Saturday 17 October 2020

 भारतीय मत पंथ सम्प्रदाय के सम्बन्ध में संघ का दृष्टिकोण

अशोक कुमार सिन्हा, विश्व संवाद केन्द्र प्रमुख अवध, लखनऊ। 

विश्व में लगभग एक सौ से ऊपर ईसाई, 56 देश इस्लामिक और सात देश बौद्ध हैं परन्तु इतने देशों में कहीं भी पंथ निरपेक्ष राष्ट्र नहीं है। भारत में 80 प्रतिशत जनसंख्या बहुसंख्यक हिन्दुओं की है। फिर भी भारत एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र नहीं है। इसका कारण भारत में हिन्दू समाज का बहुसंख्यक होना तथा उनका मानवता में विश्वास होना है। भारतीय धरती पर जो भी मत पंथ सम्प्रदाय हैं उनमें एक अभूतपूर्व एकता का मूल भाव विद्यमान है। मत का अर्थ है विचार या दर्शन। पंथ से अभिप्राय यह है कि विचार या दर्शन सनातन काल से चले आ रहे प्राचीन विचार ही मूल है। परन्तु पद्धति विलक्षण और आचार नूतन है। पंथ की स्थापना हेतु नये नियम या उप नियम बनाया जाता है। पंथ से जुड़ी रीति रिवाज, परम्परा, पूजा पद्धति और दर्शन का समूह ही उसे नवीनता प्रदान करता है। परन्तु उनका मूल दर्शन भारत में चली आ रही सनातन प्रवाह से ही जुड़ा रहा है। जहां सम्प्रदाय का अर्थ है वहां यह अभिप्राय लिया जाता है कि भारत की जो प्राचीन जीवन पद्धति एवं सनातन दर्शन विकसित हुआ है उसकी अलग-अलग परम्परा पर विचारधारा मानने वाले वर्गों को सम्प्रदाय कहते हैं। जहां गुरु-शिष्य परम्परा चलती है। भारत में कुल नौ दर्शन हैं, जिनमें छह वैदिक दर्शन हैं। जैसे न्याय, वैशेषिक सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और वेदान्त। तीन अवैदिक दर्शन हैं जो चार्वाक, बौद्ध और जैन कहे जाते हैं। महानुभाव हिन्दू धार्मिक सम्प्रदाय है। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, सिक्ख पंथ, जैन व बौद्ध पंथ यह सब एक ही मूल तत्व को लेकर चलते हैं। 

’’आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः’’ अर्थ है कि प्रत्येक दिशा से शुभ एवं सुन्दर विचार हमें प्राप्त हों। यह भारतीय प्राचीन विचार है। वेदों में मानवीय पक्ष को एक और श्लोक प्रकट करता है। 

‘‘मित्र स्याह चक्षुवा सर्वाणि भूतानि समीक्षे 

मित्रास्थ चक्षुषा समीक्षा महे।।’’ (यर्जु 0३६/१८)

‘‘हे मनुष्य क्या सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूं। हम सब परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें।’’

   यह भारत की सनातन विचार दर्शन है जिसे हम धर्म मानते हैं। ‘एकम सत विप्रं बहुधा बदति’ अर्थात सत्य एक ही है जिसे विद्वान विभिन्न नामों से पुकारते हैं। अन्य मत पंथों के साथ तालमेल कर सकने वाला एकमात्र विचार जो भारत का विचार है, वह हिन्दुत्व का विचार है। तालमेल का आधार मूल में एकत्व है। प्रकार विविध हैं और विविध होना भेद नहीं है। धर्म सनातन है। मत, पंथ, सम्प्रदाय मात्र विविध रूप है। लक्ष्य सभी का एक है। पथ विभिन्न है। 

संघ का अपना कोई दृष्टिकोण या विचार अलग नहीं है। जो चिर पुरातन, नित नूतन सनातन परम्परा है, वही भारतीयत्व है, वही हिन्दुत्व है, वही राष्ट्रीयत्व है। वही संघ का दृष्टिकोण है। सम्प्रदाय का अर्थ होता है सम्यक प्रकार से देने की व्यवस्था करना। हर मनुष्य की प्रकृति भिन्न रहती है। कोई विचार प्रधान है तो कोई भाव प्रधान तो किसी का चित्त चंचल होता है। इसी आधार पर साधना पद्घतियां विकसित हुई हैं। ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग और कर्मयोग। निराकार और साकार की उपासना पद्धतियाँ विकसित हुईं। विभिन्न अनुभूतियां हुईं। विभिन्न संतों एवं महापुरुषों की वाणियां वेद, वेदागों, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, जैनागमों, त्रिपिटकों, रामायण, महाभारत, गीता एवं विविध दर्शनों में निहित सत्यलान को अपनी-अपनी शैली में संतों, योगियों और गुरुओं ने व्यक्त किया है। सम्प्रदाय, विवाद तथा उनके एकीकरण के प्रयास होते रहे हैं। भारत में शास्त्रार्थ की परम्परा रही है। साक्षात्कारी संतों ने एकत्व देखा परन्तु अनुयायी वह नहीं देख सके। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अध्ययन और चिन्तन यही है कि विविध स्वरूपों में प्रबल एकत्व की भावना है। 

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वापनिषदस्तथा। 

रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च।। 

जैनागमस्त्रिपिटका गुरुग्रन्थ सतां गिरः। 

एष ज्ञान निधि श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा।। 

संघ की प्रातः स्मरण के यह दो श्लोक हमारी संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार यात्रा की अभिव्यक्ति करते हैं। अन्तिम सत्य की खोज में विविधिता के पीछे छिपी हुई एकता को देखने का प्रयत्न संघ कराता है। विकास प्रक्रिया के विविध दर्शन विकसित हुए। सम्पूर्ण सृष्टि के मूल में एक तत्व है। उपर्युक्त एकत्व की अनुभूति का व्यवहारिक जीवन में उपयोग करने की दृष्टि से चिन्तन संघ करता है। एक ही तत्व सर्वत्र है। इसे धर्म माना गया है। सनातन धर्म के लक्षण बताये गये - घृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धीः विद्या, सत्य तथा अक्रोध। इन मूलभूत नियमों के प्रकाश में व्यक्ति परिवार समाज तथा सृष्टि के परस्पर सम्बन्धों में समन्वय हेतु जो नियम बने हैं और जिन्हें कर्तव्य, धर्म, कुल धर्म, आचार धर्म, युगधर्म, राष्ट्रधर्म इत्यादि नाम दिये गये। संघ मानता है कि रूप अनेक ईश्वर एक, पथ अनेक गंतव्य एक है। भाषा अनेक भाव एक है, व्यवस्था अनेक धारणा एक है। सनातन धर्म के विराट वृक्ष पर अनेक मत, पंथ, सम्प्रदायों के पुष्प, फल लगते रहे हैं। सनातन धर्म के हिमांचल पर आरोहण करने के लिए अनेक साधना पद्धतियों के प्रशस्त पथ हैं। 

संघ का दृष्टिकोण है कि भारत भूमि पर जन्मे, विकसित हुये सभी मत पंथ सम्प्रदाय मूलतत्व की दृष्टि से एक हैं। सभी भारतीय हैं। हिन्दुत्व विश्व के सभी मत पंथ सम्प्रदायों में एकत्व की भावना देखता है। दूसरे क्या कहते हैं - यह उनका दृष्टिकोण हो सकता है। संघ का स्वयंसेवक भारतीय दृष्टिकोण को सर्वोत्तम मान कर कार्यव्यवहार करता है। भारत को विश्वगुरु का स्थान प्राप्त हो। सब प्रकार का वैभव, विज्ञान, बुद्धि हमें प्राप्त हो जो मानव कल्याण के हित काम आये, यही संघ की विचारधारा है। यही भारतीयत्व या हिन्दुत्व की विचारधारा है। कहीं कोई भेद न हो, परस्पर समन्वय हो यह कामना तभी पूर्ण होगी जब हम सशक्त होंगे। संगठित होंगे। हम एक राष्ट्र हैं। सनातन काल से चलते आये पुरातन राष्ट्र हैं। हम हिन्दू राष्ट्र हैं। सत्य पर चलते जाना है। अन्याय, अत्याचार नहीं करना है। अहंकार नहीं करना है। हम सभी अपनी पूजापद्धतियों को लेकर सुख पूर्वक चल सकते हैं। दूसरों की पूजा पद्धति को अपनी पूजापद्धति की तरह सत्य मान कर स्वीकार कर आपस में मेलमिलाप से रह सकते हैं। यही संघ अपने स्वयंसेवकों के अन्दर शिक्षा ग्रहण करने को प्रेषित करता है और पूरा भारत इस एकत्व को समझे और आचरण करें। यही संघ का दृष्टिकोण है। एकात्मकता-आत्मीयता यही संदेश है। 


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