Monday 29 December 2014

भारतीय जनसंचार: कहाँ आ गए हम



                                                                                                                                                                              
                                                                  -अशोककुमार सिन्हा

               भारत में पहला प्रिंटिंग प्रेस पुर्तगाली मिशनरियों द्वारा सन-1550 में गोवा में लगाई गई. उद्देश्य था बाइबिल छापना. जनसंचार का यह माध्यम भारत में आगे बढ़ा तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी की उपेक्षा के शिकार हुए जेम्स आगस्टस हिकी ने सन- 1780 में एक सूचना पत्रक निकाला. यही से पीत पत्रकारिता की शुरुवात हुयी. हिकी कम्पनी के अधिकारियों पर छीटाकशी करता रहता था. हिन्दी पत्रकारिता के उदय का लक्ष्य देश की आज़ादी और चरित्र निर्माण था. तमाम आर्थिक कठिनाइयों और तंगी के बाद और कई अंग्रेजी कानूनों का सामना करते हुए हिन्दी पत्रकारिता ने नई उचाइयां हासिल कीं. कई समाचार पत्रों और उनके संपादकों ने नए आदर्श स्थापित किये. कईयों ने धनाड्य पूंजीपतियों के अंगूठों तले दबकर संपादकत्व की गरिमा के नष्ट होने के गंभीर खतरों से बचते रहें. तत्कालीन फ़िल्मों में भी ‘नया दौर’ का साथी हाथ बढ़ाना जैसे गानों से नए युग का सूत्रपात हुआ. फ़िल्मों के माध्यम से छुआछूत, समाज सुधार, शिक्षा जैसे विषयों पर अच्छे प्रबोधन के कार्य हुए. यद्यपि इस युग में रेडियो एवं टेलीवीजन ने बहुत अच्छा कार्य किया. कृषि विकास, सामाजिक, आर्थिक एवं भारत निर्माण के क्षेत्र में रेडियो एवं टेलीवीजन के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रिंट मीडिया जो ‘मिशन’ था वह ‘प्रोफेशन’ की ओर उन्मुख हुआ. प्रिंट मीडिया में व्यापारीकरण ने जोर पकड़ा.

1975 में आपातकाल के दौरान एक दो को छोड़कर शेष समाचार पत्रों ने सरकार के आगे झुकने के बजाय रेंगना शुरू कर दिया था. जनसंचार भी बाद के दिनों में डिजिटल युग में प्रवेश कर गया. अतः जनसंचार के क्षेत्र में तीव्र विकास का युग आया. पत्रकारिता को  व्यापारीकरण के आगे झुकना पड़ा. पहले पत्रकार समाज में पेड़ न्यूज़ का प्रचलन बढ़ा परंतु बहुत शीघ्र ही यह पत्रकारों के हाथ से निकल गया और सीधा लाभ मालिकों को मिलने लगा. कुछ बड़े अखबारों का तो यह हाल हो गया कि वे संवाददाताओं को वेतन देना तो दूर, उनसे कमीशन लेने लगे. कहीं-कहीं यह कहा जाने लगा कि जो भी कमाई करो, उसमे से वेतन ले लो और ऊपरी आमदनी अखबार को वापस कर दो. अखबार और चैनल ठेकेदारों, पूंजीपतियों वा बिल्डरों के फ़ैशन स्टेटस बन गये. 600 से अधिक टेलीवीजन चैनल इस समय अस्तित्व में हैं जिसमे से मुश्किल से 60 चैनल ही मानकों पर सही होंगें, शेष बाहर हैं. एक मीडिया नेट बन गया जो कहने लगा कि हम हर खबर को बेच सकते हैं. आज हर अखबारों का प्रथम पृष्ठ बिक गया है. एक दो पेज खोलने के बाद ही समाचार पढ़ने को मिलता है क्योंकि आगे का पेज विज्ञापन होता है. अब अखबार मालिक टेलीवीजन कम्पनी में शेयर लेने लगे हैं. सन टीवी, जया टीवी, केरली टीवी, एक विचारधारा विशेष के ही चैनल बन गये हैं. ‘क्रास मीडिया ओनरशिप’ का युग आ गया. एक ही मालिक समाचार एजेंसी, अखबार और चैनल सब चलाएगा. इसका परिणाम यह हुआ कि सभी में समाचारों की विषयवस्तु एक ही होने लगी. जहां मीडिया की विविधता थी वहीं ‘मोनोपॉली’ होने लगी. प्रजातंत्र में मीडिया की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ गई. जनता इसे चौथे स्तम्भ के रूप में देखने की इच्छुक है, परंतु यह कभी-कभी प्रजातंत्र के लिए ही घातक रूप ग्रहण करने लगा. पत्रकार जब चैनल पर किसी विषय विशेषज्ञ या नेता से यह पूछता है कि आपसे राष्ट्र यह जानना चाहता है. तब दर्शक को पता नहीं होता कि यह राष्ट्र की परिभाषा चंदी एस.एम.एस., कुछ फ़ोन व कुछ ई मेल तक सिमट कर रह गया है.

अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व अधिक बढ़ जाने से अंग्रेजी अखबारों का वर्चस्व इतना कायम हो गया कि राजनीतिक हलकों में अंग्रेजी समाचार पत्रों के समाचार अधिक ध्यानाकर्षक हो गये. अंग्रेजी अखबारों की रद्दी भी मंहगी बिकने लगी. भाषायी पत्रकारिता में कई अखबार केवल इंटरनेट संस्करण के रूप में आने लगे. कई ‘मल्टिपल एडीशन’ हो गये. शोसल मीडिया ने अपना स्थान इतना बना लिया कि अब हर नागरिक संवाददाता, विचारक, फ़ोटोग्राफ़र और पत्रकार बन गया है. ‘सिटिजन जर्नलिस्ट’ शब्द प्रयोग होने लगा. कई देशों में सामाजिक क्रान्ति वा राजनैतिक परिवर्तन में शोसल मीडिया एक हथियार का रूप ग्रहण करने लगा. अर्थात प्रयोगधर्मिता ने जनमाध्यमों का सम्पूर्ण रूप ही बदल डाला है. प्रसार भारती ही केवल ‘पब्लिक ब्राडकास्टर’ रह गये. शेष कमर्शियल हो गये हैं. ‘लाइव व्यू’ का प्रचलन बढ़ गया है. अब तो ओवी वैन सिमटकर एक ‘हैंडबैग’ जैसे उपकरण में आ गया है.

मीडिया की नकारात्मकता आज चिंता का विषय बन गया है.  ‘इलीट माइंड सेट’ के कारण दिल्ली की हत्या की घटना मुख्यपृष्ठ पर परंतु सुल्तानपुर की बड़ी घटना ‘ब्रीफ़ न्यूज़’ में छपती हैं. आज अच्छे कार्य भी हो रहे हैं. आगे बढ़ते भारत को मीडिया से कुछ सकारात्मक चाहिए. मीडिया समाज का पिछलग्गू नहीं है. वह समाज का नेतृत्व करता है. मीडिया समाज से ही निकलकर आया है. यह भी समाज का हिस्सा है- पैसा भी चाहिए, परंतु यह शब्द राष्ट्र के आगे बौने लगते हैं. मीडिया समाज का विशिष्ट अंग या चौथा स्तम्भ क्यों कहा जाता है. इसलिए कि मीडिया सत्ता के करीब है. सत्ता चाहिए तो बेगुनाहों की जुबान बनो. विशिष्ट हो तो समाज को दिशा दो. युगधर्म है कि मीडिया अपने ऊपर स्वनियंत्रण स्थापित करें. मीडिया में भी काफ़ी गलत लोग घुस गये हैं. इन्हें स्वनियंत्रण से हतोत्साहित करना होगा. सज्जन शक्तियों को एकत्रित करना होगा. नागरिक समाज को खड़ा करना होगा. अब केवल टीवी चैनल के रिमोट का बटन दबाकर चैनल परिवर्तन से ही संतोष नहीं होगा. नागरिक खड़ा होगा तो सन्देश जाएगा कि मीडिया भी क़ानून से ऊपर नहीं है. भारतीय दंड संहिता और संविधान निपट लेगा मीडिया से भी, परंतु जनता को जागना होगा तभी अच्छे दिन आ सकते हैं.
                                                                      
                                          (लेखक- लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान, लखनऊ के निदेशक हैं)


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