पाकिस्तानी षड़यंत्र को 1947 में संघ ने किया था विफल
लेखक : अशोक कुमार सिन्हा , उपाध्यक्ष , विश्व संवाद केंद्र, लखनऊ ।
सन् १९४६ के मध्य तक कश्मीर घाटी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएं अपने यौवन पर पहुँच चुकी थीं। चढ़ती उम्र के पढ़े-लिखे जवान संपर्क में आने लगे थे । शाखाओं पर आने वाले स्वयंसेवकों में अधिकांश कश्मीरी हिंदू नवयुवक ही होते थे।श्री गुरूजी का अटर भारत का प्रवास चल रहा था, अतः श्रीनगर में भी एक विशाल जनसभा आयोजित करने की योजना बनाई गई।सभी स्वयंसेवक कार्यकर्ता प्रसन्नता से झूम उठे । यह स्वाभाविक ही था। जिस कश्मीर में ९०% मुसलमान समाज हो, सदियों से हिंदू समाज आस्थाविहीन हो कर चल रहा हो , धार्मिक स्थानों की पवित्रता नष्ट हो चुकी हो और हिंदू समाज स्वाभिमान शून्य होकर जी रहा हो , उस स्थान पर एक अखिल भारतीय शक्तिशाली हिंदू संगठन के नेता का आना एक बहुत बड़ी बात थी।डी.ए.वी. कॉलेज श्रीनगर के प्रांगण में कार्यक्रम हुआ।एक हज़ार से अधिक स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में उपस्थित हुए। नगर के गणमान्य व्यक्तियों को निमंत्रित किया गया था । वे पूरी निष्ठा एवं उत्साह से आए । श्री गुरुजी ने हिन्दू समाज की एकता पर बल देते हुए देशद्रोहियों की हरकतों से सतर्क रहने और उन्हें एकजुट हो कर निरस्त करने का आव्हान किया । इस कार्यक्रम सीआर कश्मीर घाटी में एक विशेष प्रकार का उत्साह का संचार हुआ , जिसका स्पष्ट परिणाम १९४७ के पाकिस्तानी आक्रमण के समय दिखाई पड़ा। देश विभाजन के समय संघ के इन तरुण स्वयंसेवकों ने कश्मीर की रक्षा के लिए जो बलिदान दिए, वे भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य हैं।१५ अगस्त १९४७ को प्रातः श्रीनगर में पाकिस्तानी तत्वों नें गड़बड़ी करनी प्रारंभ कर दी।सभी सरकारी भवनों पर पाकिस्तान के हरे रंग के झंडे फहरा दिए गए। संघ के देशभक्त स्वयंसेवकों ने इस चुनौती को स्वीकार किया । तुरंत संघ कार्यालय पर योजना बनी । दस बजे तक अमीराक़दल के पुल के पास हज़ारों स्वयंसेवक एवं एनी हिन्दू लोग इक्कठे हो गए। इनका राष्ट्रप्रेम देखने लायक़ था ।कश्मीरी पंडितों को डरपोक और कायर कहने वाले तथाकथित चौधरियों ने भी उस दिन दाँतो तले उँगली दबा ली । देखते ही देखते पाकिस्तान के झंडे उतर फेंके गए और नगर के प्रमुख सड़कों पर विशाल जुलूस निकाला गया ।पाकिस्तानी तत्वों को ललकारा गया । सारा वातावरण भारत माता की जय के नारों से गुंजायमान हो उठा।हिंदू समाज का हौसला बढ़ा और महाराज हरि सिंह को भी संघ की शक्ति और भक्ति का रोमांचक आभास हुआ ।
संघ के दो प्रमुख प्रचारकों श्री हरीश भनौत तथा श्री मंगलसेन ने पाकिस्तानी अफ़सरों से संबंध स्थापित किए और कई मास तक मुसलमान बन कर पाकिस्तान की सैनिक गतिविधियों एवं संभावित आक्रमण की पूरी सूचना श्री बलराज मधोक को दी।श्री बलराज मधोक उस समय श्रीनगर के डी ए वी कॉलेज में इतिहास के प्राध्यापक थे।वे जम्मू-काश्मीर राज्य में संघ में सक्रिय थे तथा संघ कार्य के प्रमुख थे ।इन्होंने आक्रमण के मार्ग और तिथि तक की जानकारी दी।महाराजा हरि सिंह ने बलराज मधोक को बुलाया । श्रीनगर में महाराजा के महल में उनकी भेंट हुई।सारी जानकारी प्राप्त होने के बाद महाराजा नें संघ के २०० स्वयंसेवक मांगे ताकि उन्हें शस्त्र दे कर नगर की रक्षा व्यवस्था का दायित्व सौपा जा सके। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए श्री माधोक ने दूसरे दिन प्रातः दो सौ स्वयंसेवक उपस्थित करने का आश्वासन दे दिया । रात्रि दो बजे स्वयंसेवकों को आकस्मिक सूचना घरों में भेजी गई - प्रातः ६ बजे आर्यसमाज मंदिर पहुँचो।प्रातः ६ बजे दो सौ स्वयंसेवक वहाँ उपस्थित थे।सभी कॉलेज के छात्र थे और देश पर बलिदान होने की भावना लेकर घर से आए थे।सामूहिक गणगीत हुई । संघ की प्रार्थना की गई । थोड़ी देर बाद फौजी ट्रक आए और इन तरुणों को ले कर बादामीबाग़ छावनी में पहुंच गए।यहां कुछ सैनिक तैयार खड़े थे। उन्होंने तुरंत स्वयंसेवकों को रायफल चलाना सिखाना प्रारम्भ कर दिया । सायंकाल तक वह युवक मोर्चे पर जा पहुँचे । भारतीय फौजों के आने तक दो दिन तक इन स्वयंसेवक सिपाहियों ने पाकिस्तानी फ़ौज को रोके रक्खा । इतिहास के इस अद्भुत बलिदानी घटना को सब जानते हैं परंतु बोलता कोई नहीं । शेख़ अब्दुल्ला भी जानता था । वही शेख़ अब्दुल्ला श्रीनगर पर आक्रमण की जानकारी मिलते ही कश्मीरी जानता को छोड़ कर परिवार सहित कश्मीर से भाग गया था।घाटी को सम्भाला और बचाया था पहले संघ के इन स्वयंसेवकों ने और बाद में भारतीय सेना ने । भगोड़े शेख अब्दुल्ला ने नहीं ।
1947 में ही स्वाधीनता मिलने के बाद पूरा देश उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। इनमें जम्मू-कश्मीर का हाल सबसे खराब था। वहां राजा हिन्दू था, पर अधिकांश प्रजा मुसलमान। शेख अब्दुल्ला अपनी अलग ढपली बजा रहा था। प्रधानमंत्री नेहरू जी का हाथ उसकी पीठ पर था। पूरे देश के एकीकरण का भार सरदार पटेल पर था; लेकिन जम्मू-कश्मीर में नेहरू जी अपनी चला रहे थे।
24 अक्तूबर को विजयादशमी का पर्व था। हर साल इस दिन महाराजा की शोभायात्रा श्रीनगर में होती थी। हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी उत्साह से इसमें शामिल होते थे। पाकिस्तान समर्थकों ने इस शोभायात्रा पर हमला कर राजा के अपहरण या हत्या का षड्यंत्र रचा। इससे वे पूरे राज्य में अफरातफरी मचाना चाहते थे। उस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सैकड़ों कार्यकर्ता देश की रक्षा के लिए प्रयासरत थे। उन्हें इस षड्यंत्र का पता लग गया।
इससे एक दिन पूर्व बारामूला और उड़ी के मार्ग से सैकड़ों पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के वेष में श्रीनगर की ओर चल दिये थे। उनकी योजना 24 अक्तूबर को श्रीनगर पर कब्जा करने की थी। शोभायात्रा स्थगित करने से राज्य में गलत संदेश जाने का भय था। अतः राज्य प्रशासन ने संघ से संपर्क कर एक योजना बनायी। इसके अनुसार 24 अक्तूबर को सुबह छह बजे तक 200 युवा स्वयंसेवक वजीरबाग के आर्य समाज मंदिर में पहुंच गये।
वहां उन्हें पूरी योजना समझाई गयी। इसके बाद संघ प्रार्थना हुई। फिर उनमें से 150 युवक सैन्य वाहन से बादामी बाग छावनी भेज दिये गये। वहां अगले कुछ घंटे तक उन्हें राइफल चलाना सिखाया गया। पहले नकली और फिर असली कारतूसों ने निशानेबाजी का अभ्यास हुआ। सैन्य अधिकारी उन्हें सीमा पर भेजना चाहते थे। संघ के स्वयंसेवक इसके लिए तैयार थे; पर गहन विचार विमर्श के बाद उन्हें शोभायात्रा की सुरक्षा में तैनात कर दिया गया।
शाम को पांच बजे शोभायात्रा शुरू हुई। सबसे आगे रियासत का प्रमुख बैंड था। उसके पीछे सौ घुड़सवार सुंदर वेशभूषा में अपने भालों पर रियासत का लाल तथा केसरी ध्वज लिये आठ-आठ की पंक्तियों में चल रहे थे। उसके पीछे छह घोड़ों की एक सुंदर और सुसज्जित बग्घी पर राजा, युवराज और उनके दो अंगरक्षक बैठे थे। जरी की अचकन और केसरी पगड़ी में पिता-पुत्र बहुत सुशोभित हो रहे थे। उसके पीछे की बग्घियों में राज्य मंत्रिमंडल के सदस्य तथा कुछ बड़े जागीरदार थे। उनके पीछे फिर सौ घुड़सवार थे। शोभायात्रा धीरे-धीरे अपने निर्धारित मार्ग पर बढ़ रही थी।
जहां से भी यह शोभायात्रा गुजरती, लोग उत्साह से ङ्गमहाराजा बहादुर की जयफ के नारे लगाते थे। राज्य की पुलिस के साथ ही साधारण वेशभूषा में 150 स्वयंसेवक भी पूरे रास्ते पर तैनात थे। झेलम नदी के पुल से होकर शोभायात्रा अमीराकदल के चैक में पहुंची। वहां दर्शकों की अपार भीड़ थी। जैसे ही महाराजा की सवारी चैक के बीच में पहुंची, दर्शकों में से किसी ने काले रंग की गेंद जैसी कोई चीज महाराजा पर फेंकनी चाही। वह वस्तुतः एक बम था; पर तभी दर्शकों में खड़े एक युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया। दो युवाओं ने उस बमबाज को गले से पकड़ा और भीड़ से बाहर खींच लिया। आम लोग शोभायात्रा देखने में व्यस्त थे। उन्हें कुछ पता नहीं लगा।
शोभायात्रा अपने निर्धारित समय पर राजगढ़ के महल में पहुंच गयी। वहां आठ बजे दरबार शुरू हुआ, जिसमें कुछ लोगों को उपहार तथा उपाधियां आदि दी गयीं। नौ बजे महाराजा और उनके परिजन अपने आवास पर लौट गये। इस प्रकार स्वयंसेवकों ने एक भारी षड्यंत्र को विफल कर दिया। इसके दो दिन बाद राजा के हस्ताक्षर से जम्मू-कश्मीर भारत का अंग बन गया।
स्मरणीय है कि इसके पूर्व महाराजा हरिसिंह के दरबारियों, सहयोगियों और मंत्रिपरिषद के मंत्रियों ने पूरा जोड़ लगाया कि राष्ट्र के हिट में जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में कर देना चाहिए। सरदार पटेल और महात्मा गांधी जैसे व्यक्तियों ने भी प्रयास किया था परंतु महाराजा तैयार न हुए । वे नेहरू की सत्ता स्वीकार नहीं करना चाहते थे।उधर पाकिस्तान की हौज कश्मीर के द्वार पर आ पहुंची ।राजनेताओं के प्रयास विफल हो चुके थे । समय की नाजुकता बढ़ती जा रही थी।ऐसी परिस्थिति में सरदार पटेल ने व्यक्तिगत तौर पर मेहरचंद महाजन द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवरकर को विशेष संदेश भेज कर आग्रह किया कि महाराजा को विलय करने के लिए तैयार करने में वे अपने प्रभाव का प्रयोग करें।श्री गुरुजी तुरंत अपने राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति के लिए अपने समस्त पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम को स्थगित करते हुए विमान द्वारा नागपुर से नई दिल्ली और नई दिल्ली से श्रीनगर दिनांक १७ अक्टूबर १९४७ को पहुँचे।श्री प्रेम चंद्र डोगरा और श्री मेहरचंद महाजन के प्रयास से श्री गुरुजी की भेंट १८ अक्टूबर १९४७ को महाराजा हरिसिंह से हुई । भेंट के समय १५-१६ वर्षीय युवराज कर्ण सिंह जांघ की हड्डी टूटने से प्लास्टर में बंधे लेटे हुए थे । मेहर चंद्र महाजन भेंट के समय उपस्थित थे।राष्ट्र की अखंडता के लिए यह एक ऐतिहासिक भेंट थी । जिस महाराजा पर देश के अनेक राष्ट्रीय नेताओं का कुछ भी असर न हुआ , उस महाराजा हरि सिंह ने एक साधारण वेश वाले राष्ट्रीय तपस्वी के आगे सिर झुका दिया ।उसे अपने राष्ट्र की रक्षा और धर्म का महत्व समझ में आ गया ।श्रीगुरुजी ने स्वयंसेवकों को जम्मू - कश्मीर की रक्षा के लिए रक्त के अंतिम बूंद तक बहाने का निर्देश दे कर चले गए । संघ और स्वयंसेवकों ने इस प्रकार पाकिस्तान की कश्मीर हड़पने की एक और चाल विफल कर दी थी ।
सन् १९४७ में ही कश्मीर पर अधिकार करने की प्रबल कुचालों के वशीभूत हो कर पाकिस्तानी सैनिकों ने कबाइलियों के भेष में कोटली नामक कस्बे पर आक्रमण कर दिया था।भारतीय सेना तब तक काश्मीर पहुँच चुकी थी।कोटली के संकरी घाटी में नाले के उसपार पाकिस्तानी सेना के फायरिंग रेंज में भारतीय वायुसेना के विमानों ने जल्दीबाजी में गोलाबारूद, आम्युनेशन और हथियारों से भरे लोहे के बड़े- बड़े बक्से गिरा दिए थे। उसे उठा कर लाना था । कौन लाएगा? यह प्रश्न उठा। पाकिस्तान लगातार एलएमजी गनों से फायरिग झोंक रहा था। भारतीय सैनिकों की संख्या बहुत कम थी।यदि बक्से उठाकर लाए नहीं जाते तो भारतीय सैनिकों के गोला बारूद खत्म हो रहे थे । अपने सैनिकों के निहत्थे मरने की आशंका थी। कोटली का सेना टुकड़ी का कमांडर सोच-विचार कर तुरंत स्थानीय संघ कार्यालय पहुंचा जहाँ उसकी भेंट पंजाब नेशनल बैंक के स्थानीय शाखा के मैनेजर श्री चंद्र प्रकाश जी, जो कोटली संघ शाखा के नगर कार्यवाह भी थे,उनसे हुई ।उन्होंने सैनिक कमांडर की बात और समस्या ध्यान से सुनी और पूछा की कितने स्वयंसेवक चाहिए। सैनिक कमांडर बोला - आठ से काम चल जाएगा ।चन्द्रप्रकाशजी जी , जो देश पर बलिदान होने के लिए भावुक हो रहे थे , ने कहा “ ठीक है एक मैं हूँ - बाक़ी सात को मैं आधे घंटें में ले कर आता हूँ । आप यहाँ निश्चिंत हो कर बैठे ।इतना कह कर चंद्रप्रकाश जी बड़ी फुर्ती से शहर में आए । निर्देश मिलते ही तीस से उपर ही नौजवान स्वयंसेवक तैयार हो कर आ गए।चंद्रप्रकाश जी को उनमें से सात का चुनाव करना कठिन हो रहा था क्यों की सभी चलने को उद्दत हो रहे थे।अंत में अधिकारी की आज्ञा पर सात छाँट लिए गए बाक़ी ने अनुशासनवश रुककर अपने आठों स्वयंसेवकों को भावभीनी विदाई दी।सब इस विदाई का अर्थ समझते थे इस लिए मौन विदाई थी यह ।चन्द्रप्रकाश जी तुरंत प्रतीक्षा कर रहे सैनिक कमांडर के पास पहुँचे तथा तुरंत मोर्चे पर पहुँच गए।कमांडर ने उन्हें पाकिस्तानी सेना की नजरों से बच कर बारूद की पेटियों तक पहुँचने , उन्हें उठाने और फिर सभी बक्सों को अपनी सैनिक टुकड़ी तक पहुँचाने की योजना समझाई।सारी योजना को भलीभाँति समझ कर आठों स्वयंसेवक रेंगते, फिसलते और गिरते हुए उस नाले के करीब पहुँच गए जहाँ उस पार बारूद के बक्शे पड़े हुए थे। नाला तो पानी से भरा हुआ था और बहाव भी तेज था । स्वयंसेवकों ने नाला पर किया । एक-एक स्वयंसेवकों ने बक्सा उठाया और पुनः नाले को पार करने लगे ।लौटते समय चंद्रप्रकाश जी और वेदप्रकाश को गोलियां लग गई क्यों की नाले में हलचल से पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को खबर लग गई थी । छ स्वयं सेवक तो बक्से के साथ वापस आ गए परंतु वे पुनः अपने साथियों को वापस लाने के लिए नाला पार कर उनके शरीर को पीठ पर बाँध कर वापस आने लगे । दुर्भाग्यवश दो और स्वयंसेवकों को कनपटी में गोली लगी । अब जीवित चार नौजवानों नें चार शवों को लादा और नाला पर कर अपने सैनिकों के पास सुरक्षित लौट आए। आठ जीवित गए थे , चार ही जीवित लौटे। सबको आंखे नाम थी।लक्ष्य पूरा तो हुआ परंतु चार स्वयंसेवक बलिदान हो गए। शयनकक्ष नगरवासियों के समक्ष चार चितायें जलाई गई परंतु कोटली नगर की रक्षा हो गई । पाकिस्तानी षड्यंत्र विफल हुआ।
इसी उपरोक्त घटना के कुछ समय बाद ही कोटली नगर से २० किलोमीटर दूर अटर पक्षिम दिशा में पलंधरी से समाचार आया कि १२०० सौ हिन्दू सिखों को दुश्मन ने घेर लिया है तथा उनका जीवन खतरें में है । सेना के अधिकारियों ने घटना के गंभीरता को समझा परंतु उनके पास केवल नगर की सुरक्षाभर ही सैनिक थे।संघ के स्वयंसेवकों ने सैनिक कमांडरों को समझाया कि हमारे लगभग एक सौ स्वयंसेवक आप की सहायता के लिए तत्पर है आप तुरंत एक टुकड़ी सेना भेज कर घिरे भारतीयों की जान बचाइए। तुरंत सेना नें ३१ सैनिक लेफ्टिनेंट ईश्वर सिंह के नेतृत्व में घटनास्थल को रवाना किया साथ में १०० के लगभग स्वयंसेवक भी थे।कोटली के मुसलमान तहसीलदार ने गद्दारी करते हुए इन सैनिकों की रवानगी की गुप्त सूचना पाकिस्तानी सेना को भेज दी ।पलंधरी पहुँचने पर सेना व स्वयंसेवकों का सामना पहाड़ी पर चढ़ते समय पाकिस्तानियों से गोलीबारी के साथ हो गया । दुश्मन ऊँचाई पर था ।अनपेक्षित आक्रमण और गोलाबारी के बीच भी हरेक सैनिक और स्वयंसेवकों ने अनेक दुश्मनों को मार डाला ।साधनों की कमी होने पर भी कई घंटों तक संघर्ष चला । एक भी सैनिक या स्वयंसेवक ने पीछे मड कर नहीं देखा। अनेक शत्रुओं को यमलोक पहुँचा कर ये सब भी देश की सेवा में एक-एक कर बलिदान हो गए। सैनिकों और स्वयंसेवकों के रक्त से लाल पलनधरी की यह भूमि की मिट्टी को आज भी मस्तक पर लगाने पर हृदय में बलिदानी उमंगें हिलोरें लेने लगती हैं ।
भारत की सेना जब अल्प समय में सूचना पा कर हवाई मार्ग से श्रीनगर हवाईअड्डे पहुँचने की योजना बना रही थी तब उन्हें सूचना मिली की वहाँ की हवाई पट्टी पर हालात बहुत ख़राब है। रनवे को जगह-जगह जेहादी तत्वों के द्वारा क्षतिग्रस्त कर दिया गया है ।सेना ने कश्मीर में संघ से संपर्क
किया और स्वयंसेवकों की सहायता से तत्काल हवाईपट्टी की मरम्मत की गई और उसी दिन भारतीय सैनिक हवाईजहाज से श्रीनगर हवाईअड्डे पहुंचे।इस प्रकार जिहादियों की यह षड्यंत्र भी संघ की मदद से विफल हुआ था।
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