Saturday, 19 April 2025

लोकसंग्रही मानवशिल्पी डा. हेडगेवार 

श्रेष्ठ महापुरुष वाह्य उपकरणों के सहारे नहीं अपितु अपने सत्व के बल पर ही कार्य सफल कर विजय प्राप्त करते हैं ।

अपने क्रिया सिद्धि : के बल पर जागृत चिरंतन भारत राष्ट्र को हिंदुओं का राष्ट्र मानते और गर्जना के साथ कहते हुए उसे परमवैभव तक ले जाने का संकल्प पुनरपि प्रस्थापित करने वाले डा. केशवराव बलीराम हेडगेवार हमारे दीपस्तम्भ हैं।उन्होंने हमें प्रेरणा दी कि हम अपनेएमजे अविचल ध्येयनिष्ठा , उत्कट देशप्रेम ,निर्भीक पौरुष और अपने समाज का अभिमान लेकर भारत की नवचेतना को जगाने का कार्य करें।उन्होंने हमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मार्ग दिखा कर अपने समाज का अभिमान हृदय में बसा कर राष्ट्र जीवन के साथ एकात्म हो जाने का प्रकाश दिखाया ।महान कार्य करने वाले महापुरुषों में व्यक्ति की परख का गुण अवश्य पाया जाता है। डॉक्टर जी में मनुष्य को परखने का असाधारण गुण विद्यमान था।सन् 1910 में जब वे नागपुर से कलकत्ता मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई करने गए तो वे वहाँ महाराष्ट्र लॉज में रहते थे । वहाँ उनके कमरे में ही सरकारी खुफिया विभाग का एक व्यक्ति मित्रता का भाव दिखा कर रहने लगा था परंतु डा. जी ने उसे परख लिया था कि यह व्यक्ति हमारा हितैषी नहीं है तथा अपने सभी साथियों को उन्होंने सावधान कर दिया था तथा बाद में उन्होंने सिद्ध भी कर दिया था । यही गुण बाद में उन्होंने सकारात्मक रूप से संगठन निर्माण में दिखाया और अनेकों सुयोग्य और सक्षम प्रभावी स्वयंसेवकों को राष्ट्रनिर्माण में लगाने में दिखाया।उन्होंने मन, कर्म और वचन की एकरूपता को अपने कार्यपद्धति का अंग बनाया।हिंदुत्व का अभिमान उनके अंदर कूट कूटकर भरा हुआ था ।सहज विनय का कार्य व्यवहार संघ कार्य की निर्दोष रचना करने में सहायक बना। publish                  अविश्रान्त परिश्रम , उज्ज्वल चरित्र,व्यवहार कुशलता के कारण ही उन्होंने बड़ी संख्या में विश्वस्त व्यक्तियों का लोकसंग्रह किया।उनके लोकसंग्रही व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण ही अनेकों मित्र बने जो संगठन खड़ा करनें में मील के पत्थर सिद्ध हुए।उनके विनोदी स्वभाव और अनुशासन पालन से प्रभावित हो कर उनके पास अधिक से अधिक समय व्यतीत करने वाले और देश सेवा के लिए तत्पर युवकों का एक बड़ा समूह खड़ा हो गया था।उनके बैठकों में हास्य के ठहाके लगते रहते थे।शारीरिक सुदृढ़ता और गहन अध्यनशीलता दोनों देवदुर्लभ गुण उनके अंदर विद्यमान थे जिनसे साथियों का अटल विश्वास उनके उपर था। भाषण देते समय शब्दों में अद्भुत शक्ति उनके अंदर आ जाती थी जो सुनने वालों के हृदय को झंकृत कर देती थी।यह कला भी उनके अंदर ईश्वरीय देन थी ।उनके जितने भी बौद्धिक या भाषण हुए हैं उनके अध्यन से यही सिद्ध होता है कि उनके बोलने में उनके प्रभावी व्यक्तित्व का बहुत बड़ा योगदान था ।व्यक्ति के चारित्र्य, तपश्चर्या और त्याग की भावना से ही उसके शब्दों में सर्वोच्च शक्ति का समावेश होता है।तर्क ,बहस , बुद्धि के चमत्कार, सब उस सर्वोच्च शक्ति के सामने तुच्छ सिद्ध होते हैं।महान आत्माओं द्वारा उच्चारित शब्दों में अप्रवाहित शक्ति का संचार हो जाता है। डाक्टर जी के शब्द अत्यंत सरल हुआ करते थे परंतु उनमें ऐसी ही अद्भुत शक्ति संचारित होती रहती थी।

                       डॉक्टर जी की कार्यपद्धति में प्रसिद्धि परान्मुखता एक महत्व का विषय हुआ करता था । अत्यंत श्रेष्ठ और ध्येयवादी व्यक्तित्व होने के बाद भी उन्होंने कभी बड़कपन का प्रदर्शन नहीं किया।कभी साथी या कार्यकर्ता उत्साहवश उन्हें माला पहनाना चाहते थे या मंच पर उदबोधन में अत्यंत आदरपरक शब्दों का प्रयोग करते थे तो वे इशारे से रोक लगा देते थे। कार्यपद्धति में भी वे खा करते थे कि भारत हमारी माता हैं। क्या माता की सेवा का प्रचार करना उचित होगा। यह तो पुत्र का कर्तव्य होता है।उनकी कार्यपद्धति के मूल में थी कि कार्यकर्ता के मन में लेशमात्र भी अहम् की भावना नहीं आना चाहिए।नाम, ख्याति पद या सत्ता प्राप्ति का पागलपन स्वयंसेवक के अंदर प्रवेश भी न करने पाए।इस निहंकारितता और प्रसिद्धि परानमुखता से ही वे सबकी श्रद्धा का पात्र बन कर वे इतना विशाल संगठन कड़ा कर सके।कार्य में अनुशासन हो , जीवन और व्यवहार में अनुशासन नितांत आवश्यक है यह सीख डॉक्टर जी स्वयं संघ शिविरों में कर के दिखाते थे। कई बार छूने की रेखा सीधी होनी चाहिए, यह सिखाते थे।वे छोटे-छोटे नियम का स्वयं पालन करते थे और सभी स्वयंसेवकों से अपेक्षा भी करते थे। वे कहते थे कि सबके हित के लिए बनी व्यवस्थाओं का सम्मान करने से किसी मानसिक संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ता है।वे यह भी कहते थे की सामर्थ्यशाली, सुचारू, व्यवस्थित राष्ट्र जीवन की सहज स्वाभाविक आवश्यकता है -अनुशासन।

      डॉक्टर जी में स्वधर्म का स्वाभिमान इतना प्रखर था कि जब वे विदर्भ के एक तहसील पुसद में जंगल सत्याग्रह के लिए गए हुए थे जहाँ कसाई गाय काटने के लिए रास्ते में ले जाते मिले जिसे वे छुड़ा लाए और गोशाला की सुरक्षा में दे दिया था । हिंदुओं के लिए गाय की रक्षा हो या जंगल सत्याग्रह हो , दोनों समान थे। वे अकिंचन राष्ट्रसेवा में विश्वास करते थे। भयानक गरीबी उनकी सहचरी थी । जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं का अभाव उन्हें सदैव बना रहा परंतु यह सब उनके राष्ट्रकार्य में कभी भी बाधक नहीं बना।अभावों को वे प्रसन्नता से झेल गए और अविचलित रूप से राष्ट्र सेवा में जुटे रहे।स्वयंसेवकों के लिए यह जागृत सत्य प्रेरणा का स्रोत बन गया ।आत्मविश्वास उनमे इतना था कि 1928 में डॉक्टर जी कलकत्ता आए थे।नेता जी सुभाष चंद्र बोस उस समय कलकत्ता कारपोरेशन के मेयर थे।राष्ट्रोत्थान के विषय पर उन्होंने सुभास से मिल कर अपने विचार रखे।भेंट के लिए डॉक्टर जी को थोड़ा सा ही समय बोस जी ने दिया था परंतु वार्ता साढ़े तीन घंटे चलती रही।बातचीत के अंत में सुभाष जी ने डॉक्टर जी से कहा कि आपके संगठन की कल्पना अत्यंत शास्त्र-शुद्ध है , यह मुझे मान्य है परंतु अब हिंदू समाज मृतप्राय हो चुका है , यह फिर से पराक्रम और पुरुषार्थ का अधिकारी बन सकेगा , इसमें मुझे विश्वास नहीं है। डॉक्टर जी ने उत्तर दिया की संघ की कल्पना आपको मान्य है यह सुन कर संतोष हुआ । यह कार्य प्रत्यक्ष में करना संभव नहीं इतना ही कहना है आप का । परंतु मुझे पूर्ण विश्वास है की यह होकर रहेगा।बाद में ट्रेन में यात्रा करते समय सुभाषचंद्र जी ने संघ के गणवेशधारी स्वयंसेवकों का विशाल पथसंचलन देखा ।सुभाष जी अंग्रेज़ों के विरुद्ध शशस्त्र संघर्ष करना चाहते थे अतः वे 1940 में डाक्टरजी के मृत्यु के एकदिन पूर्व नागपुर मिलने आए थे ।डॉक्टर जी को दवा के कारण उस समय नींद आ गई थी और मुलाक़ात नहीं हो सकी । 

        नागपुर में 9 जून 1940 को संघ शिक्षा वर्ग के अंतिम सन्देश का भाषण सदैव अविस्मरणीय रहेगा जब उन्होंने बड़े मार्मिक स्वर में कहा था कि “हमलोग मरते समय तक स्वयंसेवक रहेंगे।प्रत्येक स्वयंसेवक को संघकार्य ही अपने जीवन का प्रमुख कार्य समझना चाहिए।” डाक्टर जी ने सामूहिक नेतृत्व, सामूहिक उत्तरदायित्व,आम सहमति के आधार पर निर्णय लेने की परंपरा स्थापित की थी जो आज तक विद्यमान है।संघ में शक्ति का केंद्र अपरिभाषित एवं अदृश्य रहता है क्यों की सब सामूहिक ही रहता है।संघ में सभी धर्मों से श्रेष्ठ राष्ट्रधर्म को माना गया है।हिंदू संगठन का कार्य राष्ट्रीय कार्य है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के पूर्व 1915 se 1924 तक डॉक्टरजी ने अपनी आयु ले 10 वर्ष देश में होने वाले विभिन्न आंदोलनों एवं संस्थाओं का अभ्यासपूर्वक सूक्ष्म अवलोकन और विश्लेषण करने तथा राष्ट्र को ग्रसित करने वाले रोग का अचूक निदान खोज निकालने में व्यतीत किया था अतः संघ की कार्यपद्धति में उन्होंने वह सब समाहित किया जो उन्हें उचित लगा ।स्वप्रेरणा एवं स्वयंस्फूर्ति से राष्ट्र सेवा , राष्ट्रकायार्थ निर्मित संघ ही उनकी कार्यपद्धति का प्रमाण है।उन्होंने संगठन का आधार एकचालकानुवर्ती बनाने हेतु विश्वनाथराव केलकर,तात्याजी कलाकार, आप्पाजी जोशी,बापूराव म्यूच्यूअल, बाबासाहब कोलते, बालाजी हुद्दार, कृष्णराव मोहरीर, मार्तण्ड राव जोग एवं देवाईकर से गहन विचारविमर्श किया और निर्णय लिया।एकचालकानुवर्ती संघ को परम्परागत पाश्चात्य परम्परा के संगठनों से अलग स्वरूप प्रदान करता है।संगठन में व्यक्ति का महत्व नैतिक शक्ति से होता है।संगठन में पारिवारिक परिवेश एक कुटुंब के समान होता है। सभी सदस्य एक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए समान भाव से स्वैक्षिक समर्पण के द्वारा योग्य नेतृत्व के निर्देशन में काम करते हैं।डॉक्टर जी ने अपने कार्यों एवं व्यवहार से एकचालकानुवर्ती को एक आदर्श संघटनात्मक सिद्धांत बना दिया।उन्होंने निर्णय लिया कि संघ में धन स्वयंसेवक ही देगा । वर्ष में गुरुपूर्णिमा के दिन गुरु के समक्ष जो समर्पण राशि मिलेगी वही संघ कार्य के निमित्त होगा।इस कार्यपद्धति से परावलम्बन की भावना ही समाप्त हो गई।इसी प्रकार संघ शिक्षा वर्ग की रचना कर स्वयंसेवकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। दैनिक शाखा की कार्यपद्धति से स्वयंसेवकों का दैनिक एकत्रीकरण और कार्यक्रमों के माध्यम से शारीरिक , बौद्धिक, सामाजिक सामूहिकता का विकास निर्धारित हुआ। सामाजिक महत्व के छह उत्सव मना कर समाज को समरस बनाने की कोशिश प्रारंभ की गई। डाक्टर जी ने स्वतंत्र चिंतन से हिंदू समाज में नवचेतना जगाने का अभिनव प्रयास किया ।उन्होंने व्यक्तिपूजा को कोई महत्व नहीं दिया फलस्वरूप संघ निरंतर अविभाजित स्वरूप में विकसित होकर परम पवित्र भगवत्ध्वज को गुरु मान कर राष्ट्र को परमवैभव पर पहुंचाने के व्रत का पालन करता रहा है।डाक्टर जी ने ऐसी कार्यपद्धति अपनाई कि सौ वर्ष हो गए इस संघटन के परंतु कोई भगवान यहाँ नहीं बन सका।सब स्वयंसेवक ही हैं, सभी कर्मयोगी है, सभी समान हैं।व्यक्ति पूजा का निषेध संघ संस्कृति का अंग बन गया है । फैक्टर जी हमारे बीच नहीं रहे परंतु संघ निरंतर सौवाँ वर्ष पूरा कर रहा है।डॉक्टरजी का “त्रयोदश वार्षिक सिहावलोकन “नाम का सुप्रसिद्ध भाषण , जिसमें उन्होंने संघ स्थापना से लेकर तबतक हुई संघकार्य की प्रगति का लेखाजोखा प्रस्तुत किया था , अविस्मरणीय माना जाता है।जैसा कहें वैसा करें, प्रथम करे तब बोलें ।उन्होंने जीवन में कोई कर्मकाण्ड नहीं अपनाया । वह कहा करते थे कि सार्वजनिक जीवन में शुद्ध मन से, सच्चे हृदय से समाजसेवा ही वास्तविक पूजा होती है।वे समाजदेवता-राष्ट्र देवता की पूजा करते थे।वे कर्मयोगी थे।संघ कार्य ईश्वरीय कार्य है।यह राष्ट्रीय कार्य है।संगठनात्मक गतिविधियों का लक्ष्य राष्ट्र की सबलता है।राष्ट्रीय जागरण का कार्य समझना संघ का अधिष्ठान है।मनुष्य को संस्कारित करना, उनमें समष्टि का भाव जगाना और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करना एक आध्यात्मिक कार्य है।हिन्दुस्थान एक राष्ट्र है और हिंदू एक समाज है। हमसब इसके एक अंग हैं और समाज का प्रत्येक अंग राष्ट्र के लिए है।मैं और राष्ट्र दोनों एक ही हैं,ऐसा समझ कर जो राष्ट्र से तन्मय हो वही सच्चा राष्ट्रसेवक है।

           उन्होंने पारस पत्थर की तरह सोच समझ कर जिसको छुआ वह सोना बन गया ।व्यक्तियों की परख इतनी थी कि किसके अंदर क्या योग्यता है , वह क्या , कहाँ सुंदरतम उपलब्धि दे सकता है , वहीं उसे भेजना और उसे खरा सोना साबित होना उसकी नियति बना देते थे।उनके लोकसंग्राहक वृत्ति में हर बात का उपयोग मनुष्यों को जोड़ना और उन्हें कार्यों में लगा कर कार्योपयोगी बनाना था।प्रभाकर बलवंत दाड़ी उपाख्य भैयाजी दाड़ीं, जो 1908 में उमरेड - जिला नागपुर में जन्मे , डाक्टर जी ने 1925 में जिन कुछ लोगों को लेकर नागपुर में संघ शाखा शुरू की , भैयाजी दाड़ी उनमें से एक थे। डाक्टरजी ने उन्हें प्रेरित कर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने भेजा । महाराष्ट्र के बाहर पहली शाखा बी एच यू काशी में लगी। भैयाजी दाड़ी नें शाखा प्रारम्भ की। तब गुरुजी बी एच यू में प्राध्यापक थे।यहीं वे संघ शाखा के संपर्क में आए । यह उत्तर प्रदेश की पहली शाखा थी।भैयाजी गृहस्थ होते हुए भी प्रांत प्रचारक रहे।उत्तर प्रदेश में 1936 में भाऊ राव देवरस को डॉक्टरजी नें लखनऊ भेजा जहाँ उन्होंने ऐशबाग में शाखा प्रारम्भ की। भाऊ राव जी में लखनऊ विश्वविद्यालय से क़ानून की डिग्री ली तथा लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे।पूरे उत्तर प्रदेश के प्रांत प्रचारक रहे तथा पूरे प्रदेश में शाखा विस्तार किया।पूज्य माधव सदाशिव गोलवरकर डॉक्टरजी की ही खोज थे।सन् 1939 से ही डॉक्टरजी का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं रहता था ।वे अपनी कल्पना के अनुसार कार्य चलाने वाला कर्मठ , सन्यस्थ, निश्चयी,आधुनिक, विद्याविभूषित व्यक्ति को खोज रहे थे।वे 1937 से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के आधुनिक विद्याविभूषित श्रीरामकृष्ण परमहंस के विचारों से प्रभावित व्यक्ति को संघकार्य से परिचित करा रहे थे।20 जून 1940 को प्रातःकाल श्रीगुरुजी को अपने कमरे में बुलाया और कहा कि अब चिकित्सक की राय से लंबर पंचर का समय आ गया है । मैं बच गया तो ठीक है अन्यथा संघ का सम्पूर्ण कार्य आप सम्भालिए। थोड़ा समय : बड़ा कार्य संपन्न कर शुक्रवार प्रातः साढ़े नौ बजे ज्येष्ठ द्वितीया १८६२ शक, तदनुसार 21जून 1940 ko स्वर्गवासी हुए।

       सन 1939 के मार्च महीने में कलकत्ते की पहली शाखा शुरू हुई तो बंगाल की अनुशीलन समिति के डाक्टर साहब के पुराने साथी विप्लवी नेता पुलिन बिहारी दास और अन्य साथियों ने संघ कार्य में सहयोग दिया । पुलिन दा ने तो अपनी वर्गीय हिंदू व्यायाम समिति का अखाड़ा केंद्र ही संघ कार्य हेतु सौंप दिया । कलकत्ते की पहली शाखा यहीं लगी । प्रारम्भ में श्री गुरुजी तथा श्री विट्ठल रावपत ही कलकत्ते में सक्रिय रहे बाद में ७ महीने बाद ( 15 नवंबर को) बालासाहेब देवरस ने वहाँ पहुँच कर कार्य संभाल लिया था ।

       उमाकांत केशव (बाबासाहेब) आप्टे ,दादाराव परमार्थ, एकनाथ रानाडे, श्री हरिकृष्ण (अप्पाजी) जोशी जैसे नजाने कितने साथी डॉक्टर जी के संपर्क में आए और जहाँ उन्होंने कार्य में लगाया वे जीजन से लग गए।अप्पा जी जोशी संघकार्य प्रारंभ होने के पूर्व से ही डॉक्टर जी के मित्र और साथी रहे।क्रांतिकारी कार्यों में भी साथ दिया । निविड अंधेरी रातों में भी यदि डॉक्टर जी ने किसी जोखिम के कार्य के लिए एकाएक आप से आकर कहा - चलो- तो सदैव साथ निकल पड़े थे ।ये संघ के पूर्व सरकार्यवाह, विदर्भ प्रांत के संघ चालक रहे हैं।इसी प्रकार विदर्भ प्रांत के प्रवास पर जब डॉक्टर साहब गए तो वहाँ बापू साहब सोहोनी को विदर्भ प्रांत का संघचालक नियुक्त किया । वहाँ पहले से ही कई लब्धप्रतिस्थित नेता मौजूद थे परंतु डॉक्टर साहब की नियुक्ति कितनी कारगर सिद्ध हुई यह आगे चल कर सिद्ध हुई।दादाराव परमार्थ।बड़े विचित्र ढंग से डा हेडगेवार से आप का संपर्क आया।सन् 1920 में लोकमान्य तिलक का निधन हुआ , उस समय दादाराव परमार्थ गेंद-बल्ला खेलने में बहुत रुचि रखते थे। उस दिन भी खेल रहे थे कि रह चलते एक साँवले से व्यक्ति ने उन्हें टोंका-“अरे , लोकमान्य की मृत्यु हो गई और तुम खेल रहे हो ? उस व्यक्ति ने दादाराव को कुछ ऐसी दृष्टि से देखा कि बहुत दिनों तक उस श्यामल पुरुष की वे काली चमकती आँखें वे भुला नहीं पाए- और एकदिन संघकार्य को ही अपना जीवन बना लिया । मद्रास प्रांत के वे प्रचारक बने । डाक्टर जी के साथ कांग्रेस सत्याग्रह में भाग लिया जहाँ उन्हें जेल हुई । वहीं उन्हें यक्ष्मा रोग हो गया। परंतु डा. केशव ने उनकी इतनी सेवा की कि उनको मौत के मग से खींच लाए।कार्य करते- करते ही दिल्ली के संघ शिक्षा वर्ग में आप ने अंतिम सांस तोड़ी।इसी प्रकार डा. साहब के सानिध्य में जिनको कार्य का अवसर मिला ऐसे एक कार्यकर्ता विश्वनाथ लिमये, संघ के जीवनब्रती प्रचारक । उत्तर प्रदेश में प्रांत प्रचारक बना कर भेजे गए।

    संघ मंदिर का निर्माण करने वाले राष्ट्र समर्पित कार्यकर्ताओं की सूची बहुत लंबी है जिन्होंने दीपस्तंभ डॉक्टर हेडगेवार से प्रेरणा ले कर अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया था।भय लग रहा है की अपनी अज्ञानता एवं असावधानी से किसी महाभाग का नामोल्लेख न करने का अपराध न कर बैठूँ। फिरभी भावी पीढ़ियों की जानकारी के लिए कतिपय कार्यकर्ताओं का नामोल्लेख करना समीचीन होगा।इस दृष्टि से सर्वश्री राजभाऊ पतुरकर, लक्ष्मण राव इनामदार,भास्करराव कलम्बी,नारायणराव तरटे , जनार्दनदत्त चिंचालकर,मधुकरराव देव,गोपालराव यरकुंटवार, विठ्ठलराव पत्तकी, बापूराव दिवाकर, नरहरि पारखी,माधवराव मूले,बाबाजी कल्याणी,के. डी. जोशी, मोरेश्वर मुंजे, बसंतकृष्ण ओक, कृष्णराव बड़ेकर,नारायणराव पुराणिक,कृष्णराव मोहरील,रामभाउ जामगड़े,बापूराव भिषिकर,शंकर राव कुरवे,अण्णा शेष, दत्तोपंत यादवाड़कर,मधुकर भागवत, आबाजी हेडगेवार,यादवराव जोशी, बच्छराज व्यास,गोपालराव पाठक,बालासाहब हरदास,नाथ मामा काले,गजाननराव जोशी,बालासाहेब सगदेव, प्रभाकर फ़ड़नवीस,दामोदर गंगाधर भावे,बालासाहेब इंदूरकर,दत्ताजी डीडोल्कर,राम मोलेदे,गोपालराव बाकले,सदु भाऊ चितले,बाबूराव पालथीकर,रामभाउ इन्दुरकर, बालासाहेब गोरे, मनोहर गुर्जर,अनंत रामचंद्र गोखले, माधवराव देवले, भाऊसाहेब भुस्कुटे,यादवराव जोशी, नालिनिकिशोर गुहा,डाक्टर अमूल्य रत्न घोष,श्रीमती लक्ष्मी बाई केलकर,अण्णा जी वैद्य,कृष्णबल्लभ नारायण प्रसाद सिंह, बाबासाहेब घटाटे आदि का नाम उल्लेख किया जा सकता है।

किसी स्वप्नद्रष्टा के जीवन एवं विचारों की सार्थकता उसके द्वारा भविष्य की पीढ़ियों एवं राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित करने की क्षमता में निहित होती है ।डा. हेडगेवार ऐसे ही महापुरुष थे। 

    


           

                     

        

CONTACT-NO- 9453140038


From Blogger iPhone client

No comments:

Post a Comment