भारत में हुए एक सर्वेक्षण में यह स्पष्ट
हुआ है कि 42 प्रतिशत से अधिक किसान
अपनी खेतिहर ज़मीन बेचकर किसी वैकल्पिक रोजगार
अथवा व्यवसाय की तलाश में हैं. इस सर्वेक्षण के नतीजों में एक सन्देश स्पष्ट है
कि देश की कृषि व्यवस्था, ग्रामीण जीवन तथा ग्रामीण विकास के प्रति घोर लापरवाही, उदासीनता और भावशून्यता हर तरफ़ से दिखाई गई है. कृषि को ही आज किसान ख़ुद ही
घाटे का सौदा मानता है किसान. वर्तमान केन्द्रीय सरकार के घोषणा पत्र में संकल्प लिया
गया था कि किसानों की उपज का कम से कम डेढ़ गुना मूल्य अवश्य दिलाया जाएगा. वहीं गन्ना, कपास, धान और मूंगफली जैसी नगदी
फ़सलें उगाने वाले किसानों की दुर्दशा देखकर नहीं लगता कि निकट भविष्य में ऐसा कुछ हो
पायेगा. आलू, गेहूं, दलहन और तिलहन उगाने वाले किसानों का तो कोई पुरसाहाल
ही नहीं है.
आज भारतीय किसानों के समक्ष सबसे
बड़ी चुनौती किसी भी प्रकार से अपने को बचाए रखने की है. भूमि लाभ कमाने वाली एक आर्थिक
संपत्ति है लेकिन वह असक्षम हाथों में है. देश की राष्ट्रीय आय में कृषि
उपज क्षेत्र की हिस्सेदारी लगातार घटते हुए 14.5 फ़ीसदी से भी नीचे आ गई है. देश की 70 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों अर्थात अधिकांश किसानों
की है. वहीं 60 करोड़ से अधिक लोग प्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर
हैं. उनके सामने अन्य कोई विकल्प
नहीं है इसके बावजूद वह किसानी से ऊब चुके हैं. आत्महत्या कर लेने के एकमात्र
विकल्प के सिवा उनके पास अब कोई चारा शेष नहीं दिखाई पड़ता है. देश की आत्मा और अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले गांवों में सबकुछ ठीक नहीं है.
विडंबना और विषाद का विषय है कि गांवों की पूरी हकीकत, किसानों की आवाज़ मीडिया के माध्यम से देश के समक्ष
नहीं आ पा रही है. कृषि जोतों का लगातार विभाजन हो रहा है. आबादी निरंतर विस्फोटक की
तरह बढ़ रही है. खेतिहर ज़मीनों का क्षेत्र निरंतर सीमित होता जा रहा है. यह केवल भारत में ही नहीं
पूरी दुनिया में एक साथ हो रहा है. देश में 30 फ़ीसदी सीमान्त किसान हैं, जीनके पास एक हेक्टेयर से भी m ज़मीनें बचीं हैं. खेतिहर ज़मीन कम होने से ग्रामीण
जनसंख्या ने ऐसे क्षेत्र की ओर पलायन करना ज्यादा उचित समझा जहां रोजगार के अवसर अधिक
उपलब्ध हों. इस पलायन ने देश की मूल आत्मा को घायल कर दिया है. कई नवीन सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ख़तरे
बढ़ गये हैं. भूमंडलीकरण से जहां किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर होनी चाहिए थी उसके बरअक्स
हालात बदतर हो गए हैं.
गांवों की सामाजिक स्थितियां ऐसी
हैं कि विवाह योग्य किसी लड़की का बाप गांवों में अपनी बेटी प्राथमिकता के आधार पर ब्याहना
नहीं चाहता है. जो भी थोड़ा योग्य है, हाथ-पाँव और दिमाग चला सकता है
वह शहर की ओर ही भागता है. भले ही वह रिक्शा चलाकर अपना पेट भरने को मजबूर हो. गांवों में कौशलयुक्त और प्रशिक्षित
श्रम शक्ति का दायरा लगातार सकरा होता जा रहा है. वहीं शहरों की आबादी और बसाहट तेजी से कुरूप और अनियंत्रित हो रही है. यदि गांवों में पढ़ा-लिखा तबका या शहरी नौकरियों से अवकाश प्राप्त योग्य
व्यक्ति अपनी ज़मीन की ओर लौटना भी चाहते हैं तो गांवों में उनका सामना होता है अशिक्षित
या अल्पशिक्षित चालबाजों से. अशिक्षा, गंदगी, भ्रष्टाचार, मच्छर, कीचड़, मुकदमेबाज़ी और तिकड़मबाज़ों से ऊबकर वह मज़बूरन शहर की ओर पुनर्पलायन करने को उन्मुख होता है.
'मनरेगा' जैसी योजनाओं ने यद्यपि ग्रामीण पलायन को कुछ हद
तक रोक पाने में सफ़लता अर्जित की है. वहीं इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार ने काफ़ी हद तक निराश
भी किया है. सरकारी योजनाओं के चमकते विज्ञापन टी.वी. पर देखकर तो यही लगता है कि गांवों
की स्थिति सुधर रही है. वहीं उसके ग्राउंड जीरो पर जाने से पता चलता है कि निराशा के
सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला. भारतीय संविधान में प्रत्येक नागरिक को समान माना
गया है परन्तु शासन द्वारा संविधान की उपेक्षा करके शहरी नागरिकों की तुलना में और ग्रामीणों के साथ भेदभाव किया जा रहा है. स्वच्छ पेयजल, स्वास्थ्य सुरक्षा, बिजली, राशन वितरण, संचार, सड़क, शिक्षा तथा वातावरण अभी मामलों में गांव उपेक्षित हैं, वहीं शहरी आबादी को ख़ास तवज्जो दी जा रही है.
शहरी मतदाता सभी दलों की सरकारों
के लिए महत्वपूर्ण हैं. गांवों में कृषि और उस पर निर्भरता वाले उद्योगों की नगण्यता
और शहरों में रोजगार के अधिक अवसर ग्रामीण
पलायन को बढ़ावा दे रहे हैं. बजट के लिए 70 फीसदी राजस्व गांवों से अता है. वहीं चाहें उच्च शिक्षण संसथान
हों, चाहें उद्योग धंधे हों, या उच्चतर स्वास्थ्य सेवाएं
हों गांव इसके लिए और यह गांवों के लिए नहीं बने हैं. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र
गांवों में और मेडिकल कालेज और यूनीवर्सिटी शहरों के लिए हैं. पढने वाले विद्यार्थी गांवों
में हैं पर शैक्षणिक संस्थान शहरों में हैं. देश की कुल 25 फ़ीसदी आबादी का 75 फ़ीसदी आबादी ग्रामीणों से अधिक लाभ उठा रही है. शक्ति, सत्ता, पूंजी और संसधानों का इतना असमान और बेढंगा विकेंद्रीकरण तो निश्चय ही अन्याय और विसंगतियों को जन्म देगा.
पूर्व में गठित योजना आयोग के सिर
पर भूमंडलीकरण और उदारीकरण का भूत सवार था. उसमें जो विशेषज्ञ थे वे या
तो विदेशी शिक्षा प्राप्त अर्थशास्त्री थे या वे थे जिनको गांवों से कुछ भी विशेष लगाव न था. वे आंकड़ों पर विशेष जोर देकर
शहरीकरण को ही देश का सच्चा विकास मानते थे. उनका विश्वास था कि औद्योगिक
उत्पादन बढ़ाकर हम देश का विकास कर सकते हैं. पूर्व में नीतियाँ भी ऐसी
थीं तथा योजनायें भी ऐसी बनीं थीं कि ग्रामीण पलायन कम होने के बजे और अधिक बढ़ता चला
गया. शहरी और ग्रामीण आबादी का
अंतर और चौड़ा होता चला गया. औद्योगिक विकास दर से यद्यपि कृषि विकास दर प्रभावित
होती है परन्तु नीतियों में कुछ मूलभूत खामियां प्रत्येक सरकारों में रहीं जिसके कारण
लगातार कृषि क्षेत्र उपेक्षित होता गया. जिसके चलते ग्रामीण पलायन बदस्तूर ज़ारी रहा. अगर वक्त रहते इस पलायन को
रोका नहीं गया तो 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा भी कभी सफ़ल नहीं हो सकता है. संविधान में सभी नागरिकों
को समान अधिकार के उलंघन का महापाप और चढ़ता जाएगा.
पिछली सभी सरकारों को किसान संघों
और भारतीय किसान आयोग की चेतावनी निरंतर मिलती रहीं हैं. सभी सरकारों ने अपना चुनाव-चिन्ह
और सरकारी नारे भी ग्रामीणों को लुभाने वाले ही रक्खे मगर काम ठीक उल्टा ही किया गया. आम आदमी का अर्थ ही लिया जाता
है 'भारतीय किसान' मगर सबसे अधिक उपेक्षा उसकी ही की गई है. अगर सरकारी नीतियों की ओर
हम ध्यान दें तो पायेंगे कि कमी सरकारी इच्छाशक्ति और नीतियों के निर्माण में है. कृषि विकास दर यदि 2.5 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है तो ओद्योगिक विकास दर 4 फ़ीसदी की विकास दर से. कृषि उत्पादों में यदि 2.5 फीसदी का इज़ाफा हो रहा है तो कृषि यन्त्र, खाद, बिजली, डीजल जैसे औद्योगिक उत्पादों
की कीमत 4 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है. यही अंतर गांव और किसानों
को निरंतर गरीब बना रहा है. आज खेती पूर्णतः घाटे का व्यवसाय बनकर रह गई है.
राज्य और केंद्र सरकारें, कृषि विभाग और कृषि मंत्रालय बनाकर संतोष किये बैठीं
हैं. जिसमें वैज्ञानिक कम नौकरशाह
अधिक हैं. जो वैज्ञानिक हैं भी वो काम कम, ढोंग अथवा टिटिम्बा ज्यादा कर रहे हैं. रासायनिक खादों का अधिकाधिक प्रयोग खेतिहर ज़मीनों
को बंज़र बना रहा है. जैविक खेती का नाटक भी खूब जोरों पर है. पशुओं की संख्या ही घट रही
है तो देशी खाद आयेगी कहाँ से. परिणाम यह हो रहा है कि भूमि जहां बंजर हो रही है. वहीं उत्पादन और उत्पादकता
एक बिंदु पर ठहर गई है. अब चाहें जितना ही अधिक उर्वरक प्रयोग करें उत्पादकता और उत्पादन
बढ़ेगा ही नहीं.
नई-नई बनी मोदी सरकार ने योजना आयोग को भंग करके नया 'नीति आयोग' (नेशनल इन्स्टीट्यूट फ़ार ट्रान्सफारमिंग इंडिया)
का जतान कर क्रांतिकारी काम किया है. वहीं दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. अरविन्द को उसका उपाध्यक्ष बनाया गया है. कई विषय विशेषज्ञों और सम्बंधित
मंत्रियों के साथ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को उसका सदस्य बनाया गया है. उम्मीद का हौसला बंधता दिख
रहा है और हम सब इस बात के लिए आशान्वित हो सकते हैं कि यह नीति आयोग ऐसी नीतियों को
लागू करेगा, जिससे कृषि विकास दर और औद्योगिक
विकास दर की असमानता दूर होगी. कृषि क्षेत्र की विकास दर 4 फ़ीसदी के आंकड़े को प्राप्त कर सकेगी. भूमि संरक्षण, जल संसाधनों और स्रोतों का का बेहतर इस्तेमाल, तथा जैव विविधता और प्रर्यावरण का संरक्षण हो सकेगा.
हम उम्मीद कर सकते हैं कि समान रूप से क्षेत्रवार कृषि को विकसित करने की कार्ययोजना
बनेगी. घरेलू खपत और विदेशी निर्यात की संभावनाओं को देखते हुए कृषि उत्पादन को नियोजित
किया जा सकेगा. टिकाऊ खेती के लिए बेहतर प्रयास हो सकेंगे. कृषि शोध में आई जड़ता को समाप्त
करते हुए ऐसे नये अनुसंधान हो सकें जो देश की आवश्यकता के अनुरूप हों. विदेशी नकल कम
होगी और दिखावे के लिए कागजी काम के बजाय वैज्ञानिक वास्तविक शोध के लिए प्रेरित हो
सकेंगे तो बेहतर तस्वीर देखने को मिल सकेगी. कृषि विश्वविद्यालयों का बांझपन
दूर हो सके और वहां जमीन से जुड़े शोध विद्यार्थी और स्नातकों-परास्नातकों का निर्माण
हो. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद
तथा अन्य शोध संस्थानों का यथास्थितिवाद दूर हो. आंतरिक गुटबाजी, दिखावे का अहंकार तथा प्रमोशन
की हताशा-निराशा का वातावरण समाप्त
होकर नये उत्साह से कार्य प्रारम्भ हो सके.
ग्रामीण योजनायें इस प्रकार संशोधित
की जा सकें जिससे भ्रष्टाचार को दूर करते हुए जमीनी कार्य हो सके. यदि प्रधानमंत्री के आदर्श
गांव जयापुर में सबकुछ तेजी से हो सकता है तो तो और गांवों में क्यों नहीं. इसके लिए
नौकरशाही पर कड़ा नियंत्रण स्थापित करना होगा. तभी सकारात्मक परिणाम प्राप्त
होंगे. क्या नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री और नया 'नीति आयोग' इस कसौटी पर खरा उतर सकेगा. क्या लापरवाही और उदासीनता
के वातावरण में पले, बढ़े और काबिज नौकरशाह भी इस बदलाव को स्वीकार करेंगे. शासन उद्योग और अवस्थापना में तो रूचि दिखा रहा है परन्तु कृषि की
ओर उसकी दृष्टि नहीं है. कहीं भूमंडलीकरण की चकाचौंध इस निति आयोग को भी योजना
आयोग तो नहीं बना देगा. फ़िलहाल आशावादी होने में ही अभी भलाई है. कुछ वक्त इस नई सरकार को और देना ही
न्यायसंगत होगा.
(लेखक: उत्तर प्रदेश गन्ना सेवा के गन्ना विकास और चीनी उद्योग में 38 वर्षों तक मुख्य प्रचार अधिकारी रहे हैं. वर्तमान में 'लखनऊ पत्रकारिता एवं जनसंचार
संस्थान' के निदेशक हैं.)
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