Tuesday 26 December 2017

हिन्दू नववर्ष चेतना की पुनर्प्रतिष्ठा

*अशोक सिन्हा
                  सुशिक्षित एवं समझदार भारतीयों के बीच आज जीवन के ऊँचे स्तर तथा वैज्ञानिक रहन सहन की मांग बढ़ती जा रही है |किन्तु इन लोगों में भी ऊँची कोटि के  अपनी प्राचीन सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के बोध की सर्जनात्मक मांग और उसके लिए ब्यवस्थित प्रयत्न की प्रवृत्ति नहीं पायी जाती| शिक्षित लोगों में नैतिकता और अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासतों का आग्रह घट रहा है | व्यक्ति अधिक से अधिक अवसरवादी ,भौतिकवादी व् धर्मनिरपेक्ष बनता जा रहा है | आज समय आ गया है कि भारत के विद्द्वान फिर से भारतीय संस्कृति और ज्ञान को पुनर्प्रतिष्ठापित करें | देश की स्वतंत्रतता के 200 वर्ष पहले अंग्रेजी शासनकाल के दौरान जिस तरह भारतीय संस्कृति को असभ्य,बर्बर, आदिम और मृतप्राय  बताने का सफल कुचक्र चला और जिससे आज भी बामपंथी चिन्तक प्रभावित हैं  उसे दूर करने का वातावरण अब धीरे धीरे बनने लगा है | सन 1817 में ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश सरकार द्वारा एक यह शाजिस रची गयी की भारत के बारे में ब्रिटिश संसद को यह आभास कराया जाय कि कंपनी भारत में अच्छा शासन दे रही है परन्तु कंपनी के लाभांश का अधिकांश भाग असभ्य,बर्बर,और आदिम भारतीय  समाज को शासित करने में व्यय हो जा रहा है | इस शाजिस के तहत कुल छ खण्डों में एक किताब लिखवाई गयी जिसका नाम था द हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया जिसके लेखक  जेम्स मिल थे |ये सज्जन कभी भारत नहीं आये न ही इनको किसी भी भारतीय भाषा का ज्ञान था|इन्हों ने न तो किसी भारतीय विद्वान से या देसी विदेशी भारतीय जानकार से बात की न ही अनेकों प्रयास के बाद भी इंग्लैंड में इन्हें  पादरी तक की नौकरी मिली थी | ये ब्रिटिश संसद को अपनी पुस्तक के माध्यम से भारत के बारे में नकारात्मक तथ्य देते रहे फलतः कंपनी ने इन्हें 800 पौंड की ऊँची ओहदेदार पद से नवाज़ा |बाद में इन्हें 2000 पौंड तक वेतन दिया जाने लगा | जेम्स ने अपने बेटे और जाने-माने राजनैतिक दार्शनिक जॉन स्टुअर्ड मिल को भी कंपनी में नौकरी पर लगवा दिया |दोनों का काम ब्रिटिश संसद को भारत की नकारात्मक बातों  से प्रभावित कर कंपनी की सत्ता बनाये रखना था | इस पुस्तक में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपना भविष्य देखा तथा इसे प्रशासनिक गीता के रूप में मान्यता दी गयी | भारत आने वाले हर ब्रिटिश अधिकारी को इसे तीन महीने तक भली भांति पढ़ कर आत्मसात काना होता था | रही सही कसर  अमरीकी लेखिका कैथरीन मेयो ने मदर इंडिया लिख कर पूरी की जो योरोप और अमरीका में इतनी लोकप्रिय हुई की 1927 में इसके छपने के एक साल के भीतर 21संस्करण छपे ,कोई 10 लाख से ज्यादा लोगों ने इसे पढ़ा |
                      गौर करने की बात यह है की आर्य भट्ट ने खगोल शास्त्र  और सौर मंडल ग्रहों के चालन की पूरी अकाट्य  गणना  पाचंवी सदी में की थी ,जिसकी इरानी विद्वान् अलबरूनी ने 500 वर्ष बाद भूरि-भूरि प्रशंसा  करते हुए अपने देश के विद्वानों को बताया | लेकिन जेम्स इसको भी नकारता है| यह अलग बात है कि लगभग 1000 साल बाद भी आर्य भट्ट को सही ठहराते हुए जब गैलिलियो और कापरनिकस  सूर्य को स्थिर और पृथ्वी के घूमने की बात कहतें हैं तो योरोप के शासक उन्हें सजा देते हैं|क्यों कि यह बात ईसाईयों की 1500 साल  पुरानी धार्मिक अवधारणा की चूलें हिला देता है | फिर जंगली और बर्बर कौन हुआ?
                     भारतीय हिन्दू नववर्ष एक वैज्ञानिक आधार पर पूर्वस्थापित अति प्राचीन अवधारणा है | यह पर्व सम्पूर्ण विश्व में एक अनूठा दिन है जिस दिन प्रकृति अपनी कलात्मक छवि के साथ खगोलीय पवित्रता से बंधी रहती है | चैत्र माह शुक्ल पक्ष प्रतिपदा का दिन स्मरण कराता है कि इसी दिन श्रृष्टि का आरम्भ दिवस है| युगाब्द और विक्रम संवत का प्रथम दिवस है|श्रृष्टि के प्रारंभ से अब तक १ अरब ९५ करोड़ ५८ लाख ८५ हजार ११२ वर्ष बीत चुके हैं| यह गड़ना ज्योतिष विज्ञान द्वारा निर्मित है| इसी दिन रेवती नक्षत्र विष्कुम्भ योग के दिन के प्रकाश में भगवान के आदि अवतार मत्स्य रूप का प्रादुर्भाव हुआ| यह पुनीत दिन सतयुग के प्रारंभ का दिन है | मर्यादा पुरुषोतम श्री राम ने इसी शुभ दिन को राज्याभिषेक स्वीकार किया| मां दुर्गा नवरात्रि के प्रारम्भ का यह दिन है |सम्राट विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत का प्रारम्भ इसी दिन से किया गया | इसी दिन शालिवाहन शक संवत भी प्रारंभ हुआ |इसी दिन महर्षि दयानंद ने आर्यसमाज की स्थापना की |इसी दिन महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा (मराठी पडवा) का पर्व मनाया जाता है जिसका अर्थ होता है विजी पताका |कर्नाटक में इसी दिन उगादि के रूप में मनाया जाता है |गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वारा इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन महीना और वर्ष की गणना करते हुए पंचांग की रचना  की गयी | सिख पंथ के महान गुरू अंगददेव जी का जन्मदिवस तथा सिंध प्रान्त के महान समाज रक्षक संत झुलेलाल का प्रगट दिवस इसी दिन है | विश्व के सबसे बड़े संघटन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा.केशव बलिराम हेडगेवार के जन्म का दिन यही शुभ दिवस है | इस शुभ दिवस को दो ऋतुओं का संधिपर्व होता है |प्रकृति नवपल्लव,किसलय धारण कर नई रचना प्रारंभ करती है | ऐसे नववर्ष को अपनी संस्कृति से अपरिचित  ,पाश्चात्य सभ्यता को ही सबकुछ मान बैठे भ्रमित हिन्दुओं द्वारा 31 दिसंबर की रात को अंग्रेजी नववर्ष मनाना गुलामी का प्रतीक है |
                विगत 70 वर्षो से सेकुलारिज़म के चक्कर में तथा मैकाले शिक्षा के कारण हम अपने अस्मिता को भूल गए | रही सही कसर बामपंथियों द्वारा कूटरचित इतिहास के ज्ञान ने पूरी की है | भारत की सर्व धर्म सम भाव तथा सर्वे भवन्तु सुखिनः वाली विश्व कल्याण की विचारधारा को जानबूझ कर पीछे धकेला गया |हिन्दू नववर्ष मनाना साम्प्रदायिकता की श्रेणी में रखा गया | भारतीय विश्वविद्यालयों में परोसा जाने वाला ज्ञान भी विदेशों से आयातित ज्ञान पर आधारित है |खेद की बात यह है की आज हम इस स्थिति  में नहीं हैं कि संस्कृत भेंट के रूप में विश्व को कुछ दे सकें | केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद स्थिति बदली है |योग विद्या आज पूरे विश्व में स्वीकार की गयी है |सही इलाज़ यह  है की हम राष्ट्र की चेतना को प्रबुद्ध और व् उसके चरित्र व् व्यक्तित्व को परिपक्व तथा प्रभविष्णु बनायें| हमारे पूर्वज एक सप्राण,प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण महापुरुष थे |उन्होंने सभ्यता एवं संस्कृति के क्षेत्र में अर्थपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त की थीं| हमें यह खोजने का प्रयास करना चाहिए कि पूर्वजों की दृष्टि में वे कौन से जीवन-मूल्य थे जो व्यक्तिगत एवं जातीय महत्ता के उपादान समझे जाते थे |
                     भारतीय नववर्ष के सम्बन्ध में हमारा आत्मगौरव जागे ,हम इसकी महत्ता को समझ इसको पुनर्प्रतिष्ठापित करने में समर्थ हो सकें इसके लिए समाज खड़ा हो रहा है | आत्मचेतना जागृत करने का प्रयास अब तेज गति पकड़ रहा है | आज समय आ गया है जब भारत के विद्वान् फ्हिर से भारतीय संस्कृति और ज्ञान को पुनर्प्रतिष्ठापित करें |पक्षिमी वितंडावाद से प्रभावित भारत के बामपंथी बुद्धिजीवियों को वास्तविकता से परिचित कराएं | हम सब भारतीयों का पुनीत कर्तव्य है की हम स्वयं तथा आगे की पीढ़ी को प्रयास कर के संस्कारित करें तथा भारतीय हिन्दू नववर्ष को निष्ठा तथा पूर्ण कर्मकांड से उत्साहपूर्वक पूरे विश्व में मनाएं |  
                                         *लेखक उत्तर प्रदेश प्रशासनिक सेवा के अवकाशप्राप्त  वरिष्ठ अधिकारी तथा सम्प्रति निदेशक,लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान(विश्व संवाद केंद्र ,लखनऊ) हैं |                    
  

                


              

Wednesday 28 June 2017

*बनारस : एक समूची संस्कृति*
• हेमंत शर्मा
बनारस को समझने के लिए अपनी परम्परा और संस्कृति को समझना होगा। धर्म, परम्परा और संस्कृति की अनादि अनंत परम्परा से ओतप्रोत बनारस जिसका न कभी इतिहास बदला न भूगोल।
बनारस यानी साम्प्रदायिक सद्भाव का एक हजार साल पुराना गौरवशाली इतिहास। बनारस यानी लुकाठी हाथ में लेकर सच कहने की ‘कबीरी परम्परा’। बनारस यानी ठुमरी, दादरा, कथक और तबले की विरासत। साहित्य और संगीत की अनंत परम्परा।
यह भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिका शहर है। सर्वहारा के देवता शिव यहीं विराजते हैं। वे आदि भी हैं और अंत भी। शायद इसीलिए बाकी सब देव हैं, केवल शिव महादेव।
उत्सव-प्रियता इस शहर का स्वभाव है। शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की इस शहर के पास कला है। यही शैव परंपरा है।
बनारस महज एक शहर नहीं, समूची संस्कृति है। उसकी न धर्म है न जाति। यहां चार सौ साल पहले कबीर चादर बुनते-बुनते आधुनिक समाज का ताना बाना रच गए थे। उसके व्यवहार और विचार के सिद्धान्त गढ़ गए थे।
यहीं उन्होंने हिन्दू मुसलमान के आडम्बर को पहचाना और धर्म के पाखण्ड के खिलाफ शंखनाद किया। जीवन-जगत को जाना। उन्हीं के शब्दों में
“ना कछु किया न करि सका, न करने जोग शरीर।
जो कछु किया सो हरि किया, भये कबीर कबीर।”
तो यहीं कबीर, कबीर हुए। कबीर याने सबसे बड़ा। कबीर अवैध सन्तान थे। इसलिए समाज की सारी अवैधताओं पर उन्होंने यहाँ से चोट की।
बनारस भक्ति के साथ रस भी बरसाता है। पंडित कण्ठे महाराज का अलाप हो या किशन महाराज और गोदई महाराज के तबले का ठेका। गिरिजा देवी की ठुमरी हो या सितारा देवी और गोपीकृष्ण के नृत्य की ताल। हनुमान प्रसाद मिश्र की सारंगी हो या फिर पंडित राम सहाय, राजन-साजन मिश्र का गायन। सबकी जड़ें इसी कबीरचौरा में है। यह शहर प्रसाद, प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल का भी है। देवकीनंदन खत्री , रुद्र काशीकेय , जगन्नाथ दास रत्नाकर और ठाकुर प्रसाद सिंह का भी। हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र का भी। नामवर सिंह और शिवप्रसाद सिंह का भी। मंगला गौरी मंदिर में शहनाई बजाते बिस्मिल्लाह खां का भी। कीनाराम, लाहड़ी महाशय और तैलंग स्वामी का भी। कबीर ने निराकार ब्रह्म को जाना था, तुलसी ने माना था। बनारस दोनों का है।
यह इतिहास से बाहर भूगोल से परे है। परम्परा को जीता और आधुनिकता को ओढ़ता बिछाता। कुछ करने की वासना नहीं। होने का सौन्दर्य है। मस्ती ऐसी कि गंगा नहाने और जूता सिलने में यहां के समाज में कोई फर्क नहीं है। आप जैसे अनाड़ियों को ठेंगे पर रखना इसका स्वभाव है। फक्कड़पन विशिष्टता। लिंग पूजा सांस्कृतिक विरासत है। लुकाठी हाथ में लेकर अपना घर फूंकने की तत्परता इसकी प्रकृति है। रांड़, सांड़, सीढ़ी, संन्यासी प्रतीक हैं।
इसी शहर में कबीर ने सधुक्कड़ी भाषा गढ़ी। जिसे बाद में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा के संस्कार दिए। और तुलसी ने देवभाषा के समानान्तर लोक भाषा खड़ी की।
डॉ. लोहिया ने तो "सुधरो और टूटो" का नारा 19वीं शताब्दी में दिया था। कबीर अपने वक्त में ‘सुधरो या टूटो’ की मुनादी कर रहे थे। वे सुधार चाहते थे, भले व्यवस्था टूट जाए। तब बनारस ने मोटी-मोटी पोथियों के अस्तित्व को नकारा था। किताबी ज्ञान के बरक्स सिर्फ "ढाई आखर प्रेम" की पढ़ने की जरूरत बताई थी। जब लोकतांत्रिक समाज बना ही नहीं था तो इस शहर ने आलोचना को सर्वोपरि माना था। बनारस का एलान था, “निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय।” भले इस विकसित लोकतंत्र में अब किसी को आलोचना बर्दाश्त नहीं है।
मार्क्स से चार शताब्दी पहले बनारस का साम्यवाद देखिए। ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय। मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय।' मांग और आपूर्ति पर यह फतवा मार्क्स से चार सौ साल पहले बनारस का था। मांगने में भी साम्यवाद। अस्तेय और अपरिग्रह का समाज।
तब से लोग इस शहर को समझने की कोशिश में लगे हैं। जिसकी जैसी समझ उसका वैसा बनारस। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, समानता, सद्भाव और पाखण्ड तथा आडम्बर के खिलाफ बीज तत्व इस शहर में मौजूद है। व्यापक दृष्टि के बग़ैर इस शहर के यथार्थ को समझना कठिन है।

Tuesday 28 March 2017

व्यवस्था परिवर्तन की चुनौतियां

·        अशोक कुमार सिन्हा

प्रदेश में नई सरकार के गठन के बाद जनता की उम्मीदों को मानों पर लग गए हों. समाज के सभी वर्ग में अपनी अस्मिता का भाव जगा है. सरकार ने भी पहले दिन से ही सपष्ट कर दिया है कि दल के लोक संकल्प पत्र के प्रत्येक वादे को पूरा किया जाएगा. नेतृत्व भी सशक्त भाव से दृढ इच्छाशक्ति के साथ कार्य करने को उद्यत है, पर सबकुछ इतना आसान नहीं है. यह बात सच है कि आज़ादी के बाद अपेक्षाकृत उत्तर प्रदेश विकास के क्षेत्र में पिछड़ा है. अराजकता, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, नियुक्तियों में बाधा आदि सामाजिक बुराइयों से अत्यधिक प्रभावित रहा. फलस्वरूप यह प्रदेश विकास के पायदान पर उड़ीसा और बिहार के समक्ष खड़ा है. देखना यह होगा कि योगी सरकार इन चुनौतियों का सामना कैसे करती है.सर्वप्रथम समस्या यह खड़ी होगी कि संपूर्ण सरकारी संस्थाओं में जनतांत्रिक मूल्यों को स्थापित कर उन्हें जातिवाद, भ्रष्टाचार और भेदभाव के शिकंजे से मुक्त कराया जाय. प्रदेश का लोक सेवा आयोग, अधीनस्थ कर्मचारी चयन आयोग, कर्मचारी चयन आयोग, पुलिस भर्ती बोर्ड जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं को उनका खोया विश्वास वापस दिलाते हुए उनकी कार्यप्रणाली और व्यवस्था को सुधारना होगा.अगली समस्या होगी प्रशासनतंत्र और उससे उपजी व्यवस्था से भ्रष्टाचार, कामचोरी और निकम्मेपन को दूर कर जनाकांक्षा के अनुरूप कार्यशैली विकसित करना. इसके लिए आवश्यक मुहिम है कि प्रशासनिक अमले में बड़े पैमाने पर फ़ेरबदल किए जाएं. सरकार की इच्छाशक्ति व निष्पक्ष निर्णय लेने की प्रक्रिया से यह काम आसन होगा. पूरा काम-पूरा दाम और लापरवाही पर कड़े दंड की निति कारगर होगी. इसके लिए वर्तमान नियम और क़ानून ही सक्षम हैं. केवल नियमों का निष्पक्ष अनुपालन, पर्यवेक्षण तथा कड़े फैसले लेना पर्याप्त होगा.अगली समस्या क़ानून-व्यवस्था ठीक कर विधि का अनुपालन करवाकर अपराध दर में कमी लाने की होगी. पुलिस प्रशासन में निश्चय ही बड़े फेरबदल करने होंगे. अपराधी भयभीत रहें इसके लिए अपराधी-पुलिस गठजोड़ को तोड़ना होगा. अवैध बूचड़खानों और स्कूल-कॉलेजों के बाहर कार्यवाई स्वतः आरम्भ हो गई है. थानों को जनता के मित्रकेंद्र के रूप में बदलने की आवश्यकता होगी. पुलिस का मुखिया अगर तय कर लेगा तो हर अभियान सफ़ल हो जाएगा. जरूरत है कि पुलिस पर राजनीतिक न बनाकर सामाजिक दबाव बनाया जाए. उन्हें अहसास कराया जाए कि जनता ही मालिक है.
दलालों को पुलिस थानों, तहसीलों और कचेहरी परिसरों से बाहर निकालना एक बड़ी चुनौती है, पर यह नई सरकार को लागू ही करना होगा. भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए जनजागरण के साथ विज्ञानसम्मत व्यवस्थाओं जैसे बायोमीट्रिक अटेंडेंस, डिजिटलाइजेशन, आन लाइन सिस्टम, जनहित गारंटी, पारदर्शी निगरानी तंत्र, दस्तावेजों को आनलाइन करना और शिकायतों का ट्रेकिंग सिस्टम इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक हो सकते हैं.बेरोजगारी तथा औद्योगिक पिछड़ापन दूर करना एक समय साध्य, कठोर परिश्रम और नीतिगत फैसले का काम है. प्रदेश बुरी तरह से बिजली संकट से झूझ रहा है. युवा दिशाहीन, अकुशल और डिग्रियों को लिए घूम रहा है. रोजगार और अवसर की उम्मीद उसकी धुंधलाती जा रही है. लगभग हर परिवार में आशा का केंद्र और संबल बनने लायक युवा बेरोजगार है. प्रदेश स्तर पर यह एक बड़ी चुनौती है. प्रदेश का एकमात्र जीवित चीनी उद्योग भी गलत नीतियों का शिकार है. बाक़ी उद्योगों में पहले से ही टला पड़ा हुआ है. प्रदेश लघु एवं कुटिर उद्योग धंधों का बड़ा केंद्र बन सकता है. कौशल विकास की परियोजनाओं से समन्वय और सामंजस्य मिलाकर व्यापक स्तर पर घरेलू उद्योगों को संवर्धित, संरक्षित और पुनर्जीवित करना होगा. तदनुसार शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा. चीनी उद्योग का तेजी से आधुनिकीकरण कर ‘शुगर काम्प्लेक्स’ बनाने होंगे.उद्योगों को स्थापित कराने के पहले नेतृत्व को चौबीस घंटे अबाध विद्युत आपूर्ति व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी. उद्योगपतियों को सिंगल विंडो सिस्टम से व्यापक उदारवादी नीतियां अपनाकर आमंत्रित करना होगा. लगातार उद्योग मेले, कानक्लेव, संगोष्ठी आयोजित कर जागरूकता पैदा करनी होगी. बुंदेलखंड, पूर्वांचल और सीमावर्ती क्षेत्रों में बड़े उद्योगों की श्रंखला लग सकती है. यहाँ प्रचुर पानी, कच्चा माल, सस्ता मानव श्रम और भूमि मौजूद है. परन्तु विकास बिना पर्यावरण को नुकसान पहिचाए करना कठिन है.प्रदेश सरकार की बड़ी जिम्मेदारी होगी कि केन्द्रीय योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू कर केन्द्रीय सहायता का भरपूर लाभ उठाए. केन्द्रीय योजनाओं में गाँव और गरीब के कल्याण के अनेको सूत्र दी हैं, इसका लाभ उठाना होगा. किसानों की कर्जमाफी घोषणा तो एक चुनावी लाभ लेने की विधा थी परंयु वास्तविक रूप से खाद, पानी, बिजली, डीजल, उर्वरक, बीमा तथा नई तकनीक किसानों को उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए. खाद्य प्रसंस्करण के व्यापक उपाय अपनाकर किसानों को इसकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाया जा सकता है.प्रभावी सरकार को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था की सुविधा उपलब्ध कराते रहना एक बड़ी चनौती है. गाँव और गरीब इस सुविधा से तेजी से प्रभावित होगा. पूर्वांचल का दिमागी बुखार नई सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए. प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च, प्रावधिक, व्यवसायिक, तकनीकी, प्रबंधन, चिकित्सा, विज्ञान, अभियांत्रिकी, अनुसंधान और शोध को आधुनिक बनाने का काम भी बड़ी चनौती होगी. विश्वविद्यालयों को गुटबाजी से मुक्त कर परिणामकारी बनाना भी एक दुरूह कार्य है. शिक्षा चरित्र निर्माण और कौशल विकास का केंद्र बने न कि वह धनोपार्जन का साधन, ऐसा शिक्षा नीति में व्यापक बदलाव से ही संभव है. उच्च गुणवतापरक तकनीकी शिक्षा प्रदान करने के लिए व्यापक स्तर पर संसधानों की उपलब्धता भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा.राम मंदिर निर्माण का करने वाली संस्थाओं का विवाद दोनों पक्षों के मध्य सामंजस्य स्थापित करना. निष्पक्ष वातावरण देकर बिना भय के आपसी सहयोग का माहौल बनाकर हल निकालना होगा. बेहतर निर्णय के साथ शांतिपूर्वक तरीके से राम मंदिर का निर्माण कर सरकार अपनी बदली हुई तस्वीर पेश कर सकती है. कोई पक्ष पछतावा न करे तथा परस्पर सौहार्द का वातावरण निर्मित हो यही हिंदुत्व की भी मूल अवधारणा है. गाँव, गरीब, किसान, नौजवान, सामाजिक समरसता और सबका साथ सबका विकास की परीक्षा अब सरकार के सम्मुख है. सब ठीक होगा यही आशावादी दृष्टिकोण सबके लिए हितकर होगा.माना अगम अगाध सिन्धु है, संघर्षों का पार नहीं है. किन्तु डूबना मजधारों में साहस को स्वीकार नहीं है.

(लेखक : वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं. सम्प्रति-निदेशक लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान हैं.)