सनातन दर्शन विकसित हुआ है उसकी अलग-अलग परम्परा पर विचारधारा मानने वाले वर्गों को सम्प्रदाय कहते हैं। जहां गुरु-शिष्य परम्परा चलती है। भारत में कुल नौ दर्शन हैं, जिनमें छह वैदिक दर्शन हैं। जैसे न्याय, वैशेषिक सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और वेदान्त। तीन अवैदिक दर्शन हैं जो चार्वाक, बौद्ध और जैन कहे जाते हैं। महानुभाव हिन्दू धार्मिक सम्प्रदाय है। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, सिक्ख पंथ, जैन व बौद्ध पंथ यह सब एक ही मूल तत्व को लेकर चलते हैं। 

’’आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः’’ अर्थ है कि प्रत्येक दिशा से शुभ एवं सुन्दर विचार हमें प्राप्त हों। यह भारतीय प्राचीन विचार है। वेदों में मानवीय पक्ष को एक और श्लोक प्रकट करता है। 

‘‘मित्र स्याह चक्षुवा सर्वाणि भूतानि समीक्षे 

मित्रास्थ चक्षुषा समीक्षा महे।।’’ (यर्जु 0३६/१८)

‘‘हे मनुष्य क्या सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूं। हम सब परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें।’’

   यह भारत की सनातन विचार दर्शन है जिसे हम धर्म मानते हैं। ‘एकम सत विप्रं बहुधा बदति’ अर्थात सत्य एक ही है जिसे विद्वान विभिन्न नामों से पुकारते हैं। अन्य मत पंथों के साथ तालमेल कर सकने वाला एकमात्र विचार जो भारत का विचार है, वह हिन्दुत्व का विचार है। तालमेल का आधार मूल में एकत्व है। प्रकार विविध हैं और विविध होना भेद नहीं है। धर्म सनातन है। मत, पंथ, सम्प्रदाय मात्र विविध रूप है। लक्ष्य सभी का एक है। पथ विभिन्न है। 

संघ का अपना कोई दृष्टिकोण या विचार अलग नहीं है। जो चिर पुरातन, नित नूतन सनातन परम्परा है, वही भारतीयत्व है, वही हिन्दुत्व है, वही राष्ट्रीयत्व है। वही संघ का दृष्टिकोण है। सम्प्रदाय का अर्थ होता है सम्यक प्रकार से देने की व्यवस्था करना। हर मनुष्य की प्रकृति भिन्न रहती है। कोई विचार प्रधान है तो कोई भाव प्रधान तो किसी का चित्त चंचल होता है। इसी आधार पर साधना पद्घतियां विकसित हुई हैं। ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग और कर्मयोग। निराकार और साकार की उपासना पद्धतियाँ विकसित हुईं। विभिन्न अनुभूतियां हुईं। विभिन्न संतों एवं महापुरुषों की वाणियां वेद, वेदागों, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, जैनागमों, त्रिपिटकों, रामायण, महाभारत, गीता एवं विविध दर्शनों में निहित सत्यलान को अपनी-अपनी शैली में संतों, योगियों और गुरुओं ने व्यक्त किया है। सम्प्रदाय, विवाद तथा उनके एकीकरण के प्रयास होते रहे हैं। भारत में शास्त्रार्थ की परम्परा रही है। साक्षात्कारी संतों ने एकत्व देखा परन्तु अनुयायी वह नहीं देख सके। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अध्ययन और चिन्तन यही है कि विविध स्वरूपों में प्रबल एकत्व की भावना है। 

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वापनिषदस्तथा। 

रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च।। 

जैनागमस्त्रिपिटका गुरुग्रन्थ सतां गिरः। 

एष ज्ञान निधि श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा।। 

संघ की प्रातः स्मरण के यह दो श्लोक हमारी संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार यात्रा की अभिव्यक्ति करते हैं। अन्तिम सत्य की खोज में विविधिता के पीछे छिपी हुई एकता को देखने का प्रयत्न संघ कराता है। विकास प्रक्रिया के विविध दर्शन विकसित हुए। सम्पूर्ण सृष्टि के मूल में एक तत्व है। उपर्युक्त एकत्व की अनुभूति का व्यवहारिक जीवन में उपयोग करने की दृष्टि से चिन्तन संघ करता है। एक ही तत्व सर्वत्र है। इसे धर्म माना गया है। सनातन धर्म के लक्षण बताये गये - घृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धीः विद्या, सत्य तथा अक्रोध। इन मूलभूत नियमों के प्रकाश में व्यक्ति परिवार समाज तथा सृष्टि के परस्पर सम्बन्धों में समन्वय हेतु जो नियम बने हैं और जिन्हें कर्तव्य, धर्म, कुल धर्म, आचार धर्म, युगधर्म, राष्ट्रधर्म इत्यादि नाम दिये गये। संघ मानता है कि रूप अनेक ईश्वर एक, पथ अनेक गंतव्य एक है। भाषा अनेक भाव एक है, व्यवस्था अनेक धारणा एक है। सनातन धर्म के विराट वृक्ष पर अनेक मत, पंथ, सम्प्रदायों के पुष्प, फल लगते रहे हैं। सनातन धर्म के हिमांचल पर आरोहण करने के लिए अनेक साधना पद्धतियों के प्रशस्त पथ हैं। 

संघ का दृष्टिकोण है कि भारत भूमि पर जन्मे, विकसित हुये सभी मत पंथ सम्प्रदाय मूलतत्व की दृष्टि से एक हैं। सभी भारतीय हैं। हिन्दुत्व विश्व के सभी मत पंथ सम्प्रदायों में एकत्व की भावना देखता है। दूसरे क्या कहते हैं - यह उनका दृष्टिकोण हो सकता है। संघ का स्वयंसेवक भारतीय दृष्टिकोण को सर्वोत्तम मान कर कार्यव्यवहार करता है। भारत को विश्वगुरु का स्थान प्राप्त हो। सब प्रकार का वैभव, विज्ञान, बुद्धि हमें प्राप्त हो जो मानव कल्याण के हित काम आये, यही संघ की विचारधारा है। यही भारतीयत्व या हिन्दुत्व की विचारधारा है। कहीं कोई भेद न हो, परस्पर समन्वय हो यह कामना तभी पूर्ण होगी जब हम सशक्त होंगे। संगठित होंगे। हम एक राष्ट्र हैं। सनातन काल से चलते आये पुरातन राष्ट्र हैं। हम हिन्दू राष्ट्र हैं। सत्य पर चलते जाना है। अन्याय, अत्याचार नहीं करना है। अहंकार नहीं करना है। हम सभी अपनी पूजापद्धतियों को लेकर सुख पूर्वक चल सकते हैं। दूसरों की पूजा पद्धति को अपनी पूजापद्धति की तरह सत्य मान कर स्वीकार कर आपस में मेलमिलाप से रह सकते हैं। यही संघ अपने स्वयंसेवकों के अन्दर शिक्षा ग्रहण करने को प्रेषित करता है और पूरा भारत इस एकत्व को समझे और आचरण करें। यही संघ का दृष्टिकोण है। एकात्मकता-आत्मीयता यही संदेश है। 


Saturday 10 October 2020

 किसान हित में कृषि सुधार के नये कानून 

अशोक सिन्हा
कृषि क्षेत्र से जुड़े तीन कानून गत माह संसद में बने हैं जो चर्चा, आन्दोलन, भ्रम, जिज्ञासा और आशंका के कारण बने। इन तीन कानूनों के नाम हैं 1- कृषि उत्पादन, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) 2020, 2- मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा 2020, ३. आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन) 2020 । अब यह तीनों विधेयक संसद में पारित हो कर राष्टï्रपति के हस्ताक्षर से कानून बन चुके हैं। 
पहले कानून कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) के अनुसार किसान अपनी उपज देश में कहीं भी, किसी भी व्यक्ति या संस्था को बेचने की अनुमति देता है। इसके अनुसार एक देश-एक बाजार की अवधारण लागू होती है। किसान को उसकी उपज का सर्वाधिक मूल्य जहां मिलेगा, वह अपना उत्पाद गांव से या व्यापारिक प्लेटफार्म पर देश में कहीं भी बेच सकेगा। वह अपनी उपज भण्डारण भी कर सकेगा और उसे जब उचित मूल्य मिलेगा तब बेचेगा। वह अपने निकट के मण्डी में भी पूर्व की भांति मण्डी शुल्क देकर अपनी उपज बेचता रहेगा। 
दूसरा कानून है मूल्य आश्वासन पर किसान (बन्दोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा करार। इस कानून के अनुसार फसल की बुवाई के पहले किसान को अपनी फसल को तय मानकों और तय कीमत के अनुसार बेचने का अनुबन्ध करने की सुविधा प्रदान करता है। इससे किसान का जोखिम कम होगा, क्योंकि जोखिम करार करने वाली संस्था उठाएगी और उवर्रक व नवीन उपकरण आदि वही संस्था उपलब्ध कराएगी। किसान को खरीददार खोजने के लिए कहीं आना-जाना नहीं पड़ेगा। किसान समझौता पत्र पर जो मूल्य चाहता है बुवाई के समय ही उसी मूल्य पर करार करने को स्वतन्त्र होगा। कृषि आधारित उद्योगों, थोक या बड़े खुदरा विक्रेताओं, निर्यातकों आदि के साथ किसान अनुबन्धित कृषि कर सकते हैं। उन्हें ऋण, बीज, तकनीकी सहायता, बीमा सुविधा आदि उपलब्ध करने वाली संस्था ही देगा। यह किसानों को मालिकाना हक बनाये रखने और उसके अधिकारों को पूर्णत: सुरक्षित रखने का कानून है। इस कानून में जमीन गिरवी रखना, लीज पर देना 
प्रतिबन्धित है। 

तीसरा कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन विषयक है। इसके अनुसार आवश्यक वस्तु की श्रेणी बहुत पहले बनी थी। आज की और भविष्य को देखते हुए किसान हित में इसमें संशोधन करने की आवश्यकता थी जो अब पूरी हो गयी है। गेहूं, चावल, दाल, तिलहन, आलू, प्याज इस अधिनियम से मुक्त होंगे तथा इनकी भण्डार सीमा समाप्त होने से शीतगृहों से किसानों को लाभ होगा। सरकारी बन्धन से मुक्त होने से फल, सब्जी खराब नहीं होंगे। केवल युद्घ और भीषण सूखा के समय यह लागू होंगे। बम्पर फसल होने पर किसानों को हानि नहीं होगी। 
प्रश्न यह उठता है कि किसानों को क्या-क्या लाभ और सुविधा प्राप्त होगी। विशेषकर छोटे किसानों का जीवन कैसे चलेगा। उसकी स्थिति में क्या-क्या सुधार आएंगे। पहले किसान मण्डी के आढ़तियों की दया पर आश्रित था। साधन और पैसा खर्च कर जब किसान मण्डी में माल पहुंचाता था तब बहुत देर प्रतीक्षा बाद आढ़तिया उसके माल का दाम मनमाने ढंग से लगाता था। छोटा किसान मनमाफिक दाम न मिलने पर भी ट्रैक्टर या बैलगाड़ी वापस घर ले जाने की गरज से मनमाने दर पर अपनी उपज आढ़तिया को सौंप देता था। मण्डी व्यवस्था में आढ़तियों की चौकड़ी बन गई थी। भ्रष्टïाचार चरम पर था। चूंकि इस चौकड़ी को राजनैतिक समर्थन भी मिलता था अत: किसान इस नियम से लाचार था कि उसे केवल मण्डी में ही माल बेचना है। छोटे किसान का घर से ही उपज खरीदने की व्यवस्था नहीं हो पाती थी। समर्थन मूल्य मिलना मुश्किल हो रहा था। लघु एवं सीमान्त किसान आढ़तियों के चंगुल में फंसता जा रहा था। यद्यपि मण्डी परिषद की स्थापना 1973 में किसान हित को देखते हुए ही की गयी थी। परन्तु काफी समय से इन पर राजनैतिक संरक्षण प्राप्त आढ़तियों ने मण्डी व्यवस्था में अपनी पैठ बना ली थी। आवश्यकता अनुभव की जा रही थी कि नये जमाने में मण्डी अपनी प्रासंगिकता खो रही है। यहां आढ़तियों और अधिकारियों की मिलीभगत से किसानों का शोषण हो रहा है। अकेले उत्तर प्रदेश में दो करोड़ से अधिक किसान लघु एवं सीमान्त श्रेणी में आते हैं। खेती में समय के साथ बदलाव आवश्यक है। व्यापारिक नजरिया और माहौल बनाना जरूरी है। ऑनलाइन क्रय-विक्रय से किसान को मण्डियों से मुक्ति मिलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। 
कई विपक्षी दलों का प्रगाढ़ संरक्षण मण्डी आढ़तियों को नि:सन्देह है जिन्होंने नये कानून का विरोध करते हुए किसानों में यह भ्रम फैलाया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य समाप्त हो जाएगा। किसान भी आशंकित हो गया था कि नये कानूनों के जरिये कहीं एमएसपी की व्यवस्था खत्म होने पर निजी कम्पनियों और कारोबारियों का एकाधिकार किसानों की उपज की कीमतों को प्रभावित न करने लगे। परन्तु सरकार ने संसद में और प्रधानमंत्री ने स्वयं वक्तव्य देकर किसानों को आश्वस्त किया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा। किसान अब अपनी उपज चाहे मण्डी में या जहां कहीं भी अधिक मूल्य मिले वह किसी व्यक्ति या संस्था को बेचने को स्वतंत्र होगा। भारत में कहीं भी खरीद-बिक्री की स्वतन्त्रता रहेगी। किसान बाधा मुक्त रहेगा। नये कानून का न्यूनतम समर्थन मूल्य से कोई सम्बन्ध नहीं, मण्डी व्यवस्था पहले की तरह जारी रहेगी। किसानों को उपज बेचने का और विकल्प दिया जा रहा है। अब किसान बड़ी खाद्य उत्पादन कम्पनियों के साथ स्वयं या अपना सम्मिलित संगठन बनाकर पार्टनर की तरह जुड़ कर समझौते के आधार पर अधिक मुनाफा कमा सकता है। करार व्यवस्था से किसानों को निर्धारित मूल्य मिलने की गारण्टी रहेगी। किसान किसी भी समय करार से निकलने को स्वतन्त्र रहेगा वह भी बिना दण्ड शुल्क के। कोई किसान की जमीन बिक्री, लीज या गिरवी रखना गैरकानूनी होगा। करार उपज का किया जाएगा न कि जमीन का। उसे तकनीकी, उपकरण और उर्वरक की सुविधा करार करने वाली कम्पनी उपलब्ध कराएगा और वही जोखिम उठाएगी। किसानों को गारन्टीड मुनाफा होगा। किसान इलेक्ट्रानिक व्यापार के जरिये कहीं भी माल बेच सकेंगे। नेट पर राष्टï्रीय और अन्तर्राष्टï्रीय उपज मूल्य प्रतिदिन प्रदर्शित होगा। किसानों को जहां ज्यादा पैसा मिलेगा वहां माल बेचेगा। राज्य सरकार का मण्डी एक्ट केवल मण्डी तक सीमित रहेगा। केन्द्र सरकार ने कानून बनाने के पूर्व किसानों से काफी चर्चा की। चार करोड़ से अधिक सुझाव आये। कार्य योजना बनाते समय चर्चा की गयी। नये कानून बनने से जो प्रतियोगी भावना बनेगी उसका लाभ किसानों को मिलेगा। अब किसानों और उपज ग्राहक के बीच बिचौलिया समाप्त हो जाएगा। कृषि में निवेश बढ़ेगा, प्रतियोगी भावना जागृत होगी, बुवाईेे समय भेड़चाल बन्द होगा। एपीएमसी एक्ट अर्थात कृषि उत्पादन/विपणन कम्पनी एक्ट के अन्तर्गत किसान अपने उत्पादन को दुनिया में कहीं भी बेच सकता है। पहले केवल मण्डी व्यवस्था किसान की मजबूरी थी। अनुबन्ध कृषि व्यवस्था से अधिकतम पांच वर्ष तक किसान का उत्पाद कम्पनियां खरीद सकती हैं। उसके बाद किसान की मर्जी वह मुनाफा देखेगा तो आगे बढ़ेगा। यह उसकी मर्जी पर निर्भर करेगा। बोनस प्रीमियम का प्राविधान रहेगा। किसान पर फसल खराब होने का जोखिम नहीं रहेगा। मार्केटिंग लागत कम होगी। एग्रो बिजनेस करने वाले किसान अधिक मुनाफा कमायेंगे। अनुबन्ध के आधार पर पैसा मिलेगा। विवाद होने पर किसान के लिए न्यायालय अधिकरण होगा। व्यापारी खरीदेगा तो गांवों में स्टोर बनायेगा। कम्पनियां माल खरीदने पर तुरन्त भुगतान करेगी। ई कामर्स में तीन दिनों के अन्दर किसानों के खाते में भुगतान आना अनिवार्य होगा। 
देखा जाय तो किसानों की मांग थी कि कृषि सुधार हेतु पूर्व में बनी स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू की जाय। मोदी सरकार ने स्वामीनाथन रिपोर्ट को हूबहू लागू कर दिया है। भारत का किसान 365 दिन का कठोर श्रम कर देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 18 प्रतिशत से अधिक का योगदान दे पाता है, फसल निर्यात मात्र 2.5 प्रतिशत हो रहा है। अब नये कानून में वृद्घि होगी। देखा जाय तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय एक मार्केटिंग बोर्ड बना कर भारतीय किसानों को बोर्ड के माध्यम से उपज बेचना अनिवार्य बना दिया था। मार्केटिंग बोर्ड का ही नया अवतार मण्डी समितियां हैं। इन मण्डी समितियों पर राजनैतिक दलों ने कब्जा कर लिया था। पंजाब में अकाली दल, महाराष्टï्र में शरद पवार की एनसीपी का कब्जा है। जय जवान-जय किसान का नारा केवल किताबों और भाषणों तक सीमित रहा। कांग्रेस ने दो बैलों की जोड़ी तो कम्युनिष्टïों ने अपनी पार्टी का चुनाव चिन्ह बनाया। परन्तु यह धोखा था। किसान समक्ष नहीं बना। किसान का मुद्दा खबरों के साथ फिल्मों से भी गायब हो गया। पहले फिल्मों में मेरे देश की धरती सोना उगले (फिल्म पूरब पश्चिम) गीत होते थे। फिल्मों में साहूकार आढ़तिया खलनायक होते थे। धीरे-धीरे किसान मुद्दा ही नहीं रहा इस देश में। 
मोदी सरकार आगामी एक वर्ष में एक लाख करोड़ रुपया गांवों में वेयर हाउस और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च करने जा रही है। कृषि सुधार में नया कानून मील का पत्थर सिद्घ होगा। यह माना जा रहा है कि जैसे 1991 में उद्योग व्यापार जगत को बन्धन मुक्त किया गया था उसी प्रकार कृषि सुधारों के माध्यम से खेती को अप्रासंगिक कानूनों की जकडऩ से बाहर निकाला जा रहा है। न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होने की अफवाह केवल किसानों को बरगला कर आन्दोलन खड़ा करना और अपनी राजनीति पुनर्जीवित करना भर है। कृषि उपज बेचने की पुरानी व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा रहा है बल्कि उसके समानान्तर एक नई व्यवस्था बनायी जा रही है। अब किसान के पास दो विकल्प होंगे। पहले विकल्पहीनता की स्थिति थी और इसी कारण किसान कों अपनी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पा रहा था। खेती पर एकांगी नजरिये से किसान का भला नहीं होगा। कृषि मंत्री ने संसद में स्पष्टï कर दिया है कि नये कानून से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह आगे भी मिलता रहेगा। एमएसपी मात्र सरकार का एक प्रशासनिक आदेश है। यह कानून का हिस्सा नहीं है। दुनिया में इस विषय पर कोई कानून नहीं बना है। किसान गुमराह होने से बचें। 
इस बीच प्रधानमंत्री ने आगामी वर्ष के लिए रबी फसलों में गेहूं में 50 रुपए, जौ में 75 रुपए, चना में 225 रुपए, मसूर में 300 रुपए, सरसों में 225 तथा कुसुम में 112 रुपए की समर्थन मूल्य में वृद्घि की घोषणा कर यह सिद्घ कर दिया है कि सरकार किसानों के साथ है। आशा की जाती है कि गन्ना के मूल्य में भी सरकार अवश्य वृद्घि करेगी। प्रधानमंत्री ने कृषि सुधार को 21वीं सदी की जरुरत बताते हुए छोटे और मझोले किसानों के हित रक्षा का वचन दिया है जो स्वागत योग्य है। उन्होंने विपक्षी आन्दोलन को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि विपक्ष किसानों को लूटने वालों के साथ खड़ा है। प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कहा है कि नये कानून से कृषि क्षेत्र में व्यापक बदलाव के साथ किसानों की आय में कई गुना वृद्घि होगी। कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन आएंगे। निजी क्षेत्र के कृषि में निवेश होने से तेज विकास होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेगें, आर्थिक स्थिति और अधिक मजबूत होगी। 
-लेखक विश्व संवाद केन्द्र ट्रस्ट के सचिव एवं उप्र गन्ना विकास विभाग के पूर्व वरिष्ठï अधिकारी हैं। 

 ध्येय साधना के कर्मयोगी अशोक जी सिंहल 

अशोक सिन्हा
हिन्दू जागरण के सूत्रधार, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, संघ के प्रखर प्रचारक, अध्यात्म पुरुष अशोक जी सिंहल का जन्म 27 सितम्बर 1926 को आगरा में माता श्रीमती विद्यावती और पिता श्री महावीर सिंहल जी के धार्मिक परिवार में हुआ था। इनके पिता बिजौली (अलीगढ़) के मूल निवासी थे। डिप्टी कलेक्टर के पद पर आसीन थे। धनधान्य से भरपूर परिवार विशाल उद्योग के संचालन के साथ धार्मिक वातावरण से ओतप्रोत था। आर्य समाज के नारी उत्थान कार्यक्रमों से प्रेरित होकर इनकी माता ने कक्षा 10 तक की शिक्षा प्राप्त की थी। नाना शहर के जाने-माने धनी भूमिपति थे। संत, मुनियों, सन्यासियों व धार्मिक विद्वानों का घर में निरन्तर प्रवास रहने के कारण बालपन से ही अशोक जी धार्मिक प्रवृत्ति के बन गये थे। सात भाई और एक बहन के क्रम में अशोक जी चौथे नम्बर पर थे। पूरा परिवार उच्च शिक्षा प्राप्त था। अशोक के छोटे भाई भारतेन्दु सिंहल एक आईपीएस अधिकारी थे जो उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक पद से अवकाश ग्रहण किये। कुण्डली में लिखे ग्रह नक्षत्रों का योग बता रहा था कि सभी भाई-बहनों में अशोक जी निराले तथा धनुर्धर योग के कारण विश्वविख्यात कर्मयोगी बनेंगे। आगे चलकर यह हिन्दू चेतना के प्रतीक पुरुष बने। कक्षा आठ में उन्होंने महर्षि दयानन्द की पूरी जीवनी पढ़ ली थी और उनके आदर्शों को आत्मसात कर लिया था। 1942 में जब वे प्रयाग में 11वीं के छात्र थे पढ़ थे, उसी समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह उपाख्य रज्जू भइया के सम्पर्क में आये। माता जी की अनुमति लेकर वे राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा जाने लगे। 
1947 में देश विभाजन के समय कांग्रेसी नेता जब सत्ता प्राप्ति की खुशी मना रहे थे तब देशभक्त अशोक जी के हृदय में पीड़ा थी कि भारत माता के टुकड़े हो गये। वे संघ कार्य को पूर्ण समर्पित हो गये। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा तो अशोक जी सत्याग्रह कर जेल गये। वहां से लौटने के बाद आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से मेटलर्जी विषय में इंजीनियरिंग की स्नातक उपाधि प्राप्त की। यहीं से उन्होंने राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक जीवन को अंगीकार किया। उनका सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर जी से अत्यन्त घनिष्ठï सम्बन्ध बना। प्रचारक जीवन में वे लम्बे समय तक कानपुर में रहे। यहां उनका सम्पर्क श्री रामचन्द्र तिवारी नामक विद्वान से हुआ। वे गृहस्थ होते हुए भी संत थे। वेदज्ञ थे। गीता पर भी उनका विलक्षण ज्ञान था। अशोक जी पर गोलवलकर जी तथा रामचन्द्र जी का अमिट प्रभाव पड़ा। यहां उनका आध्यात्मिक ज्ञान तेजी से जागृत हुआ। 
वर्ष १९७५ से १९७७ तक देश में आपातकाल एवं संघ पर प्रतिबन्ध रहा। अशोक जी की संगठनात्मक क्षमता गजब की थी। वे इन्दिरा गांधी के तानाशाही के विरुद्घ संघर्ष में जनसंगठन खड़ा करते गये। आपातकाल के बाद वे दिल्ली के प्रान्त प्रचारक बनाये गये। 1981 में डॉ. कर्ण सिंह के नेतृत्व में दिल्ली में एक विराट हिन्दू सम्मेलन हुआ जिसके पीछे संघ की शक्ति और अशोक जी का पूरा परिश्रम, कौशल, क्षमता काम आया। अशोक जी वेदों के प्रचार में और अधिक समय देना चाहते थे और इसकी अनुमति सरसंघचालक जी ने दी थी परन्तु अशोक जी ने संघ के संगठन को ही अपना समझ कार्य करते रहे। इसके बाद 1982 में वे विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त सचिव बने। 1986 में वे वीएचपी के महामंत्री बने। यहां से श्रीराममन्दिर आन्दोलन को उन्होंने इस प्रकार संचालित किया कि वह नवनिर्माण का आन्दोलन बन गया। वे अपनी संगठन की क्षमता से श्रीराममन्दिर आन्दोलन को एक नया आयाम दे गये। उन्होंने जनआकांक्षा को एक सुन्दर स्वप्न बना लक्ष्यभेद किया और श्रीराममन्दिर आन्दोलन को गांव-गांव पहुंचा दिया। देश की सामाजिक और राजनैतिक दिशा बदलने लगी। उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद को अन्तरराष्टï्रीय स्वरूप दे दिया। 
वे अपने जीवन के महत्वपूर्ण संकल्पों  को मील का पत्थर बनाते गये और विश्व का हिन्दू उसी रास्ते पर चलता गया। उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के काम में धर्म जागरण, सेवा, संस्कृत, परावर्तन आदि नये आयाम जोड़ दिया। वे मूल बीज रूप में एक सत्याग्रही थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उन्होंने राष्टï्रीयता की राह चुनी थी। उन्होंने अपनी आध्यात्म साधना को राष्टï्र आराधना का रूप दे दिया। वे दशकों तक छात्र युवा आन्दोलनों के प्रेरक बने। आपातकाल में पुलिस उन्हें खोजती रह गई। वे भूमिगत आन्दोलन चलाते रहे। वे अपराजेय योद्घा की तरह किसी के पकड़ में नहीं आये। मीनाक्षीपुरम धर्मान्तरण की घटना को उन्होंने चुनौतीपूर्ण माना और विराट हिन्दू समाज को खड़ा करने का कार्य किया। यद्यपि बचपन में अपने मधुर स्वर से अच्छे गीतकार थे। संघ गीत को वे बड़े लय व सुर से गाते थे। यही गीतकार राष्टï्रीयता का संगीतकार बन गया। उन्होंने भारत भर के सभी मत पंथ सम्प्रदायों का गहरा अध्ययन कर उनसे सम्पर्क किया और सहमति बना कर उन्हें एक मंच पर ले आये। धर्मसंसदों में पीछे रह कर बड़ी-बड़ी भूमिका निभाते रहे। 
मन्दिर आन्दोलन 1989 से 1992 तक अपने चरम दौर से गुजरा। लाखों लाख भारतीय उनके आह्वïान पर एकत्र होते रहे। 1992 में कारसेवकों का ऐसा नेतृत्व किया कि लाखों व्यक्तियों ने ऐसा आन्दोलन खड़ा किया जो इतिहास बन गया। सीबीआई ने पांच अक्टूबर 1993 में अपनी पहली चार्जशीट में अशोक सिंहल का नाम शामिल कर आरोप पत्र लखनऊ के स्पेशल कोर्ट में दाखिल किया। जिसमें बालासाहेब ठाकरे, लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती, विनय कटियार, तत्कालीन जिलाधिकारी रामशरण श्रीवास्तव सहित कुल 40 लोग आरोपी  बनाये गये। श्रीरामजन्मभूमि पर भव्य मन्दिर का स्वप्न देखते-देखते वे 17 नवम्बर 2015 को चिरनिद्रा में लीन हो गये। 
नरेन्द्र मोदी की सरकार बनाने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी। मोदी सरकार बनने के डेढ़ साल बीतने पर उन्होंने डॉ. सुब्रह्ण्यम स्वामी को 30 सितम्बर को आगे कर श्रीरामजन्मभूमि आन्दोलन पर एक प्रेस वार्ता की। बात मन्दिर निर्माण में कानूनी अड़चनों पर ध्यान खींचने और समाधान ढूढऩे की थी। यह एक यर्थातवादी और व्यवहारिक विचार था। एक राष्टï्रीय सेमिनार की घोषणा की गई। उनके उम्र के 90 वर्ष पूर्ण होने पर सिविल सेन्टर में एक अभिनन्दन समारोह हुआ। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के अनुरोध पर उन्होंने एक गीत गाया। गीत के बोले थे - यह मातृ भूमि मेरी, यह पितृभूमि मेरी....। यह गीत उनके जीवन का आखिरी गीत बन गया। 
वे अपने सम्पूर्ण जीवन में सादगी, सेवा, सत्य साधना और समाज परिवर्तन के बीज थे जो समय पाकर बटवृक्ष हुये। हिन्दू जागरण के वे पुरोधा थे। कार्यनिष्ठïा में डूब कर कार्य करने वाले स्वयंसेवकों और आम भारतीय जन के वे पथप्रदर्शक बन गये। वे कार्य का बीड़ा उठाते थे और अपने दायित्व निर्वहन को पूरी निष्ठïा से पूरा करते थे। उन्होंने संसार और राष्टï्र को अपना परिवार माना। वे हिन्दू समाज को संगठित करने का आधार सामाजिक समरसता को मानते थे। काशी के डोमराजा के यहां खिचड़ीभोज का कार्यक्रम उन्होंने बड़ी सफलतापूर्वक किया। उन्होंने बिना किसी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के हिन्दू समाज के सार्विक हितों की चिन्ता की। वे समाज के अभिभावक बने। उनका जीवन भारतीय जीवनशैली और संस्कारों को चरितार्थ करता है। उनकी उग्र तपस्या, संवेदनशील निस्पृह और नि:स्वार्थ व्यक्तित्व, दृढ़ व स्पष्टï नेतृत्व, विचार, आचार सभी कुछ हमारा मार्ग दर्शन करते रहेंगे। 
महामना मालवीय मिशन के वे संरक्षक थे। प्रत्येक अधिवेशनों में वे अवश्य आते थे। प्रचारक जीवन से संरक्षित कुछ धन वे अपने योगदान के रूप में दान करते थे। मालवीय जी के प्रति उनकी निष्ठïा व आचरण अटूट थी। एकल विद्यालय अभियान के वे प्रेरणापुंज थे। 1999 में अभियान को एक लाख विद्यालय का लक्ष्य देकर और इसे ब्रम्हास्त्र की संज्ञा देकर इसके प्रयोजन को स्पष्टï किया। झारखण्ड से लेकर अमेरिका तक इसकी गूंज पहुंचाने में अपनी अहम भूमिका निभाई। वे मानते थे कि एक विद्यालय अभियाना देश की समस्याओं का समाधान करेगा। 
बनवासी कल्याण आश्रम के अखिल भारतीय प्रचारक श्याम गुप्त जी कहते हैं कि उन्हें पांचजन्य के पूर्व सम्पादक भानुप्रताप शुक्ल जिन्हें कैंसर हो गया था उन्हें लगा कि वे ज्यादा दिन जीवित नहीं रह पायेंगे तो वे अशोक जी के पास आकर एक घटना बताने लगे - 1972 की बात है परमपूज्य गुरु गोलवलकर जी के कैंसर का आपरेशन हो गया था। उसके बाद वे उत्तर प्रदेश के प्रवास पर आये थे। मैं उनकी सेवा में नियुक्त था। एक दिन एकान्त मिल गया। मैंने उनसे धृष्टïतापूर्वक पूछा कि आप की आयु तो अब निश्चित हो गई है तो फिर आप के बाद हिन्दुत्व का काम कौन करेगा ? एक क्षण शान्त रह कर वे कहने लगे कि मैं अदृश्य रहकर यह काम करता रहूंगा। किन्तु फिर मैंने पूछा कि हमें दृश्यमान कौन दिखाई देगा तो उन्होंने धीरे से कहा 'अशोक सिंहलÓ। हम सब के लिए वे साक्षात परमपूज्य गुरुजी के अवतार थे। 1973 में परमपूज्य गुरुजी का निधन होता है और यही वह वर्ष भी जब अशोकजी यमराज से वापस लौटकर पुन: जीवन प्राप्त करते हैं। अध्यात्म के शिखर पुरुष परमपूजनीय गुरुजी के प्रतिनिधि के नाते माननीय अशोकजी ने संत महात्माओं को एक मंच पर लाने का जो अद्भुत कार्य करके दिखाया, हिन्दुत्व के पुनर्जागरण के इतिहास में वह सदा स्मरणीय रहेगा। 
गो वंश की रक्षा में वे सदैव सक्रिय रहे। प्रतिदिन गो माता का दर्शन करना उनकी आदत थी। गंगा रक्षा के लिए वे आमरण अनशन पर बैैठ कर स्वयं के जीवन की बाजी लगाने में वे पीछे नहीं रहे। पूज्य गोविन्द गिरी जी के साथ वेद विद्यालयों की श्रृंखला खड़ी करने में उनका सहयोग विलक्षण था। अपने पैतृक आवास से लेकर डेनमार्क के महेशयोगी के मुख्यालय तक वेद भगवान की प्रतिष्ठïा हेतु अहर्निश चिन्ता करते हुए वे अन्तिम समय तक सक्रिय रहे। कहां वे तो 16 नवम्बर से दिल्ली में आयोजित चतुर्वेद स्वाहाकार यज्ञ की ज्वाला में आहुति देने के आयोजन की चिन्ता कर रहे थे और कहां 17 नवम्बर को ही स्वयं वेद भगवान की यज्ञशाला की ज्वाला बनने का फैसला कर बैठे। वे विजीगीषु भावना के धनी थे। श्रीरामजन्मभूमि आन्दोलन के लिए सम्पूर्ण विश्व में याद किए जायेंगे। राजनीति में हिन्दू चेतनानुकूल परिणाम आये हैं। सर्वोच्च न्यायालय से श्रीराममन्दिर पर अंतिम फैसला आने से सभी बाधाएं दूर हो गई हैं तथा श्रीरामजन्मभूमि का पूजन भी पांच अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कर दिया है। मन्दिर की नींव खोदी जा रही है। शीघ्र ही विश्वस्तरीय भव्य मन्दिर बनकर तैयार होगा। अयोध्या का विश्वस्तरीय विकास व कायाकल्प होगा। अयोध्या एक अन्तरराष्टï्रीय केन्द्र बन रहा है। इन सबके पीछे अशोक सिंहल जी का प्रयास, संकल्प और अथक परिश्रम है- यही स्मरण आता है। उनका जीवन हमें मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा नामक ब्रह्मï बिहारों में चित्त लगाने का संदेश दे रहा है। 
लेखक विश्व संवाद केन्द्र अवध के सचिव व पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं। 

Wednesday 2 September 2020

नीति आयोग से रुकेगा ग्रामीण पलायन



                                               

अशोक कुमार सिन्हा
     भारत में हुए एक सर्वेक्षण में यह स्पष्ट हुआ है कि 42 प्रतिशत से अधिक किसान अपनी खेतिहर ज़मीन बेचकर किसी वैकल्पिक रोजगार अथवा व्यवसाय की तलाश में हैं. इस सर्वेक्षण के नतीजों में एक सन्देश स्पष्ट है कि देश की कृषि व्यवस्था, ग्रामीण जीवन तथा ग्रामीण विकास के प्रति घोर लापरवाही, उदासीनता और भावशून्यता हर तरफ़ से दिखाई गई है. कृषि को ही आज किसान ख़ुद ही घाटे का सौदा मानता है किसान. वर्तमान केन्द्रीय सरकार के घोषणा पत्र में संकल्प लिया गया था कि किसानों की उपज का कम से कम डेढ़ गुना मूल्य अवश्य दिलाया जाएगा. वहीं गन्ना, कपास, धान और मूंगफली जैसी नगदी फ़सलें उगाने वाले किसानों की दुर्दशा देखकर नहीं लगता कि निकट भविष्य में ऐसा कुछ हो पायेगा. आलू, गेहूं, दलहन और तिलहन उगाने वाले किसानों का तो कोई पुरसाहाल ही नहीं है.
     आज भारतीय किसानों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती किसी भी प्रकार से अपने को बचाए रखने की है. भूमि लाभ कमाने वाली एक आर्थिक संपत्ति है लेकिन वह असक्षम हाथों में है. देश की राष्ट्रीय आय में कृषि उपज क्षेत्र की हिस्सेदारी लगातार घटते हुए 14.5 फ़ीसदी से भी नीचे आ गई है. देश की 70 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों अर्थात अधिकांश किसानों की है. वहीं 60 करोड़ से अधिक लोग प्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर हैं. उनके सामने अन्य कोई विकल्प नहीं है इसके बावजूद वह किसानी से ऊब चुके हैं. आत्महत्या कर लेने के एकमात्र विकल्प के सिवा उनके पास अब कोई चारा शेष नहीं दिखाई पड़ता है. देश की आत्मा और अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले गांवों में सबकुछ ठीक नहीं है.
     विडंबना और विषाद का विषय है कि गांवों की पूरी हकीकत, किसानों की आवाज़ मीडिया के माध्यम से देश के समक्ष नहीं आ पा रही है. कृषि जोतों का लगातार विभाजन हो रहा है. आबादी निरंतर विस्फोटक की तरह बढ़ रही है. खेतिहर ज़मीनों का क्षेत्र निरंतर सीमित होता जा रहा है. यह केवल भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में एक साथ हो रहा है. देश में 30 फ़ीसदी सीमान्त किसान हैं, जीनके पास एक हेक्टेयर से भी m ज़मीनें बचीं हैं. खेतिहर ज़मीन कम होने से ग्रामीण जनसंख्या ने ऐसे क्षेत्र की ओर पलायन करना ज्यादा उचित समझा जहां रोजगार के अवसर अधिक उपलब्ध हों. इस पलायन ने देश की मूल आत्मा को घायल कर दिया है. कई नवीन सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ख़तरे बढ़ गये हैं. भूमंडलीकरण से जहां किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर होनी चाहिए थी उसके बरअक्स हालात बदतर हो गए हैं.
     गांवों की सामाजिक स्थितियां ऐसी हैं कि विवाह योग्य किसी लड़की का बाप गांवों में अपनी बेटी प्राथमिकता के आधार पर ब्याहना नहीं चाहता है. जो भी थोड़ा योग्य है, हाथ-पाँव और दिमाग चला सकता है वह शहर की ओर ही भागता है. भले ही वह रिक्शा चलाकर अपना पेट भरने को मजबूर हो. गांवों में कौशलयुक्त और प्रशिक्षित श्रम शक्ति का दायरा लगातार सकरा होता जा रहा है. वहीं शहरों की आबादी और बसाहट तेजी से कुरूप और अनियंत्रित हो रही है. यदि गांवों में पढ़ा-लिखा तबका या शहरी नौकरियों से अवकाश प्राप्त योग्य व्यक्ति अपनी ज़मीन की ओर लौटना भी चाहते हैं तो गांवों में उनका सामना होता है अशिक्षित या अल्पशिक्षित चालबाजों से. अशिक्षा, गंदगी, भ्रष्टाचार, मच्छर, कीचड़, मुकदमेबाज़ी और तिकड़मबाज़ों से ऊबकर वह मज़बूरन शहर की ओर पुनर्पलायन करने को उन्मुख होता है.
     'मनरेगा' जैसी योजनाओं ने यद्यपि ग्रामीण पलायन को कुछ हद तक रोक पाने में सफ़लता अर्जित की है. वहीं इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार ने काफ़ी हद तक निराश भी किया है. सरकारी योजनाओं के चमकते विज्ञापन टी.वी. पर देखकर तो यही लगता है कि गांवों की स्थिति सुधर रही है. वहीं उसके ग्राउंड जीरो पर जाने से पता चलता है कि निराशा के सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला. भारतीय संविधान में प्रत्येक नागरिक को समान माना गया है परन्तु शासन द्वारा संविधान की उपेक्षा करके शहरी नागरिकों की तुलना में और ग्रामीणों के साथ भेदभाव किया जा रहा है. स्वच्छ पेयजल, स्वास्थ्य सुरक्षा, बिजली, राशन वितरण, संचार, सड़क, शिक्षा तथा वातावरण अभी मामलों में गांव उपेक्षित हैं, वहीं शहरी आबादी को ख़ास तवज्जो दी जा रही है.
     शहरी मतदाता सभी दलों की सरकारों के लिए महत्वपूर्ण हैं. गांवों में कृषि और उस पर निर्भरता वाले उद्योगों की नगण्यता और शहरों में रोजगार के अधिक अवसर ग्रामीण पलायन को बढ़ावा दे रहे हैं. बजट के लिए 70 फीसदी राजस्व गांवों से अता है. वहीं चाहें उच्च शिक्षण संसथान हों, चाहें उद्योग धंधे हों, या उच्चतर स्वास्थ्य सेवाएं हों गांव इसके लिए और यह गांवों के लिए नहीं बने हैं. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र गांवों में और मेडिकल कालेज और यूनीवर्सिटी शहरों के लिए हैं. पढने वाले विद्यार्थी गांवों में हैं पर शैक्षणिक संस्थान शहरों में हैं. देश की कुल 25 फ़ीसदी आबादी का 75 फ़ीसदी आबादी ग्रामीणों से अधिक लाभ उठा रही है. शक्ति, सत्ता, पूंजी और संसधानों का इतना असमान और बेढंगा विकेंद्रीकरण तो निश्चय ही अन्याय और विसंगतियों को जन्म देगा.
     पूर्व में गठित योजना आयोग के सिर पर भूमंडलीकरण और उदारीकरण का भूत सवार था. उसमें जो विशेषज्ञ थे वे या तो विदेशी शिक्षा प्राप्त अर्थशास्त्री थे या वे थे जिनको गांवों से कुछ भी विशेष लगाव न था. वे आंकड़ों पर विशेष जोर देकर शहरीकरण को ही देश का सच्चा विकास मानते थे. उनका विश्वास था कि औद्योगिक उत्पादन बढ़ाकर हम देश का विकास कर सकते हैं. पूर्व में नीतियाँ भी ऐसी थीं तथा योजनायें भी ऐसी बनीं थीं कि ग्रामीण पलायन कम होने के बजे और अधिक बढ़ता चला गया. शहरी और ग्रामीण आबादी का अंतर और चौड़ा होता चला गया. औद्योगिक विकास दर से यद्यपि कृषि विकास दर प्रभावित होती है परन्तु नीतियों में कुछ मूलभूत खामियां प्रत्येक सरकारों में रहीं जिसके कारण लगातार कृषि क्षेत्र उपेक्षित होता गया. जिसके चलते ग्रामीण पलायन बदस्तूर ज़ारी रहा. अगर वक्त रहते इस पलायन को रोका नहीं गया तो 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा भी कभी सफ़ल नहीं हो सकता है. संविधान में सभी नागरिकों को समान अधिकार के उलंघन का महापाप और चढ़ता जाएगा.
     पिछली सभी सरकारों को किसान संघों और भारतीय किसान आयोग की चेतावनी निरंतर मिलती रहीं हैं. सभी सरकारों ने अपना चुनाव-चिन्ह और सरकारी नारे भी ग्रामीणों को लुभाने वाले ही रक्खे मगर काम ठीक उल्टा ही किया गया. आम आदमी का अर्थ ही लिया जाता है 'भारतीय किसान' मगर सबसे अधिक उपेक्षा उसकी ही की गई है. अगर सरकारी नीतियों की ओर हम ध्यान दें तो पायेंगे कि कमी सरकारी इच्छाशक्ति और नीतियों के निर्माण में है. कृषि विकास दर यदि 2.5 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है तो ओद्योगिक विकास दर 4 फ़ीसदी की विकास दर से. कृषि उत्पादों में यदि 2.5 फीसदी का इज़ाफा हो रहा है तो कृषि यन्त्र, खाद, बिजली, डीजल जैसे औद्योगिक उत्पादों की कीमत 4 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है. यही अंतर गांव और किसानों को निरंतर गरीब बना रहा है. आज खेती पूर्णतः घाटे का व्यवसाय बनकर रह गई है.
     राज्य और केंद्र सरकारें, कृषि विभाग और कृषि मंत्रालय बनाकर संतोष किये बैठीं हैं. जिसमें वैज्ञानिक कम नौकरशाह अधिक हैं. जो वैज्ञानिक हैं भी वो काम कम, ढोंग अथवा टिटिम्बा ज्यादा कर रहे हैं. रासायनिक खादों का अधिकाधिक प्रयोग खेतिहर ज़मीनों को बंज़र बना रहा है. जैविक खेती का नाटक भी खूब जोरों पर है. पशुओं की संख्या ही घट रही है तो देशी खाद आयेगी कहाँ से. परिणाम यह हो रहा है कि भूमि जहां बंजर हो रही है. वहीं उत्पादन और उत्पादकता एक बिंदु पर ठहर गई है. अब चाहें जितना ही अधिक उर्वरक प्रयोग करें उत्पादकता और उत्पादन बढ़ेगा ही नहीं.
     नई-नई बनी मोदी सरकार ने योजना आयोग को भंग करके नया 'नीति आयोग' (नेशनल इन्स्टीट्यूट फ़ार ट्रान्सफारमिंग इंडिया) का जतान कर क्रांतिकारी काम किया है. वहीं दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. अरविन्द          को उसका उपाध्यक्ष बनाया गया है. कई विषय विशेषज्ञों और सम्बंधित मंत्रियों के साथ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को उसका सदस्य बनाया गया है. उम्मीद का हौसला बंधता दिख रहा है और हम सब इस बात के लिए आशान्वित हो सकते हैं कि यह नीति आयोग ऐसी नीतियों को लागू करेगा, जिससे कृषि विकास दर और औद्योगिक विकास दर की असमानता दूर होगी. कृषि क्षेत्र की विकास दर 4 फ़ीसदी के आंकड़े को प्राप्त कर सकेगी. भूमि संरक्षण, जल संसाधनों और स्रोतों का का बेहतर इस्तेमाल, तथा जैव विविधता और प्रर्यावरण का संरक्षण हो सकेगा.
     हम उम्मीद कर सकते हैं कि समान रूप से क्षेत्रवार कृषि को विकसित करने की कार्ययोजना बनेगी. घरेलू खपत और विदेशी निर्यात की संभावनाओं को देखते हुए कृषि उत्पादन को नियोजित किया जा सकेगा. टिकाऊ खेती के लिए बेहतर प्रयास हो सकेंगे. कृषि शोध में आई जड़ता को समाप्त करते हुए ऐसे नये अनुसंधान हो सकें जो देश की आवश्यकता के अनुरूप हों. विदेशी नकल कम होगी और दिखावे के लिए कागजी काम के बजाय वैज्ञानिक वास्तविक शोध के लिए प्रेरित हो सकेंगे तो बेहतर तस्वीर देखने को मिल सकेगी. कृषि विश्वविद्यालयों का बांझपन दूर हो सके और वहां जमीन से जुड़े शोध विद्यार्थी और स्नातकों-परास्नातकों का निर्माण हो. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद तथा अन्य शोध संस्थानों का यथास्थितिवाद दूर हो. आंतरिक गुटबाजी, दिखावे का अहंकार तथा प्रमोशन की हताशा-निराशा का वातावरण समाप्त होकर नये उत्साह से कार्य प्रारम्भ हो सके.
     ग्रामीण योजनायें इस प्रकार संशोधित की जा सकें जिससे भ्रष्टाचार को दूर करते हुए जमीनी कार्य हो सके. यदि प्रधानमंत्री के आदर्श गांव जयापुर में सबकुछ तेजी से हो सकता है तो तो और गांवों में क्यों नहीं. इसके लिए नौकरशाही पर कड़ा नियंत्रण स्थापित करना होगा. तभी सकारात्मक परिणाम प्राप्त होंगे. क्या नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री और नया 'नीति आयोग' इस कसौटी पर खरा उतर सकेगा. क्या लापरवाही और उदासीनता के वातावरण में पले, बढ़े और काबिज नौकरशाह भी इस बदलाव को स्वीकार करेंगे. शासन उद्योग और अवस्थापना में तो रूचि दिखा रहा है परन्तु कृषि की ओर उसकी दृष्टि नहीं है. कहीं भूमंडलीकरण की चकाचौंध इस निति आयोग को भी योजना आयोग तो नहीं बना देगा. फ़िलहाल आशावादी होने में ही अभी भलाई है. कुछ वक्त इस नई सरकार को और देना ही न्यायसंगत होगा.

(लेखक: उत्तर प्रदेश गन्ना सेवा के गन्ना विकास और चीनी उद्योग में 38 वर्षों तक मुख्य प्रचार अधिकारी रहे हैं. वर्तमान में 'लखनऊ पत्रकारिता एवं जनसंचार संस्थान' के निदेशक हैं.)