Saturday 23 October 2021

रामजन्मभूमि कार्यारम्भ का एक वर्ष
* अशोक कुमार सिन्हा
अयोध्या मे΄ श्रीराम जन्मस्थान पर निर्मित मन्दिर को तोडक़र छद्म मस्जिद बनाने वालों का अभियान 492 वर्ष के बाद टूट कर चकनाचूर हो गया। 5 अगस्त 2020 को भारत के प्रधानम΄त्री ने रामराज्य का श΄खनाद करते हुए नए भारत की आधारशिला रखी थी। नये मन्दिर का कार्यारम्भ हुए एक वर्ष पूरे हो रहे है΄। यह  राष्टï्र मन्दिर का शुभारम्भ था। यह सम्पूर्ण विश्व की आस्था का केन्द्र बिन्दु है। श्रीरामलला का म΄गलभवन वर्तमान सन्दर्भ मे΄ एक चमत्कार से कम नही΄ है। श्री मोहन भागवत जी ने इस अवसर पर भूमि पूजन करते समय कहा था कि ‘‘अपने हृदय मे΄ केवल राम को ही समाहित कर ले΄, रामजी के आदर्श को अपने हृदय मे΄ धारण कर ले΄। ‘..तेही΄ के हृदय बसेहु रघुराई’. ऐसा जीवन बनाना, यह मुख्य काम है। उसके लिये मन्दिर बनाने का आग्रह है। भावना को सम्मान दिया जाना चाहिये। हमारे आदर्श श्रीराम के मन्दिर को तोडक़र, हमे΄ अपमानित करके हमारे जीवन को भ्रष्ट किया गया है। हमे΄ उसे फिर से खड़ा करना है।’’
राममन्दिर का शिलान्यास 1989 मे΄ पहले ही हो गया था। 15 अगस्त 2020 को केवल मन्दिर निर्माण कार्य का शुभारम्भ हुआ। जनआ΄दोलन तो भूमि प्राप्त करने का था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय आया तो एक न्यास बनाकर कार्य किया गया। राम भतो΄ मे΄ टोलिया΄ बनाकर धन स΄ग्रह अभियान चलाया। उनके प्रथम प्रयास मे΄ ही ढाई हजार करोड़ रुपए एकत्र हो गये। बाद मे΄ और भी समर्पण राशि आती गई। पूजा के लिए एक चा΄दी की ईंट की आवश्यकता थी। राम भतो΄ ने अयोध्या मे΄ चा΄दी के ईंटो΄ का अ΄बार लगा दिया। राम भतो΄ की आका΄क्षा है कि सम्पूर्ण राममन्दिर के शिखरो΄ पर स्वर्ण परत चमके। प्रभु राम यह कार्य भी पूर्ण करे΄गे।
ऐसे लोग जो राम के अस्तित्व को नकार रहे थे। न्यायालय मे΄ हलफनामा दे रहे थे कि राम काल्पनिक है। राम सेतु मिथक है। उसे तोड़े जाने की योजना बना रहे थे। ऐसे लोग आश्चर्यचकित है΄ कि रामभतो΄ के हृदय मे΄ विराजमान राम ऐसा चमत्कार करे΄गे कि पूरा विश्व अच΄भित हो जाएगा और जय सियाराम का जयकारा लगाने लगेगा।
देश के 75,000 टोलियो΄ मे΄ 1,00,000 कार्यकर्ताओ΄ ने घर-घर जा कर 10 करोड़ परिवारो΄ से सम्पर्क किया। 4,00,000 गा΄वो΄ मे΄ यह सम्पर्क अभियान चला। विश्व के इतिहास मे΄ यह सबसे बड़ा सम्पर्क अभियान पूर्णत: सफल रहा। मत, प΄थ, जाति, भाषा, प्रान्त सब के ब΄धन जकडऩ टूट गये। मन्दिर के नी΄व मे΄ मिर्जापुर के पत्थर, परकोटे पर जोधपुर का पत्थर और मन्दिर मे΄ भरतपुर के व΄शी पहाड़ का पत्थर लगाने का निर्णय हुआ। पूर्व मे΄ मन्दिर निर्माण की जो परिकल्पना बनाई गई थी उसे और भव्य और बड़ा रूप प्रदान किया गया। 400 फुट लम्बाई, 250 फुट चौड़ाई और 40 फुट गहराई का मलवा निकालकर ठोस मिर्जापुरी पत्थरो΄ से तथा कई परत के उाम क΄क्रीट सीमेन्ट से भरा जा चुका है। भारतीय प्रौद्योगिकी स΄स्थान मद्रास, मुम्बई सहित विश्वस्तर के वैज्ञानिक भराई सामग्री का ध्यान रख रहे है΄। जमीन तक कंक्रीट तथा उसके ऊपर 16.5 फुट चबूतरा बनेगा। मन्दिर भूतल से 161 फुट ऊंचा होगा। 361 फुट ल΄बा और 235 फुट चौड़ा होगा। कुल 160 खम्बे लगे΄गे। ढाई एकड़ मे΄ केवल मन्दिर होगा। उसके चारो΄ ओर की भूमि खरीदी गई है जहा΄ मन्दिर के 6 एकड़ मे΄ परकोटा बनेगा। वर्तमान मे΄ भूमि पर 500 विशाल वृक्ष है जिन्हे काटे बिना ही स्थाना΄तरित किया गया है। जिस प्रकार श्रीराम ने लोक स΄गठन से आत΄कवाद को समाप्त किया था उसी प्रकार देश की सज्जन शितयो΄ ने मिलकर दुष्ट शितयो΄ को पराजित किया है। उनके राष्ट्रविरोधी षडय΄त्रो΄ को विफल किया है। सदियो΄ से स΄घर्ष का सुखद अन्त किया है। यह मन्दिर का निर्माण ही नही΄, नये भारत का निर्माण हो रहा है। म΄दिर निर्माण राष्ट्र को जोडऩे का उपक्रम है। इससे नर और नारायण जुड़े΄गे, मन्दिर पर ध्वज पताका के रूप मे΄ भारत की कीर्ति लहराने जा रही है। राम की कीर्ति भारत के जनमन का मार्गदर्शन करती है।
विराट अयोध्या का पुनर्गठन हो रहा है। पूरे नगर की नई संरचना की जा रही है। रेलवे स्टेशन को अयोध्या की स΄स्कृति का रूप दिया गया है। अन्तर्राज्यीय हवाई अड्डा का निर्माण हो रहा है, अन्तर्राज्यीय बस टर्मिनल बन रहा है।
हिन्दू आस्था के केन्द्र राममन्दिर को शीघ्र बना कर पूरा करने का कार्य प्रगति पर है। आगामी तीन वर्षों मे΄ भतगणो΄ को आशा है कि वे मूल मन्दिर मे΄ पूजा अर्चना कर सके΄गे। चौरासी कोस की परिक्रमा मार्ग को राष्ट्रीय राजमार्ग घोषित कर दिया गया है तथा उसका चौड़ीकरण कार्य इसी माह प्रारम्भ हो रहा है। अयोध्या के छह प्रवेश द्वारो΄ का निर्माण नगर शैली मे΄ प्रारम्भ हो गया है। प्रयास है कि अयोध्या का प्राचीन गौरव पुनस्र्थापित हो। लगभग 1200 एकड़ की भव्य अयोध्या के प्रत्येक प्रवेश द्वार पर श्रद्धालुओ΄ के लिये आवासीय परिसर का प्रबन्ध होगा।
सरयू घाटो΄ के आस-पास सुन्दरीकरण होगा। बाईपास से नया घाट सरयू तट तक जाने के लिये स्मार्ट रोड, कला परियोजना, पशु संरक्षण, बाहरी रिंग रोड, रामायणकालीन पौधरोपण, रामायण थीम पार्क आदि का निर्माण किया जाएगा। केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा अनेक विकास परियोजनाए΄ स΄चालित हो रही है। पत्थर के तराशने का कार्य चौगुनी गति गति से हो रहा है। ग्रीन फील्ड, टाउनशिप, आश्रम मठ विभिन्न राज्यो΄ के भवन, विश्वस्तरीय स΄ग्रहालय, पर्यटन  विशाल आधुनिकतम सुसज्जित होटल, धर्मशालाओ΄ के कार्य प्रगति पर है। रामजन्मभूमि परिसर मे΄ ही राम जन्मभूमि आन्दोलन का स्मारक भी बनाया जाएगा। इसी स΄ग्रहालय मे΄ राम जन्मभूमि की प्रमाणिकता प्रदर्शित करते साहित्य, साक्ष्य पुरावशेषो΄ और मन्दिर की दावेदारी से जुड़े प्रस΄गो΄ की धरोहर भी स΄कलित कर प्रदर्शित की जाये΄गी। अयोध्या के मुख्यमार्ग और भवनो΄ को केसरिया र΄ग मे΄ र΄गे जाने की योजना है। सभी साइन बोर्ड एक जैसे हो΄गे, बोर्ड की ल΄बाई-चौड़ाई निर्धारित होगी। अयोध्या के आस-पास पौराणिक स्थलो΄ का भी सुन्दरीकरण और मार्ग सुधार का कार्य प्रारम्भ हो गया है। दशरथ समाधि स्थल, गौतम ऋषि का आश्रम, बाबा म΄गेश्वर महादेव, यमदाग्नि ऋषि का आश्रम, सूर्यकुन्ड, भरतकुन्ड, पिशाची कुन्ड और पौराणिक कुन्डो΄ को हेरिटेज रूप दिया जाएगा।
पर्यावरण और हरियाली का पूरा ध्यान रखा जा रहा है। 251 ऐसे स्थलो΄ की पहचान की गई है जिनका पौराणिक महत्व है। सरकार की ओर से पावनपथ परियोजना चलाकर ग्रेटर अयोध्या का रूप दिया जाएगा। 500 करोड़ रुपए की लागत से सरयू तट पर प्रभुश्रीराम की विशाल प्रतिमा स्थापित होगी। योगी आदित्यनाथ का स΄कल्प है कि दुनिया की सबसे वैभवशाली नगरी का रूप अयोध्या को मिले। अवधपुरी को उसका पुराना वैभव प्राप्त हो। उार प्रदेश राम, कृष्ण और शिव का प्रदेश के रूप मे΄  विश्वविख्यात रहे।
* प्रमुख, विश्व संवाद केन्द्र, अवध।  

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 योगेश्वर श्री कृष्ण

* अशोक कुमार सिन्हा
श्री कृष्ण जन्माष्टमी प्रत्येक वर्ष की भा΄ति इस वर्ष भी भाद्र मास कृष्णपक्ष अष्टमी तदनुसार 30 अगस्त 2021 को सम्पन्न होगा। श्री कृष्ण के बाल एव΄ किशोर वय के अनेकानेक विविध रूप का वर्णन मिलता है परन्तु उनका योगेश्वर कर्मयोगी स्वरूप की चर्चा अपेक्षाकृत कम ही मिलती है। भारत के सच्चे अर्थों मे΄ राष्ट्रनायक श्री कृष्ण ही थे जिन्हो΄ने युद्ध क्षेत्र मे΄ शा΄ति का स΄देश दिया था।
भारत का सा΄स्कृतिक महानायक, कर्मयोगी कलाधर, युगानुकूल व्यूहरचना धर्मी योगेश्वर श्रीकृष्ण का जीवन हमारे लिए एक आदर्श है। वे परम पराक्रमी पुरुषार्थी तथा विश्वसनीय हितकारी मित्र थे। वे प्रेममय लीला अवतारी, ज्ञानयोग के परमपुरुष तथा देश समाज के कल्याण के लिये स΄कल्पबद्ध थे। वे पुरुषार्थ चतुष्ठïय के सन्तुलनकर्ता, नीतिशास्त्र के परमज्ञाता एव΄ त्रिगुण के जीवनधारी लीला पुरुष थे। उनका जीवन युगो΄-युगो΄ मे΄ आदर्श रहने वाला है। शिशु, बाल, किशोर, युवा और प्रौढ़ सभी आयु के लोगो΄ के लिये वे सदैव आदर्श रहे΄गे। सुदामा के मित्र, यज्ञ मे΄ अतिथियो΄ का पांव धोना, सर्वोाम सर्वांगसम सारथी, तिरस्कृत नारी के रक्षक, गुरु सेवा, गोपियो΄ के आदर्श सखा, कर्म और आत्मा की अमरता का स΄देशवाहक, कर्मयोग के व्याख्याता आत्मदर्शन कराने वाले मित्र और दुष्टïो΄ के स΄हारक जैसे जीवन के प्रत्येक आदर्श को प्रस्तुत करने वाले परमज्ञाता श्री कृष्ण सदैव प्रासा΄गिक रहे΄गे। श्रीकृष्ण के जीवन से प्रेरणा लेने वाले आज सम्पूर्ण विश्व मे΄ फैले है΄। आज के युग मे΄ जीवन को सफल बनाना है तो श्रीकृष्ण का जीवनदर्शन उाम पाथेय है। यश, विजय और समृद्धि श्रीकृष्ण के जीवन मार्ग से ही सर्वोाम प्राप्त होगी। भगवान योगेश्वर श्रीकृष्ण परमात्मा भी है΄, सच्चिदानन्द और अविनाशी है΄। उनका विश्वास था कि दुख के संयोग के वियोग का नाम ही योग है। कर्मयोग, ध्यानयोग और भितयोग का समन्वय ही श्रीकृष्ण हैं।
यज्ञ, दान और तप को जीवन का आवश्यक तत्व मानते हुये निष्काम कर्म योग ही श्रीकृष्ण है΄। सम्पूर्ण सृष्टि सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के भावो΄ का मिश्रण ही सम्पूर्ण सृष्टि है। सृष्टि की विविधता मे΄ त्रिगुणात्मक तत्व की समग्रता है, यही श्रीकृष्ण ने माना है। वे कलाधर और नटवर नागर कहे जाते है΄। पूरा जीवन ही उनका विविधता और विषमताओ΄ से भरा दिखाई देता है। जन्म कारागार मे΄ हुआ, जन्म लेते ही काली अ΄धेरी रात मे΄ विस्थापित होना पड़ा। जन्म के समय माता-पिता ब΄दी थे। गोकुल मे΄ 9 वर्ष का बालपन आत्मघाती राक्षसो΄, जहरीले नाग और अनेक स΄कटो΄ और हत्या के प्रयासो΄ को विफल किया। उनका जन्म ही पृथ्वी से अनाचार, अत्याचार की समाप्ति के लिए हुआ था। गोकुल से बाहर आते ही कंस वध कर माता-पिता व अन्य स्वजनो΄ को मुत कराना पड़ा। युवावस्था मे΄ जरासन्ध सहित कई अत्याचारियो΄ का वध करना पड़ा। राजधानी मथुरा से द्वारिका स्थानान्तरित करना पड़ा। कौरव-पाण्डव के मध्य उन्हो΄ने शा΄ति स्थापना के समस्त प्रयास किये और अन्तत: उन्हे΄  युद्ध  अवश्यम्भावी दिखने पर मित्र अर्जुन और द्रौपदी की रक्षा करते हुये ऐसे जीवन सूत्रो΄ का वर्णन करना पड़ा जिसकी प्रास΄गिकता आज भी उतनी है जितनी द्वापरयुग मे΄ थी। जहा΄ योगेश्वर श्रीकृष्ण है और जहा΄ गाण्डीव धनुर्धारी अर्जुन है΄, वही΄ पर लक्ष्मी, वही΄ पर विजय, विभूति और धर्म है। आज भी जब व्यित के जीवन मे΄ स΄शयात्मक परिस्थितियाँ आती है΄ तब व्यित का मार्गदर्शन श्रीकृष्ण की ही वाणी करती है। अर्जुन का संशय दूर कर उन्हो΄ने विश्व के कल्याण का मार्गदर्शन किया। उनके वाणियो΄ का वर्णन एव΄ स΄ग्रह श्रीमद्भागवत गीता मे΄ इस प्रकार वर्णित है जिसका मान सम्मान सम्पूर्ण विश्व मे΄ है।
श्रीमद्भागवत गीता 18 अध्यायो΄ से युत है। अर्जुन विषाद योग, सांख्य योग, कर्मयोग, ज्ञान कर्म सन्यास योग, कर्म सन्यास योग, आत्मस΄यम योग, ज्ञान विज्ञान योग, असर, राजविद्या राजगुच योग, विभूतियोग, विश्वरूप दर्शन योग, भितयोग, क्षेत्र विभाग योग, गुणत्रय विभाग योग, पुरुषोाम योग, देवासुर सम्पद्विभाग योग, श्रद्धात्रय विभाग योग तथा मोक्ष सन्यास योग, अध्यायो΄ मे΄ विभाजित है। ये सभी योग मनुष्य कल्याण हेतु आज भी प्रसा΄गिक एव΄ हितकारी है΄। श्रीकृष्ण स्वय΄ भगवान है΄। उनके जन्म से लेकर गोलोक गमन तक उनकी लीलाये΄ स्वय΄ प्रदर्शित करती है΄ कि वह योगेश्वर थे। भगवान के 10 अवतारो΄ मे΄ से एक थे श्रीकृष्ण अवतार को पूर्ण अवतार की मान्यता जन-जन मे΄ है। विश्व मे΄ कर्मफल माना जाता है श्रीकृष्ण इस लैकिक जगत मे΄ श्रीहरि विष्णु के 16 कलाओ΄ से युत सम्पूर्ण अवतार  थे। वे साहित्य, कला, संगीत, नृत्य और योग विशारद थे। उन्हो΄ने जन-जन की रक्षा हेतु इन्द्र इत्यादि दैवीय शितयो΄ या ताकतवर लोगो΄ के अलावा वैदिक देवताओ΄ के विरुद्ध भी श΄खनाद किया। उन्हो΄ने सम्पूर्ण विश्व को कर्मयोग और भौतिकवाद से जोड़ा।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर योगेश्वर श्रीकृष्ण को इस दृष्टि से स्मरण करना भी मानव कल्याण हेतु परम आवश्यक है।
* लेखक विश्व स΄वाद केन्द्र अवध अवध के प्रमुख है΄।

 125वीं जन्मतिथि पर विशेष नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में जिनकी एक पुकार पर हजारों महिलाओं ने अपने कीमती गहने अर्पित कर दिये, जिनके आह्वïान पर हजारों युवक और युवतियां आजाद हिन्द फौज में भर्ती हो गये, उन सुभाषचन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा की राजधानी कटक के एक मध्यवर्गीय परिवार में 23 जनवरी, 1897 को हुआ था।
सुभाष के पिता रायबहादुर जानकीनाथ चाहते थे कि वह अंग्रेजी आचार-विचार और शिक्षा को अपनाएं। विदेश में जाकर पढ़ें तथा आई.सी.एस. बनकर अपने कुल का नाम रोशन करें, पर सुभाष की माता श्रीमती प्रभावती हिन्दुत्व और देश सेे प्रेम करने वाली महिला थीं। वे उसे 1857 के संग्राम तथा विवेकानन्द और जैसे महापुरुषों की कहानियां सुनाती थीं। इससे सुभाष के मन में भी देश के लिए कुछ करने की भावना प्रबल हो उठी।
सुभाष ने कटक और कोलकाता से विभिन्न परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। फिर पिताजी के आग्रह पर वे आई.सी.एस. की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैण्ड चले गये। अपनी योग्यता और परिश्रम से उन्होंने लिखित परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया, पर उनके मन में ब्रिटिश शासन की सेवा करने की इच्छा नहीं थी। वे अध्यापक या पत्रकार बनना चाहते थे। बंगाल के स्वतन्त्रता सेनानी देशबन्धु चितरञ्जन दास से उनका पत्र-व्यवहार होता रहता था। उनके आग्रह पर वे भारत आकर कांग्रेस में शामिल हो गये।
कांग्रेस में उन दिनों गांधी जी और नेहरू की तूती बोल रही थी। उनके निर्देश पर सुभाष बाबू ने अनेक आन्दोलनों में भाग लिया और 12 बार जेल-यात्रा की। 1938 में गुजरात के हरिपुरा नामक पर हुए राष्टï्रीय अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये, पर इसके बाद उनके गांधी जी से कुछ मतभेद उभर आये। गांधी जी चाहते थे कि प्रेम और अहिंसा से आजादी का आन्दोलन चलाया जाये, पर सुभाष बाबू उग्र साधनों को अपनाना चाहते थे। कांग्रेस के अधिकांश लोग बाबू का समर्थन करते थे। युवक वर्ग तो उनका दीवाना ही था।
सुभाष बाबू ने अगले साल मध्यप्रदेश के त्रिपुरी में हुए अधिवेशन में फिर से अध्यक्ष बनना चाहा, पर गांधी जी ने पट्टभि सीतारमैया को खड़ा कर दिया। सुभाष बाबू भारी बहुमत से चुनाव जीत गये। इससे गांधी जी के दिल को बहुत चोट लगी। आगे चलकर सुभाष बाबू ने भी कार्यक्रम हाथ में लेना चाहा, गांधी जी और नेहरू के गुट ने उसमें सहयोग नहीं दिया। इससे खिन्न होकर सुभाष बाबू ने अध्यक्ष पद के साथ कांग्रेस भी छोड़ दी।
 अब उन्होंने 'फारवर्ड ब्लाकÓ की स्थापना की। कुछ ही समय में कांग्रेस की चमक इसके आगे फीकी पड़ गयी। इस पर अंग्रेज शासन ने सुभाष बाबू को पहले जेल में और फिर नजरबन्द कर दिया, पर सुभाष बाबू वहां से निकल भागे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मण्डरा रहे थे। सुभाष बाबू ने अंग्रेजों के विरोधी देशों के सहयोग से भारत की स्वतन्त्रता का प्रयास किया। उन्होंने के विरोधी देशों के सहयोग से भारत की स्वतन्त्रता का प्रयास किया। उन्होंने आजाद हिन्द फौज के सेनापति पद से जय हिन्द, चलो दिल्ली तथा तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा का नारा दिया, पर दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।
भारत की स्वतन्त्रता पर नेताजी का प्रभाव
हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा।
नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देने वाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को 'सुभाषÓ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर-घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।
आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् 1946 के नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा। 
दुर्घटना और मृत्यु की खबर
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता मांगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिये। 23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21:00 बजे हुई थी। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने इस घटना की जांच करने के लिये 1956 और 1977 में दो बार आयोग नियुक्त किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये। 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। 18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य में जिला रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे पेश किये गये लेकिन इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चन्द्र बोस के होने का मामला राज्य सरकार तक गया। परन्तु राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप के योग्य न मानते हुए मामले की फाइल ही बन्द कर दी। 

 मकर संक्रान्ति उत्सव

भारत उत्सवधर्मी राष्टï्र है। मूल प्रकृति को आधार बना कर प्रत्येक दिन कोई न कोई व्रत, त्योहार पूरे वर्ष मनाये जाते हैं। कुछ उत्सव धार्मिक होते है कुछ प्राकृतिक कुछ ऐतिहासिक तथा कुछ राष्टï्रीय अस्मिता को पुष्टï करने वाले। यह हमारे शरीर, मन और जीवन में नई चेतना, उत्साह और उमंग भर देते हैं। ऐसा ही पर्व है मकर संक्रांति। पौष मास के इस दिन भगवान सूर्य नारायण धनु राशि में प्रवेश करते हैं तथा दक्षिणायन समाप्त हो कर उत्तरायण प्रारम्भ होता है। रात्रि का अहंकार धीरे-धीरे छोटी होने लगती है तथा प्रकाशमय दिन बड़ा होने लगता है। सूर्य की उष्मा प्रखर होने लगती है। हम अंधकार से प्रकाश की ओर, ज्ञान की ओर बढऩे लगते है। उत्तर भारत में इसे खिचड़ी, तमिलनाडु में पोंगल, कर्नाटक केरल तथा आन्ध्र तेलगांना में संक्रान्ति, कहीं-कहीं उत्तरायणी, हरियाणा, हिमांचल व पंजाब में माघी व लोहड़ी, असम में भोगली बिहु, कश्मीर घाटी में शिशुर सेंक्रान्त, पश्चिम बंगाल में पौष संक्रान्ति के नाम इस उत्सव को पुकारा व मनाया जाता है। नेपाल, बांग्लादेश, थाईलैण्ड, लाओस, म्यामार, कम्बोडिया और श्रीलंका में भी विभिन्न नामों से धूमधाम से मनाया जाता है। उत्तर प्रदेश में यह पर्व स्नान-दान का है। प्रयागराज संगम में माघमेला के रूप में खिचड़ी का पर्व स्नान-दान कार्य से अत्यन्त पुण्य का त्योहार सम्पन्न होता है। 14 दिसम्बर से 14 जनवरी तक का समय खरमास के नाम से जाना जाता है। विवाह व शुभ कार्य स्थगित रहते हैं जो खिचड़ी के दिन से प्रारम्भ हो जाते हैं। इस दिन जप तप दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। इस दिन उड़द, चावल, तिल, चिवड़ा, गाय, स्वर्ण, ऊनी वस्त्र तथा कम्बल का दान करना पुनीत माना जाता है। महाराष्टï्र में इस दिन सभी विवाहित महिलायें अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, जल व नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल गुड़ नमक हलवे के बांटने की प्रथा है।
 लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं ''तिल गुड़ ध्या- गोड बोलाÓÓ अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा बोलो। इस दिन खिचड़ी और गुड़तिल से बने वस्तुओं का प्रयोग करते हैं। पतंग उड़ाते हैं। सूर्य ऊर्जा का आनन्द लेते हैं। स्नान के बाद सूर्य उपासना करते हैं।
गंगासागर में इस दिन विशाल मेला लगता है मकर संक्रान्ति के दिन ही मां गंगा भगीरथ के पीछे पीछे चल कर कपिलमुनि के आश्रम से हो कर गंगासागर में जा कर मिली थीं। काशी में गंगा किनारे विशाल मेला और स्नान-दान का कार्य सम्पन्न होता है। यह पर्व प्रति वर्ष 14 जनवरी को ही पड़ता है। यह भी मान्यता है कि भगवान सूर्य इस दिन अपने पुत्र शनि से मिलने उसके घर जाते हैं। चूंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं अत: इस दिन को मकर संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये मकर संक्रान्ति के दिन का चयन किया था। शास्त्रों के अनुसार दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात नाकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को दिन अर्थात सकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है।
विश्व का असरकारी सबसे बड़ा संगठन राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ वर्षभर में कुल छ: उत्सव मनाता है उसमें से दूसरा उत्सव मकर संक्रान्ति है। हिन्दू समाज को एकात्म राष्टï्रीयता की भावना परस्पर आत्मीयता के आधार पर जाग्रत कर संघ इस दिवस को सामाजिक समरसता के रूप में मनाता है। सेवा बस्तियों में सम्पूर्ण समाज के साथ खिचड़ी भोज का कार्यक्रम रखा जाता है। समाज को स्नेहबद्ध एकात्म रखने का संदेश यह पर्व देता है। इस वर्ष अयोध्या में बन रहे राममंदिर के लिए समाज से धन एकत्र करने का कार्य भी इसी दिन से प्रारम्भ हो रहा है। नाथ सम्प्रदाय के गोरखनाथ मठ गोरखपुर में मकर संक्रान्ति के अवसर पर एक माह का विशाल और भव्य मेला लगता है जिसमें खिचड़ी चढ़ाया जाता है। नाथ सम्प्रादय की मान्यता के अनुसार सच्चिदानन्द शिव के साक्षात स्वरूप श्री गोरखनाथ जी सतयुग में पेशावर, त्रेतायुग में गोरखपुर, द्वापर में हरमुख (द्वारका) तथा कलयुग में गोरावमेधी (सौराष्टï्र) में अविर्भूत हुये। गोरखनाथ के अनुयाई जोगी समाज से होते हैं। हठयोग में ये निष्णान्त होते हैं। त्रेतायुग से जलाई गई अखण्ड ज्योति यहां प्रज्जवलित है। खिचड़ी मेले में यहां भारी भीड़ दर्शन करने आती है। यहीं के महन्त योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का उत्तरदायित्व निभा रहे हैं।

कैसे मनाएं संक्रांति
स्न इस दिन प्रात:काल उबटन आदि लगाकर तीर्थ के जल से मिश्रित जल से स्नान करें। 
स्न यदि तीर्थ का जल उपलब्ध न हो तो दूध, दही से स्नान करें। 
स्न तीर्थ स्थान या पवित्र नदियों में स्नान करने का महत्व अधिक है। 
स्न स्नान के उपरांत दान, ध्यान कर्म तथा अपने आराध्य देव की आराधना करें। 
स्न पुण्यकाल में दांत मांजना, कठोर बोलना, फसल तथा वृक्ष का काटना, गाय, भैंस का दूध निकालना व मैथुन काम विषयक कार्य कदापि नहीं करना चाहिए। 
स्न इस दिन पतंगें उड़ाए जाने का विशेष महत्व है।

पुण्य पर्व है संक्रांति
उत्तरायन देवताओं का आसन है। यह पुण्य पर्व है। इस पर्व से शुभ कार्यों की शुरुआत होती है। उत्तरायन में मृत्यु होने से मोक्ष प्राप्ति की संभावना रहती है। पुत्र की राशि में पिता का प्रवेश पुण्यवद्र्धक होने के साथ-साथ पापों का विनाशक है। सूर्य पूर्व दिशा से उदित होकर 6 महीने दक्षिण दिशा की ओर से तथा 6 महीने उत्तर दिशा की ओर से होकर पश्चिम दिशा में अस्त होता है।  उत्तरायन का समय देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन का समय देवताओं की रात्रि होती है, वैदिक काल में उत्तरायन को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। मकर संक्रांति के बाद माघ मास में उत्तरायन में सभी शुभ कार्य किए जाते हैं।

 प्रस्तुति : अशोक सिन्हा

 चौरी-चौरा जनविद्रोह के १०० वर्ष

उत्तर प्रदेश के पूर्वोत्तर में गोरखपुर शहर से देवरिया रोड पर 27 कि.मी. की दूरी पर चौरी-चौरा नामक एक छोटा सा कस्बा है। यहां के दो गांव चौरी और चौरा को मिला कर 1885 में रेलवे के एक ट्रैफिक मैनेजर ने चौरी-चौरा नाम दिया था जो रेलवे स्टेशन बना। 1857 की क्रान्ति के बाद अंग्रेजी शासन ने यहां एक तृतीय श्रेणी का थाना स्थापित किया था। 8 फरवरी 1921 को महात्मा गांधी पहली बार गोरखपुर आये थे। नाथ सम्प्रदाय का यहाँ एक प्रसिद्ध मठ स्थापित था। गांधी जी के आने से स्वतन्त्रता आन्दोलन तेज हुआ। इसके पूर्व 4 सितम्बर 1920 को भारतीय राष्टï्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन का प्रस्ताव पारित हो चुका था। 
गांधी के गोरखपुर आगमन से इस क्षेत्र में असहयोग आन्दोलन से लोग तेजी से जुडऩे लगे थे। बड़ी संख्या में भारतवासी आयातित कपड़ों को छोड़ कर खादी के वस्त्र पहनने लगे। क्षेत्र की सरकारी शराब की दुकानों का बहिष्कार कर दिया गया था। गांधी टोपी पहनने की होड़ लग गई तब गोरखपुर देवरिया की कच्ची रोड पर स्थित परगना दक्षिण हवेली के टप्पा केतउली का गांव था चौरी-चौरा। गाधी के गोरखपुर आने के लगभग एक वर्ष बाद आन्दोलन के क्रम में एक फरवरी 1922 को चौरी-चौरा से सटे मुण्डेरवा बाजार में शान्तिपूर्व बहिष्कार आन्दोलन चल रहा था। सभा आयोजित थी। भारत में असहयोग आन्दोलन से उत्पन्न परिस्थिति अंग्रेजी सरकार को भयभीत करने लगी थी। ब्रिटिश सरकार ने आन्दोलन से उत्पन्न स्थिति को संभालने के लिए 'प्रिन्स आफ वेल्सÓ को भारत भेजा। आन्दोलन ने गति पकड़ लिया था। केवल गोरखपुर नगर से करीब 15 हजार स्वयंसेवक आन्दोंलन में सूचीबद्ध हो चुके थे। चौरी-चौरा के आस-पास भी आयेदिन मशाल जुलूस, क्रान्ति सभाएं आयोजित हो रही थी।
5 जनवरी, 1922 को विदेशी वस्त्रों के बड़े बाजार चौरी-चौरा (गोरखपुर) में सत्याग्रह करने के लिए चार हजार स्वयंसेवक इकट्ठे हो गये। थाने के सामने से जब शांत जुलूस गुजर रहा था, तो पुलिस बीच के हिस्से पर टूट पड़ी। पहले लाठियों से पिटाई की फिर गोलियां चलाने लगी। स्वयंसेवक शान से डटे रहे। निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसती रही। स्वयंसेवकों का साहस नहीं टूटा। कुछ स्वयंसेवकों ने देखा कि कई स्वयंसेवकों की टोपियां जमीन पर गिर गई है और पुलिस अपने पैरों से उस कुचल रही है। 
पुलिस की गोलियां खत्म हो गई तो उन्होंने बंदूक के कुंदों से मारना और संगीनों से चुभोना शुरू किया। तभी एक ललकार उठी, ''हम इस तरह कब तक डरते रहेंगे।ÓÓ स्वयंसेवक आक्रोश में भर गए। पुलिस के सिपाहियों ने भागकर थाने में शरण ली और किवाड़ बंद कर लिये। कु्रद्ध भीड़ ने मिट्टी का तेल डालकर थाने को फूंक दिया। उसमें बंद 21 सिपाही और एक थानेदार गुलेश्वर सिंह जल मरे। स्वयंसेवकों  में 23 शहीद हुए और सैकड़ों घायल हो गये।
गांधीजी चौरी-चौरा के पूर्व मद्रास में हुई एक हिंसात्मक घटना से पहले ही खिन्न थे। इस कांड से उनके अहिंसावाद पर तीव्र आघात पहुंचा। उन्होंने 12 फरवरी 1922 को बारडोली (गुजरात) में कांग्रेस कार्य समिति की एक बैठक आमंत्रित की जिसमें चौरी-चौरा घटना के आधार पर आंदोलन स्थगित कर रचनात्मक कार्यक्रम पर बल देने का निर्णय लिया। इस प्रकार असहयोग आंदोलन का अंत हो गया। गांधीजी के निर्णय का युवा क्रांतिकारियों ने तीव्र विरोध किया। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह इसी घटना की देन है। युवा वर्ग क्रांति की राह पर चलने लगे। 
घटना की पूरी छानबीन के बाद गोरखपुर के सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस ने 7 फरवरी को चौरी-चौरा घटना की सूचना डीआईजी सीआईडी यूपी को भेजी। उस समय के समाचार पत्र लीडर में 7 फरवरी की घटना के बाद सरकार द्वारा की गई कार्यवाही के विषय में सूचना प्रसारित की थी। डरी अंग्रेजी हुकूमत के गृह विभाग दिल्ली ने आदेश जारी कर प्रशासनिक अफसरों को हवाई फायरिंग पर तत्काल रोक लगाने को कहा था। अंग्रेजी सरकार इस घटना से डर गई थी। 
चौरी-चौरा विद्रोह का स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जो स्थान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। यद्पि चौरा नगर बन चुका है जबकि चौरी अभी गांव है। 
तहसील भी चौरी-चौरा नाम से है। सन् 2012 से विधानसभा सीट भी मिल गई। सब कुछ टुकड़ों में हुआ। मुंडेरवा बाजार नगर पंचायत में सम्मिलित हो चुका चौरा अब गोरखपुर विकास प्राधिकरण का हिस्सा है। गांव को धरोहर के रूप में विकसित किया जा सकता है। आजादी वाले दिन स्टेशन पर तिरंगा फहराया गया था।
100 साल में भी नहीं मिली चौरी-चौरा को उसकी पहचान। 
चौरी-चौरा जन विद्रोह के मुकदमे में 172 लोगों को सेशन कोर्ट से फांसी की सजा सुनाई गई थी। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने राय दिया कि यदि मालवीय जी मुकदमा लड़े तो काफी लोगों की जान बच सकती है। पंडित मदन मोहन मालवीय को वकालत छोड़े काफी समय बीत चुका था परंतु उन्होंने मुकदमा लड़ा और और जैसा कि उन्हें सिल्वर टंग ओरेटर कहा जाता था- उन्होंने अपने तर्कों से 153 आरोपियों को छुड़ा लिया। केवल 19 लोगों को ही फांसी हो सकी। अंग्रेज जज मालवीय जी के तर्क से इतना प्रभावित हुआ था कि सजा सुनाने के बाद अपनी कुर्सी छोड़कर अपना हैट उतारकर तीन बार झुक कर मालवीय जी का अभिवादन किया और आरोपियों से कहा कि यदि मालवीय न होते तो आप न छूटते।
वर्तमान मोदी सरकार ने इस संग्राम को पूरा सम्मान देते हुए शताब्दी वर्ष पर साल भर कार्यक्रम चलाने का निर्णय लिया है। वह इसे गर्व का पर्व मानते  हैं। मुख्यमंत्री योगी जी ने 4 फरवरी 2021 को बड़ा कार्यक्रम मना कर प्रधानमंत्री मोदी से वर्चुअल कार्यक्रम में उद्बोधन कराया। 
इस अवसर पर 25 रुपये का टिकट भी जारी हुआ है। कार्यक्रम का लोगो भी जारी किया गया। घटना में शहीद 17 लोगों के परिजनों सहित 102 परिवारों को सम्मानित किया गया। परिजनों ने कहा कि अब पूरा देश जान सकेगा बलिदानियों को। योगी ने इस अवसर पर कहा कि देश के स्वतंत्रता आंदोलन को चौरी-चौरा जन संघर्ष ने एक नई दिशा दी। द्य
- अशोक कुमार सिन्हा

 सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत उदय

अशोक कुमार सिन्हा
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम प्रधान संस्कृति है। सम्पूर्ण भारत खण्ड की सांस्कृतिक प्रथाओं, भाषाओं, रीति-रिवाजों आदि में विविधता में भी एकता का दर्शन एक महान विशेषता मानी जाती है। 'सर्व खल्वमिदं ब्रह्म' अलग-अलग वस्तुओं में निरन्तरता और परस्पर अवलम्बिता देखना, सम्बद्धता देखना और तद्नुरूप विश्वास रख कर आचरण करना भारत का अनूठा विश्वास है। देश काल में रहते हुये देशकाल का अतिक्रमण करते रहने का सामथ्र्य भी हमारी सांस्कृतिक विशेषता है। जहां रहे, जब रहें, उनके साथ संगति बिठा कर रहें, उसकी अपेक्षाओं को पूरा करें, पर उस देश काल के आगे की सम्भावनाओं का भी ध्यान रखे और जहां कहीं असंगति या कुछ असंतुलन आ रहा है, वहां देशकाल से आगे चले जाने का साहस करें, यह बोधिसत्व दिखाना भारतीय संस्कृति है। चित्तवृत्ति की गम्भीर-से-गम्भीरतर साधना के बिना संस्कृति का उच्चतर प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। भारतीय संस्कृति किसी न किसी उच्चतर जीवन उद्देश्य या मूल्य से प्रेरित है। अपने लिये जीना सार्थक जीना नहीं है। गतिशीलता ही संस्कृति है। ठहराव इसी संस्कृति के अनुसार चलने पर बनी हुई कुछ राहें हैं, आचरण के बने हुये कुछ सांचे हैं। संस्कृति मानव चित्त की खेती है। खेत की उर्वरता को बार-बार सुनिश्चित करने के लिये जोता जाता है, नीचे की मिट्टी ऊपर कर बीज रोपित किये जाते हैं। इस प्रक्रिया में नये किसलय निकलते है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति को 'नित नूतन-चिर पुरातन' कहा जाता है।
भारत की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल, प्राचीनतम, सुविकसित सभ्यता, वैदिक युग की प्राचीनतम विरासत, एवं विश्व को मनवता का शिक्षा व संदेश देने की क्षमता विद्यमान है। भारत कई धार्मिक प्रणालियों और पंथों का जनक है, जिससे पूरा विश्व प्रभावित हुआ है। यहां कर्म की प्रधानता है। संस्कृति की प्राचीनता के साथ अमरता है जो कई क्रूर थपेड़ो को खाती हुई आज भी जीवित है। जगतगुरु होना इसकी नियति है। सर्वांगीणता, विशालता, उदारता, प्रेम और सहिष्णुता इसकी संगठित शक्ति है।
समय की गति तथा विश्व की समयानुकूल बदलती संरचना साम्राज्यवाद, साम्यवाद, समाजवाद, भौतिक क्रान्ति तथा 1200 वर्षों की क्रूर, गुलामी ने इस देश की संस्कृति, सभ्यता, मानवबिन्दुओं और मनोबल को क्रूरतापूर्वक दबाया, कुचला और नष्टï करने का बहुविध प्रयास किया। इसमें भारतीय संस्कृति धूमिल अवश्य हुई परन्तु काल उसे मिटा नही सका। भारतीय दर्शन, धर्म, समाज, परिवार, परम्परा एवं रीति, वस्त्र विन्यास, साहित्य, इतिहास, महाकाव्य, संगीत, नृत्य, नाटक, रंगमंच, चित्रकारी मूर्तिकला, वास्तुकला, मनोरंजन और खेल, सिनेमा, रेडियो ओर मीडिया सब स्मृति श्रुति, स्मृति आचरण व विचार में अक्षुण रहे। वर्तमान युग को हम भारतीय संस्कृति के पुनरोदय काल के अन्तर्गत विभाजित कर सकते हैं। स्वतन्त्रता के बाद भारत ने बहुआयामी सामाजिक और आर्थिक प्रगति की है। कृषि में भारत आत्मनिर्भर बना है और औद्योगिक क्षेत्र में इसकी महान उपलब्धियों ने दुनिया का एक अग्रणी देश बना दिया है। भारत में सांस्कृतिक राष्टवाद की अवधारणा बलवती होने लगी है तथा भारत की छवि विश्व में तेजी से बदली है। सिन्धुघाटी सभ्यता, वैदिक सभ्यता, स्वर्णयुग, बौद्धयुग, सिकन्दर का आक्रमण, गुप्त साम्राज्य, हर्षवद्र्धन, विक्रमादित्य, मौर्य साम्राज्य आदि के बाद भारतीय संस्कृति के पुनरोदय का वर्तमान काल मील के पत्थर सिद्ध हो रहे हैं। आज भी भारत राम-कृष्ण का देश कहा जाता है। हिन्दू शब्द पूरे विश्व में भारत का पर्याय माना जाता है। आर्यावर्त, भारत खण्डे, जम्बू द्वीपे यह हमारा संकल्पीय पहचान है। धीरे-धीरे हम जिसे विस्मृत करते जा रहे थे अब पुन: उसका पुनरोदय होने लगा है। अपनी भाषा, अपनी पहचान तथा अपनी संस्कृति पर गर्व का भाव उदय होने लगा है।
भारतीय मेधाशक्ति ने सम्पूर्ण विश्व में चमत्कार कर विज्ञान प्रौद्योगिकी, धर्म, संस्कृति और सभ्यता में भारत का मस्तक ऊंचा किया है। स्वामी विवेकानन्द ने जो विश्व का ध्यान इस प्राचीनतम संस्कृति की ओर खींचा था, अब उस ताप को विश्व अनुभव करने लगा है। यहां के साधू, संतों, योगियों ऋषियों, संन्यासियों सहित यायावर सांस्कृतिक महापुरुषों ने विश्व के समस्त देशों में भ्रमण कर भारतीय ज्ञान-विज्ञान, आध्यात्म योग और विश्व बन्धुत्व का संदेश दिया और दे रहे है जिसे अब विश्व स्वीकार करने लगा है।
विश्व के 171 देशों ने संयुक्त राष्ट संघ में विश्व योग दिवस के पक्ष में मत दे कर योग की महता स्वीकार की। पूरा विश्व अब योग विज्ञान को मानवता के लिये लाभकारी मानने लगा है जिसमें कई इस्लामिक राष्ट्र भी सम्मिलित थे। यह भारतीय संस्कृति का पुनरोदय है। ''सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया' का भारतीय उदघोष अब भारत के बाहर सम्पूर्ण विश्व में फैल रहा है। अब एकजुट सांस्कृतिक भारत की गरिमा का प्रमाण भारतीय नागरिकों को एयरपोर्ट पर दिखाई देता है जब उनको सम्मानपूर्वक दूसरे देशों में प्रवेश मिलता है। यहां के राजनैतिक नेतृत्व का लोहा पूरा विश्व मान रहा है। सम्पूर्ण विश्व में कोरोना महामारी के समय वैक्सीन की जब महती आवश्यकता थी तो भारत संकटमोचन बन कर सबसे पहले टीका विकसित कर पूरे विश्व में भेजने का सम्मान प्राप्त कर चुका है। जीवन रक्षक क्लोरोहाइड्रोक्वीन दवा को भारत ने ही सर्वत्र मांग के अनुसार भेजा जिससे भारत के ''सर्वे संतु निरामया'' के उदघोष की सार्थकता सिद्ध हुई।
विगत 490 वर्षों से अटका रामजन्म भूमि का विवाद अन्तत: सम्पूर्ण विश्व के समक्ष शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया। मन्दिर निर्माण प्रारम्भ हुआ और जिस हनक और गरिमा से भारत के प्रधानमंत्री तथा राष्ट्र स्वयंसेवक संघ के सर संघ चालक मोहन भागवत द्वारा 5 अगस्त 2020 को उसका भूमि पूजन हुआ, वह राम राज्य के शंखनाद के रूप में दुनिया ने देखा। भारतीय संस्कृति के पुनरोदय का यह काल है। 21वीं सदी भारतीय संस्कृति की सदी के रूप में स्थापित हो रही है। विश्व को यदि शान्ति और सुख चाहिये तो उसे भारत की संस्कृति ओर ही वापस लौटना होगा।
भारत ने दुनिया के हृदय में स्थान बनान है। साम्राज्यवादियों और जिहादियों की भांति किसी की भी भूमि नही हड़पी है। परमाणु शक्ति सम्पन्न देश होते हुये भी अपनी संस्कृति की गरिमा पर भारत आज भी दृढ़ है। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 व 35ए को समाप्त कर विश्व को बता दिया गया है कि भारत किसी के आगे झुकने वाला नही है। खीर भवानी मन्दिर हो या शंकराचार्य मन्दिर, कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। यह ऋषि कश्यप का बसाया क्षेत्र है। भारत आतंकवाद का समूल नाश करने पर लगा हुआ है। भारतीय संस्कृति शान्ति और सुरक्षा के साथ रहने और जीवन यापन करने का संदेश देती है।
'शस्त्रेण रक्षिताम् राष्ट्र' राष्ट्र की रक्षा शस्त्र से होती है- इस क्षेत्र में भारतीय सैन्य बल को मजबूत कर भारत अस्त्र-शस्त्रों के मामले में तेजी से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। चीन और पाकिस्तान जैसे विश्व के अन्य देश भी अब भारत को और भारतीय सांस्कृतिक पहचान को समझने लगे है। इतिहास का पुर्नलेखन हो रहा है। भारत का गौरव पूर्ण इतिहास विश्व के समक्ष रखा जा रहा है। वामपंथियों के द्वारा शिक्षा और इतिहास के साथ जो क्षद्म खेल विगत 70 वर्षों में खेला गया था, अब भारत नई शिक्षा नीति और इतिहास संकलन व पुर्नलेखन के माध्यम से उसे ठीक करने में लगा है। मथुरा-काशी के मन्दिरों के पुर्नउद्धार की मांग जोर पकड़ रही है। राष्ट्र विरोधी शक्तियाँ हतोत्साहित हो रही है। भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में सबल बन कर विश्व को अपना विराट रूप दिखाने की ओर अग्रसर है। राष्ट्ररीय शक्तियां जाति, पंथ, मजहब की सीमा तोउ़ कर एक होने का प्रयास कर रही है। रामसेतु और राम को काल्पनिक मानने वालों का मनोबल टूट रहा है और वे सांस्कृतिक राष्ट्र की शक्ति के आगे नतमस्तक हो रही हैं।
राष्ट्ररमन्दिर के रूप में राममन्दिर का अयोध्या में जब निर्माण प्रारम्भ हुआ तो पूरे विश्व से धनसंग्रह अभियान में गरीब-पिछड़े-अगड़े सभी ने योगदान दिया। काकोरी और सुहेलदेव के इतिहास प्रकाशित होने लगे। लॉकडाउन काल में स्वच्छता-सफाई और एक दूसरे की परस्पर सहायता का जो भाव जगा उसने जाति-वर्ण को बहुत पीछे छोड़ दिया। भारत एक है और वह किसी संकट का सामना करने में सक्षम है, यह स्वाभिमान जगा है। स्वाभिमानी राष्टï्र के रूप में भारत की पहचान बनी है। यही भारत का सांस्कृतिक पुनरोदय है।
* लेखक विश्व संवाद केन्द्र अवध के प्रमुख तथा उ.प्र. के पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं।
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 उत्तर प्रदेश की अस्मिता


- अशोक कुमार सिन्हा

उत्तर प्रदेश की अस्मिता का अर्थ है उत्तर प्रदेश की पहचान और उसके प्रतिष्ठित होने की अवस्था। उत्तर प्रदेश भारत की हृदय स्थली है। यह मात्र भौगोलिक इकाई नहीं एक विचारधारा, एक जीवंत जीवन शैली, एक चिंतन परंपरा, उदांत भावना, संस्कृतियों का संगम, विराट अनुभूति और वैचारिक ऊर्जा का अक्षय स्रोत है। उत्तर प्रदेश पहचाना जाता है अयोध्या के प्रभु श्रीराम, मथुरा के श्री कृष्ण की जन्मस्थली, भगवान बुद्ध के उपदेश, महापरिनिर्वाण, तपस्थली से। भगवान महावीर की कर्मस्थली, संत तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास, रामानंद, संत रविदास, मलिक मोहम्मद जायसी की जन्मस्थली यही प्रदेश है। वैदिक काल में यह भू-भाग ब्रह्मदेव व मध्य प्रदेश विख्यात था। बाद में आगरा और अवध सूबों को मिलाकर संयुक्त प्रांत बना जिसकी राजधानी प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) बनाई गई थी। वर्ष 1920 में राजधानी लखनऊ शहर को बनाया गया। 26 जनवरी 1950 को यह उत्तर प्रदेश के नाम से विख्यात हुआ। वर्तमान में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या लगभग 23 करोड़ हो गई है। वर्तमान क्षेत्रफल 2,40,928 वर्ग किलोमीटर है जिसको मोक्षदायिनी गंगा, यमुना सहित रामगंगा, राप्ती, गोमती, घाघरा (सरयू), बेतवा और केन नदियां सींचती है। काशी, मथुरा, अयोध्या, प्रयागराज, गोरक्षनाथ का गोरखपुर, क्रांति तीर्थ मेरठ, नोएडा, आगरा, कानपुर, सहारनपुर, बलिया जैसे नगरों से सुशोभित यह प्रदेश अपने आप में अति प्राचीनता समेटे हुए है। सात मोक्षदायिनी नगरों में काशी मथुरा और अयोध्या उत्तर प्रदेश में ही हैं।

          अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका पुरी।
           द्वारावती, चैव सप्तैते मुक्ति मुक्तिदा:।।

              प्रभु राम की जन्मस्थली पर अयोध्या में विश्व प्रसिद्ध राम मंदिर का निर्माण हो रहा है। बुद्ध के समय में कौशल की राजधानी वैसे तो श्रावस्ती थी किन्तु बाद में यहां से हटा कर साकेत अर्थात अयोध्या में स्थापित कर ली गई थी। इसकी गणना बुद्धकालीन महानगरों में की गई है। प्राचीन ग्रंथों में वर्णित प्रयागराज हिन्दुओं की सप्तपुरियों मे से एक है। यह त्रिवेणी के संगम पर ऋषियों की प्रमुख यज्ञ भूमि है।

               संगम में स्नान कर लेने पर पुनर्जन्म नही होता। यहां से 45 किमी पश्चिम में यमुना के तट पर कौशाम्बी जो पूर्व में हस्तिनापुर नरेश निचक्षु की राजधानी रही है, बसा है। वरुण और अस्सी नदियों के मध्य अति प्राचीन काल में दिवोदासु द्वारा उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर बसी काशी विश्व की प्राचीनतम जीवित नगरों में से एक है जो काशी विश्वनाथ मंदिर, सारनाथ, बनारसी रेशमी साड़ियों, साहित्य , दर्शन, व ज्योतिष के लिये प्रसिद्ध है। मथुरा भगवान कृष्ण की जन्मस्थली, यमुना तट, शूरसेन राजाओं की राजधानी, वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र, मथुरा कला का केंद्र, उत्तरापथ के महापथों का महत्वपूर्ण मिलन बिन्दु है। भगवान राम के पुत्र कुश द्वारा बसायी नगरी कुशीनगर गोरखपुर से 72 किमी पूर्व बिहार से सटा गौतम बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थली है। यहा मल्ल गणतन्त्रों का शासन केन्द्र था। उत्तर प्रदेश का आगरा विश्व प्रसिद्ध ताज महल के रूप में विख्यात है। यह भी उत्तर प्रदेश की पहचान है। लक्ष्मण पुरी के पूर्व नाम से विख्यात लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी एवं उत्तर भारत के सबसे सुन्दर व शान्त नगर के रूप में विख्यात है। सूत-शौनक आदि अट्ठासी हजार ऋषियों की तपोभूमि नैमिषारण्य सीतापुर जनपद में है।

                  उत्तर प्रदेश की एक पहचान यहां का हिन्दी साहित्यकार भी है। कबीर, जायसी, सूर, तुलसी से ले कर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मुंशी प्रेमचंद, सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, राहुल सांस्कृत्यायन, अमृतलाल नागर है उत्तर प्रदेश की अस्मिता। यह प्रदेश देश को सर्वाधिक प्रधानमंत्री देने में भी अपनी पहचान रखता है। यह प्रदेश राज ऋषियों का प्रदेश भी है। महर्षि व्यास भी उत्तर प्रदेश की पहचान है। काशी के संस्कृत विद्वान योग, ज्योतिष और कर्मकाण्ड में विख्यात है। भारत कला भवन (काशी), रामकथा संग्रहालय (अयोध्या) राजकीय संग्रहालय मथुरा, झांसी, रामगढ़ ताल गोरखपुर, सुल्तानपुर, कैसरबाग (लखनऊ), कुशीनगर, कन्नौज आदि में असर प्रदेश की अस्मिता का प्रमाण प्रत्यक्ष मिल जायेगा।

                  शास्त्रीय संगीत एवं संगीत घरानों के लिये भी उत्तर प्रदेश विख्यात है। यहां की संगीत परम्परा न केवल प्राचीनतम है बल्कि सबसे अधिक समृद्ध रही है। आगरा, रामपुर, बनारस, लखनऊ (अवध), संगीत को आश्रय देने वाली प्रमुख रियासतें थी। पं. विष्णु नारायण भारतखंडे का प्रयास उत्तर प्रदेश में ही फलीभूत हुआ। पं. रविशंकर का सितार वादन, पागलदास पखावजी, स्वामी हरिदास एवं अष्टाचार्य गिरिजा देवी, नौशाद, सम्भूनाथ मिश्र, गुदाई महाराज, उदयशंकर, फैय्याज खाँ, बेगम अख्तर, बिरजू महाराज, लच्छू महाराज, शंभू महाराज आदि उत्तर प्रदेश के अस्मिता के प्रतीक हैं। रामनगर (काशी) की विश्व प्रसिद्ध रामलीला संयुक्त राष्ट्र संघ के हेरिटेज मेला में सम्मिलित हो गई हैं। यहां की लोक नाट्य उत्तर प्रदेश की पहचान बन गये हैं।

                  बनारस की हस्तशिल्प से निर्मित साड़ी, लखनऊ का चिकन दस्तकारी, जरदोजी, जरी आदि उत्तर प्रदेश की पहचान बन चुकी है। प्रयाग का कुम्भ, चित्रकूट का रामायण मेला, काशी का सावन मेला विश्व प्रसिद्ध हैं। उत्तर प्रदेश की अवधी, ब्रज, बुन्देली, भोजपुरी, कन्नौज और कौरवी बोलियां यहां की अस्मिता है। आगरा, रामनगर (काशी), झांसी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) कालिंजर, चुनार, विजयगढ़, अगोरी गढ़ (मिर्जापुर) कंस मिला (मथुरा) के किले प्राचीन दुर्ग है उत्तर प्रदेश की पहचान। वृन्दाबन व बरसाने की होली विश्व में अपनी पहचान रखते हैं।

                  1857 की स्वाधीनता संग्राम में उत्तर प्रदेश ने अपनी अलग पहचान बनाई। उत्तर प्रदेश में क्रान्ति आन्दोलन और अमर शहीदों की पूरी श्रृंखला विद्यमान है जो उत्तर प्रदेश की पहचान बन चुके हैं। अमर बलिदानी मंगल पाण्डेय, बेगम हजरत महल, राजेन्द्र लाहिड़ी, नाना साहब की प्रमुख सहायिका अजीजन, राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, दुर्गा भाभी, रानी लक्ष्मी बाई, झलकारी बाई, उदा देवी, महाराज बिजली पासी, रामप्रसाद बिस्मिल रोशन सिंह, महाराजा चेतसिंह (काशीराज), अजीमुल्ला खां, चिन्तू पाण्डेय, तात्या टोपे, राजा बेनी माधव, देवी बक्श सिंह, अशफाक उल्ला खाँ आदि ऐसे नाम हे जो उत्तर प्रदेश में हुए, जन्मे परन्तु विश्व में अपना नाम गर्व से ऊंचा कर गये। यहां का काकोरी काण्ड, मेरठ छावनी की क्रांति, गोरखपुर का चौरी-चौरा जनविद्रोह, बनारस षड्यंत्र, मैनपुरी षड्यंत्र, स्वतन्त्रता संग्राम के केन्द्र बिन्दु रहे। लखनऊ की रेजीडेंसी, छतर मंजिल, कैसरबाग, क्रांति की निशानियां है। कवि पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी, श्याम लाल गुप्त पार्षद हरिकृष्ण प्रेमी, सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, गया प्रसाद शुक्ल सनेही सोहन लाल द्विवेदी, कवि क्रान्तिकारी वचनेश त्रिपाठी है उत्तर प्रदेश की अस्मिता।

                 शहीद शिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी जिसके टक्कर का जीवन क्रांतिकारी पत्रकार इस धरती पर दूसरा पैदा नही हुआ। क्रान्तिकारी पत्र-पत्रिकाओं में स्वराज, कर्मवीर दैनिक आज, तरुण भारत, प्रताप, वर्तमान, अभ्युदय, रणभेरी, दैनिक स्वदेश, राष्ट्र धर्म, वीर अर्जुन, पांचजन्य, विकासवीर अर्जुन, कागजी देह हो कर भी वैचारिक क्षेत्र में स्वतंत्रता के अजेय योद्धावीर ही तो थे।

                    श्रमिक आन्दोलन में उत्तर प्रदेश अपनी अलग पहचान रखता है। यहां का कानपुर नगर प्रमुख औद्योगिक नगर है। जुग्गीलाल कमलापति, सिंघानिया, मंगतराम  जैपुरिया, रामरतन गुप्त, हरिशंकर वागला, सर जे.पी. श्रीवास्तव, ब्रिटिश इंडिया कार्पोरेशन, एल्गिन, अर्थटन वेस्ट, लाल इमली, जे.के. जूट जे.के स्टील, मिर्जा टेनरी आदि कारखाने नगर की पहचान थे।

                           उर्दू साहित्य के मीर तकी मीर, मिर्जा मोहम्मद रफी 'सौदा' रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, पं. बृजमोहन चकबस्त, ख्वाजा हैदर अली आतिश, नाखिस लखनवी, मीर अनीस, मजीर अकबराबादी, मुंशी प्रेमचंद, अस्मत चुगताई, अकबर इलाहाबादी, असगर गोंडवी, जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी, मजरूह सुल्तानपुरी, सरदार जाफरी, मजाज, कैफ़ी आज़मी, शहरयार आदि ऐसे नाम है जो उर्दू जबान की अस्मिता हैं।

                                     गोरखपुर का गोरक्षपीठ नाथ समुदाय का प्रसिद्ध पीठ है। देवी पाटन इसका उप केन्द्र है। यहाँ की हठयोग परंपरा प्रसिद्ध है। बाबा गोरखनाथ के भक्त, भारत, नेपाल और दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों में फैले हुये है। राम जन्म भूमि आन्दोलन में इस मठ का बड़ा योगदान है। यहां के वर्तमान महंत योगी आदित्यनाथ भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में उत्तर प्रदेश की पहचान बन गये हैं। यहां का एक सन्यासी कैसे राजपाट का संचालन करता है यह विश्व का ध्यान खींच रहा है। विकसित होते नगर, मेट्रो, कानून व्यवस्था, फिल्म सिटी, सड़कें, बढ़ते उद्योग, एक जिला -एक उत्पाद, यह सब भी प्रदेश की पहचान बनते जा रहे है। राजनीति की भाषा में इस योगी युग के रूप में पहचाना जायेगा।
                                              लेखक विश्व संवाद केंद्र लखनऊ के प्रमुख तथा पूर्व वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी है