Tuesday 29 October 2013

भारतीय संस्कृति में समरसता के मूल तत्व

        

अशोक कुमार सिन्हा
          भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा है सर्वांगीण विकास सबका विकास। भारतीय संस्कृति स्पृृष्य अपृृष्य का विचार नही करती। हिन्दू अहिन्दू आर्य-अनार्य का भेद नही करती। सभी प्राणीयों को प्रेम और विकास के साथ आलिंगन करके ज्ञानमय व भक्तिमय कर्म का अखण्ड आधार ले कर यह संस्कृति मांगल्य सागर सच्चे मोक्ष समुद्र की ओर ले जाने वाली है। यह महान संस्कृति हमारे पूर्वजों के ज्ञान का परिणाम है। विष्व में हमारी विषिष्ठ प्राचीन ऐतिहासिक पहचान भारतीय संस्कृति के कारण हैं। ईष्वर एक है और समस्त प्राणियों में उसका ही अंष है-यह हमारी संस्कृति की मूल अवधारणा है। आदि नगरी काषी में आदि शंकराचार्य को एक चाण्डाल ने यही भाव समझाया था अतः वे उस चाण्डाल को अपना गुरू बना लिये थे, क्योंकि वे उसके तर्कों से ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और साष्टांग दण्डवत कर आदर प्रगट किया था। 
        अनेकता में एकता का भाव एक उच्च सांस्कृतिक अहसास है, क्योंकि सबकी भलाई और हित हमारा व्यवहार रहा है। ‘‘आत्मवत् सर्व भूतेषु। परोपकाराय पुण्याय पापाय परपड़िनम् एक ही परमात्मा पूरे चराचर जगत में व्याप्त है। वह सबकी आत्मा में समाया हुआ है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम् हम सभी विष्वास रखतें हैं कि धरती मेरी माँ है और हम सब उसकी संतानें हे और इस प्रकार हम सभी भ्राता हैं। उपासना पद्धति भिन्न हो सकती है परन्तु हम एक ही ईष्वर की उपासना में रत हैं। सभी संस्कृतियाँं प्रेम सेवा बंधुत्व की मूल आधार षिला पर अवस्थित हैं और सबका उद्देष्य मानव कल्याण है। हिन्दू दर्षन अनेकों पंथ में होने पर भी कभी यह दावा नही करता है कि केवल उसका ही मार्ग सही है। 
        हिन्दू संस्कृति को पूरे विष्व में अनूठा इसी लिये माना जाता है कि हम सामाजिक, आर्थिक, पंथिक या राजनैतिक अधिपत्य स्थापित करने में विष्वास नही करते। हम समत्वमूलक समाज में विष्वास रखते हैं। परिवार और शरीर की प्रकृति के आधार पर समता का भाव है। बच्चा छोटा है-वह माता-पिता को आदर देता है लेकिन बच्चे के बारे में बड़ों के मन में ऊँच-नीच का भाव नही होता। समाज में आर्थिक या प्रतिभा या बुद्धिमत्ता के आधार पर अन्तर हो सकता है परन्तु इस कारण व्यवहार या परस्पर प्रेम की दृष्टि से ऊँच-नीच का भाव न हो- यह हिन्दू संस्कृति का मूलभूत दृष्टिकोण है। 
          यह सब होते हुये विचित्र बात यह है कि विष्व में शायद ही ऐसा कोई संस्कृति व धर्म हो जिसमें मानवीय उच्चता, समानता, समरसता के इतने महान आर्दष सामने रक्खे गये हो, परन्तु यह भी उतना ही सच है कि विष्व में शायद ही कोई दूसरा समाज होगा जिसमें अपने ही समाज के लोगों के प्रति केवल जन्म एवं जाति के आधार पर इतने अमानवीय भेदभाव भारत में अपनाये गये हों। एकता का भाव यदि संस्कृति है तो विकृति भी यह है कि जाति प्रथा नष्ट करने की उक्ति और कृति में भारत में जितना अन्तर पाया जाता है, उतना पूरे विष्व में कही नही दिखाई पड़ता। जाति के कारण मनुष्य की दृष्टि साफ नही रहती है। वरिष्ठ जाति के गुनाह माफ किये जाते हैं और उनके द्वारा किया हुआ अन्याय चुपचाप सहा जाता है। वरिष्ठ जातियाँ अपना राजनैतिक आर्थिक और धार्मिक वर्चस्व बनाये रखना चाहती हैं। इस लिये ऊँचा वर्ण कनिष्ठ वर्ण की उपेक्षा और तिरस्कार करता है और कनिष्ठ वर्ण वरिष्ठ वर्ण से द्वेष करता है। यह स्थिति उचित नही हैं। वंचित जाति आपसी संघर्ष में रत है, उनमें परस्पर एकजुटता नही हैं अतः उनका वास्तविक विकास अवरूद्ध है। भेदभाव एवं विषमता पर आधारित जाति व्यवस्था नष्ट होने के लिये सभी को समरसता की भावना से कार्य करना चाहिये। राजनैतिक आधार पर हम एकात्मकता उत्पन्न नही कर सकते। राजनीति जोड़ने का कार्य कम और तोड़ने का कार्य अधिक करती है। सांस्कृतिक एवं धार्मिक आधार पर ही देष में एकता व समरसता का भाव उत्पन्न हो सकता है। इसी कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करता है। 
           स्वामी विवेकानन्द ने इसी हिन्दू संस्कति और वेदान्त का गहन चिन्तन मनन कर के कहा था कि ‘‘हे भारत! मत भूल कि नीच अज्ञानी दरिद्र अनपढ़ चमार मेहतर सब तेरे रक्त-मांस के हैं वे सब तेरे भाई हैं। ओ वीर पुरूष! साहस बटोर निर्भीक बन और गर्व कर कि तू भारतवासी है। गर्व से घोषणा कर कि ‘मैं भारतवासी हूँ प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है।
          मुख से बोल ‘अज्ञानी भारतवासी दरिद्र और पीड़ित भारतवासी ब्राहमण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी सभी मेरे भाई हैं। तू भी एक चीथडे़ से अपने तन की लज्जा को ढक ले और गर्वपूर्वक उच्च स्वर में उद्घोष कर ‘प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है भारतवासी मेरे प्राण हैं भारत के देवी देवता मेरे ईष्वर हैं। भारतवर्ष का समाज मेरे बचपन का झूला मेरे यौवन की फुलवारी और बुढ़ापे की काषी है। मेरे भाई! कह भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है। भारत के कल्याण में ही मेरा कल्याण है। अहोरात्र जपा कर हे गौरीनाथ हे जगदम्बे! मुझे मनुष्यत्व दे! हे शक्तिमयी मां मेरी दुर्बलता को हर लो मेरी कापुरूषता को दूर भगा दो और मुझे मनुष्य बना दो मां।
          भारतीय संस्कृति अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में नरोत्तम नागरिकों का निमार्ण करती है, परन्तु विभिन्न कालखण्डों के प्रवाह से गुजरने के बाद हमारी श्रेष्ठता सांस्कृति परम्परायें होने के बाद भी विकृति एवं कुरितियों के षिकार हुये। इस कारण एकता का भाव कम हुआ और यह समाज 12 सौ वर्षों की दास्तां की बेड़ियां में जकड़ गया। दास्तायुग में यह कुरीतियाँ और परवान चढ़ी तथा दासत्व के कारण भी अनेक विकतियाँ हमें ग्रसित करने में सफल हुई। आज आवष्यकता है कि हम सबल बने सजग और समरस समाज के मूल्यों की पुर्नस्थापना कर समृद्ध तेजोमय जीवन क्षेत्र की रचना करें। इसके लिये हमें अपने सांस्कुतिक मुल्यों में ही रास्ता तलाषना होगा। 
           राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वित्तीय सरसंघचालक मा0 माध्वराव सदाषिव गोलवरकर ने इसी भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्षो को संतो महात्माओं के समक्ष रक्खा और सतत् प्रयास कर के प्रयाग कुम्भ के अवसर पर धर्म संसद में घोषणा करवाई कि ‘‘हिन्दवो सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत् मम् दीक्षा हिन्दू रक्षा मम् मंत्र समानता हिन्दू कभी पतित नही होता-यह वाक्य संतो के मुख से कहलाया गया। संघ तो इस मंत्र को 1925 से आचरण में क्रियान्वित कर रहा है। वर्तमान काल में षिक्षा, धर्म, संस्कृति ने एक दूसरे के प्रति नफरत, घृणा और छुआछूत की भावना को कम किया है। 
          नौजवान पीढ़ी जो रोजगार के लिये प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में प्रवेष कर गई है। उसके लिये सभी सामाजिक विकृतियाँ षिथिल हो गई है। राजनैतिक स्वार्थ हिन्दू मुसलमान जाति व्यवस्था को भड़का कर भेद खड़ा करने में लगी है। परन्तु एक दूसरे में प्रेम, आदर और समकार्य का भाव उत्पन्न करने के लिये हमें अपने मूल भारतीय संस्कृतिक चिन्तन को आधार बनाना होगा। जनता की सम्मिलित शक्ति से सब कुछ सम्भव है। ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया की मूल अवधारणा पर समाज को ले जाने के लिये हमें अपने प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों को बल प्रदान करना ही होगा।
लेखक- लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान के निदेशक हैं।

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