Saturday 10 October 2020

 ध्येय साधना के कर्मयोगी अशोक जी सिंहल 

अशोक सिन्हा
हिन्दू जागरण के सूत्रधार, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, संघ के प्रखर प्रचारक, अध्यात्म पुरुष अशोक जी सिंहल का जन्म 27 सितम्बर 1926 को आगरा में माता श्रीमती विद्यावती और पिता श्री महावीर सिंहल जी के धार्मिक परिवार में हुआ था। इनके पिता बिजौली (अलीगढ़) के मूल निवासी थे। डिप्टी कलेक्टर के पद पर आसीन थे। धनधान्य से भरपूर परिवार विशाल उद्योग के संचालन के साथ धार्मिक वातावरण से ओतप्रोत था। आर्य समाज के नारी उत्थान कार्यक्रमों से प्रेरित होकर इनकी माता ने कक्षा 10 तक की शिक्षा प्राप्त की थी। नाना शहर के जाने-माने धनी भूमिपति थे। संत, मुनियों, सन्यासियों व धार्मिक विद्वानों का घर में निरन्तर प्रवास रहने के कारण बालपन से ही अशोक जी धार्मिक प्रवृत्ति के बन गये थे। सात भाई और एक बहन के क्रम में अशोक जी चौथे नम्बर पर थे। पूरा परिवार उच्च शिक्षा प्राप्त था। अशोक के छोटे भाई भारतेन्दु सिंहल एक आईपीएस अधिकारी थे जो उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक पद से अवकाश ग्रहण किये। कुण्डली में लिखे ग्रह नक्षत्रों का योग बता रहा था कि सभी भाई-बहनों में अशोक जी निराले तथा धनुर्धर योग के कारण विश्वविख्यात कर्मयोगी बनेंगे। आगे चलकर यह हिन्दू चेतना के प्रतीक पुरुष बने। कक्षा आठ में उन्होंने महर्षि दयानन्द की पूरी जीवनी पढ़ ली थी और उनके आदर्शों को आत्मसात कर लिया था। 1942 में जब वे प्रयाग में 11वीं के छात्र थे पढ़ थे, उसी समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह उपाख्य रज्जू भइया के सम्पर्क में आये। माता जी की अनुमति लेकर वे राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा जाने लगे। 
1947 में देश विभाजन के समय कांग्रेसी नेता जब सत्ता प्राप्ति की खुशी मना रहे थे तब देशभक्त अशोक जी के हृदय में पीड़ा थी कि भारत माता के टुकड़े हो गये। वे संघ कार्य को पूर्ण समर्पित हो गये। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा तो अशोक जी सत्याग्रह कर जेल गये। वहां से लौटने के बाद आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से मेटलर्जी विषय में इंजीनियरिंग की स्नातक उपाधि प्राप्त की। यहीं से उन्होंने राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक जीवन को अंगीकार किया। उनका सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर जी से अत्यन्त घनिष्ठï सम्बन्ध बना। प्रचारक जीवन में वे लम्बे समय तक कानपुर में रहे। यहां उनका सम्पर्क श्री रामचन्द्र तिवारी नामक विद्वान से हुआ। वे गृहस्थ होते हुए भी संत थे। वेदज्ञ थे। गीता पर भी उनका विलक्षण ज्ञान था। अशोक जी पर गोलवलकर जी तथा रामचन्द्र जी का अमिट प्रभाव पड़ा। यहां उनका आध्यात्मिक ज्ञान तेजी से जागृत हुआ। 
वर्ष १९७५ से १९७७ तक देश में आपातकाल एवं संघ पर प्रतिबन्ध रहा। अशोक जी की संगठनात्मक क्षमता गजब की थी। वे इन्दिरा गांधी के तानाशाही के विरुद्घ संघर्ष में जनसंगठन खड़ा करते गये। आपातकाल के बाद वे दिल्ली के प्रान्त प्रचारक बनाये गये। 1981 में डॉ. कर्ण सिंह के नेतृत्व में दिल्ली में एक विराट हिन्दू सम्मेलन हुआ जिसके पीछे संघ की शक्ति और अशोक जी का पूरा परिश्रम, कौशल, क्षमता काम आया। अशोक जी वेदों के प्रचार में और अधिक समय देना चाहते थे और इसकी अनुमति सरसंघचालक जी ने दी थी परन्तु अशोक जी ने संघ के संगठन को ही अपना समझ कार्य करते रहे। इसके बाद 1982 में वे विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त सचिव बने। 1986 में वे वीएचपी के महामंत्री बने। यहां से श्रीराममन्दिर आन्दोलन को उन्होंने इस प्रकार संचालित किया कि वह नवनिर्माण का आन्दोलन बन गया। वे अपनी संगठन की क्षमता से श्रीराममन्दिर आन्दोलन को एक नया आयाम दे गये। उन्होंने जनआकांक्षा को एक सुन्दर स्वप्न बना लक्ष्यभेद किया और श्रीराममन्दिर आन्दोलन को गांव-गांव पहुंचा दिया। देश की सामाजिक और राजनैतिक दिशा बदलने लगी। उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद को अन्तरराष्टï्रीय स्वरूप दे दिया। 
वे अपने जीवन के महत्वपूर्ण संकल्पों  को मील का पत्थर बनाते गये और विश्व का हिन्दू उसी रास्ते पर चलता गया। उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के काम में धर्म जागरण, सेवा, संस्कृत, परावर्तन आदि नये आयाम जोड़ दिया। वे मूल बीज रूप में एक सत्याग्रही थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उन्होंने राष्टï्रीयता की राह चुनी थी। उन्होंने अपनी आध्यात्म साधना को राष्टï्र आराधना का रूप दे दिया। वे दशकों तक छात्र युवा आन्दोलनों के प्रेरक बने। आपातकाल में पुलिस उन्हें खोजती रह गई। वे भूमिगत आन्दोलन चलाते रहे। वे अपराजेय योद्घा की तरह किसी के पकड़ में नहीं आये। मीनाक्षीपुरम धर्मान्तरण की घटना को उन्होंने चुनौतीपूर्ण माना और विराट हिन्दू समाज को खड़ा करने का कार्य किया। यद्यपि बचपन में अपने मधुर स्वर से अच्छे गीतकार थे। संघ गीत को वे बड़े लय व सुर से गाते थे। यही गीतकार राष्टï्रीयता का संगीतकार बन गया। उन्होंने भारत भर के सभी मत पंथ सम्प्रदायों का गहरा अध्ययन कर उनसे सम्पर्क किया और सहमति बना कर उन्हें एक मंच पर ले आये। धर्मसंसदों में पीछे रह कर बड़ी-बड़ी भूमिका निभाते रहे। 
मन्दिर आन्दोलन 1989 से 1992 तक अपने चरम दौर से गुजरा। लाखों लाख भारतीय उनके आह्वïान पर एकत्र होते रहे। 1992 में कारसेवकों का ऐसा नेतृत्व किया कि लाखों व्यक्तियों ने ऐसा आन्दोलन खड़ा किया जो इतिहास बन गया। सीबीआई ने पांच अक्टूबर 1993 में अपनी पहली चार्जशीट में अशोक सिंहल का नाम शामिल कर आरोप पत्र लखनऊ के स्पेशल कोर्ट में दाखिल किया। जिसमें बालासाहेब ठाकरे, लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती, विनय कटियार, तत्कालीन जिलाधिकारी रामशरण श्रीवास्तव सहित कुल 40 लोग आरोपी  बनाये गये। श्रीरामजन्मभूमि पर भव्य मन्दिर का स्वप्न देखते-देखते वे 17 नवम्बर 2015 को चिरनिद्रा में लीन हो गये। 
नरेन्द्र मोदी की सरकार बनाने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी। मोदी सरकार बनने के डेढ़ साल बीतने पर उन्होंने डॉ. सुब्रह्ण्यम स्वामी को 30 सितम्बर को आगे कर श्रीरामजन्मभूमि आन्दोलन पर एक प्रेस वार्ता की। बात मन्दिर निर्माण में कानूनी अड़चनों पर ध्यान खींचने और समाधान ढूढऩे की थी। यह एक यर्थातवादी और व्यवहारिक विचार था। एक राष्टï्रीय सेमिनार की घोषणा की गई। उनके उम्र के 90 वर्ष पूर्ण होने पर सिविल सेन्टर में एक अभिनन्दन समारोह हुआ। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के अनुरोध पर उन्होंने एक गीत गाया। गीत के बोले थे - यह मातृ भूमि मेरी, यह पितृभूमि मेरी....। यह गीत उनके जीवन का आखिरी गीत बन गया। 
वे अपने सम्पूर्ण जीवन में सादगी, सेवा, सत्य साधना और समाज परिवर्तन के बीज थे जो समय पाकर बटवृक्ष हुये। हिन्दू जागरण के वे पुरोधा थे। कार्यनिष्ठïा में डूब कर कार्य करने वाले स्वयंसेवकों और आम भारतीय जन के वे पथप्रदर्शक बन गये। वे कार्य का बीड़ा उठाते थे और अपने दायित्व निर्वहन को पूरी निष्ठïा से पूरा करते थे। उन्होंने संसार और राष्टï्र को अपना परिवार माना। वे हिन्दू समाज को संगठित करने का आधार सामाजिक समरसता को मानते थे। काशी के डोमराजा के यहां खिचड़ीभोज का कार्यक्रम उन्होंने बड़ी सफलतापूर्वक किया। उन्होंने बिना किसी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के हिन्दू समाज के सार्विक हितों की चिन्ता की। वे समाज के अभिभावक बने। उनका जीवन भारतीय जीवनशैली और संस्कारों को चरितार्थ करता है। उनकी उग्र तपस्या, संवेदनशील निस्पृह और नि:स्वार्थ व्यक्तित्व, दृढ़ व स्पष्टï नेतृत्व, विचार, आचार सभी कुछ हमारा मार्ग दर्शन करते रहेंगे। 
महामना मालवीय मिशन के वे संरक्षक थे। प्रत्येक अधिवेशनों में वे अवश्य आते थे। प्रचारक जीवन से संरक्षित कुछ धन वे अपने योगदान के रूप में दान करते थे। मालवीय जी के प्रति उनकी निष्ठïा व आचरण अटूट थी। एकल विद्यालय अभियान के वे प्रेरणापुंज थे। 1999 में अभियान को एक लाख विद्यालय का लक्ष्य देकर और इसे ब्रम्हास्त्र की संज्ञा देकर इसके प्रयोजन को स्पष्टï किया। झारखण्ड से लेकर अमेरिका तक इसकी गूंज पहुंचाने में अपनी अहम भूमिका निभाई। वे मानते थे कि एक विद्यालय अभियाना देश की समस्याओं का समाधान करेगा। 
बनवासी कल्याण आश्रम के अखिल भारतीय प्रचारक श्याम गुप्त जी कहते हैं कि उन्हें पांचजन्य के पूर्व सम्पादक भानुप्रताप शुक्ल जिन्हें कैंसर हो गया था उन्हें लगा कि वे ज्यादा दिन जीवित नहीं रह पायेंगे तो वे अशोक जी के पास आकर एक घटना बताने लगे - 1972 की बात है परमपूज्य गुरु गोलवलकर जी के कैंसर का आपरेशन हो गया था। उसके बाद वे उत्तर प्रदेश के प्रवास पर आये थे। मैं उनकी सेवा में नियुक्त था। एक दिन एकान्त मिल गया। मैंने उनसे धृष्टïतापूर्वक पूछा कि आप की आयु तो अब निश्चित हो गई है तो फिर आप के बाद हिन्दुत्व का काम कौन करेगा ? एक क्षण शान्त रह कर वे कहने लगे कि मैं अदृश्य रहकर यह काम करता रहूंगा। किन्तु फिर मैंने पूछा कि हमें दृश्यमान कौन दिखाई देगा तो उन्होंने धीरे से कहा 'अशोक सिंहलÓ। हम सब के लिए वे साक्षात परमपूज्य गुरुजी के अवतार थे। 1973 में परमपूज्य गुरुजी का निधन होता है और यही वह वर्ष भी जब अशोकजी यमराज से वापस लौटकर पुन: जीवन प्राप्त करते हैं। अध्यात्म के शिखर पुरुष परमपूजनीय गुरुजी के प्रतिनिधि के नाते माननीय अशोकजी ने संत महात्माओं को एक मंच पर लाने का जो अद्भुत कार्य करके दिखाया, हिन्दुत्व के पुनर्जागरण के इतिहास में वह सदा स्मरणीय रहेगा। 
गो वंश की रक्षा में वे सदैव सक्रिय रहे। प्रतिदिन गो माता का दर्शन करना उनकी आदत थी। गंगा रक्षा के लिए वे आमरण अनशन पर बैैठ कर स्वयं के जीवन की बाजी लगाने में वे पीछे नहीं रहे। पूज्य गोविन्द गिरी जी के साथ वेद विद्यालयों की श्रृंखला खड़ी करने में उनका सहयोग विलक्षण था। अपने पैतृक आवास से लेकर डेनमार्क के महेशयोगी के मुख्यालय तक वेद भगवान की प्रतिष्ठïा हेतु अहर्निश चिन्ता करते हुए वे अन्तिम समय तक सक्रिय रहे। कहां वे तो 16 नवम्बर से दिल्ली में आयोजित चतुर्वेद स्वाहाकार यज्ञ की ज्वाला में आहुति देने के आयोजन की चिन्ता कर रहे थे और कहां 17 नवम्बर को ही स्वयं वेद भगवान की यज्ञशाला की ज्वाला बनने का फैसला कर बैठे। वे विजीगीषु भावना के धनी थे। श्रीरामजन्मभूमि आन्दोलन के लिए सम्पूर्ण विश्व में याद किए जायेंगे। राजनीति में हिन्दू चेतनानुकूल परिणाम आये हैं। सर्वोच्च न्यायालय से श्रीराममन्दिर पर अंतिम फैसला आने से सभी बाधाएं दूर हो गई हैं तथा श्रीरामजन्मभूमि का पूजन भी पांच अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कर दिया है। मन्दिर की नींव खोदी जा रही है। शीघ्र ही विश्वस्तरीय भव्य मन्दिर बनकर तैयार होगा। अयोध्या का विश्वस्तरीय विकास व कायाकल्प होगा। अयोध्या एक अन्तरराष्टï्रीय केन्द्र बन रहा है। इन सबके पीछे अशोक सिंहल जी का प्रयास, संकल्प और अथक परिश्रम है- यही स्मरण आता है। उनका जीवन हमें मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा नामक ब्रह्मï बिहारों में चित्त लगाने का संदेश दे रहा है। 
लेखक विश्व संवाद केन्द्र अवध के सचिव व पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं। 

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