Thursday 27 August 2020

 

सामाजिक समरसता का महोत्सव रक्षाबन्धन


अशोक कुमार सिन्हा 

क्षाबन्धन का पर्व पुराण काल में वर्णित है। भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव दानव युद्ध में देवताओं को पराजित होता देख इन्द्र वृहस्पति के पास गये। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी ने एक रेशम का धागा अभिमंत्रित कर श्रवण पूर्णिमा के दिन अपनें पति के दाहिने हाथ पर बांधा।  इन्द्र युद्ध में विजयी हुए। द्वापर में शिशुपाल का वध करते समय श्री कृष्ण की तर्जनी उंगली घायल हो गई। जिसके उपरान्त द्रोपदी ने अपनी साड़ी फाडक़र उनकी उंगली पर बांध दी थी। उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी, श्री कृष्ण नें द्रोपदी को किसी भी कष्ट के समय सहायता का वचन दिया था। स्कन्ध पुराण, पद्म पुराण और श्रीमदभगवत् गीता में वामन अवतार का वर्णन मिलता है। जिसमें रक्षाबन्धन का वर्णन है। राक्षसराज दानवेन्द्र राजा बली ने 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र ने भगवान विष्णु से अनुनय विनय करने पर विष्णु ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण वेश में राजा बली से तीन पग भूमि भिक्षा में मांग ली। शुक्राचार्य के मना करनें पर भी राजा बली नें तीन पग भूमि दान दे दी। भगवान ने तीन पग में समस्त पृथ्वी, पाताल, आकाश नाप ली परन्तु तीन पग भूमि में तब भी कुछ कमी रह गयी। राजाबली ने तीसरा पग रखने के लिये अपना सर प्रस्तुत किया। फलत: भगवान विष्णु ने प्रसन्न हो वर मांगने को कहा। बली ने भगवान विष्णु से सदैव अपने सम्मुख रहने का वचन ले लिया। भगवान विष्णु को द्वारपाल बनना पड़ा। विष्णु के न लौटने पर लक्ष्मी जी ने नारद मुनि से सलाह मांग कर योजनानुसार श्रावण पूर्णिमा के ही दिन राजा बलि को रक्षासूत्र बांध कर उसे अपना भाई बना लिया तथा भगवान विष्णु को छुड़ा कर अपने साथ ले आयीं। तभी से रक्षा सूत्र बांधते समय निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करतें है।

येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबल:।

तेन त्वां अनुबध्नामि, रक्षे माचल माचल।।

इसका हिन्दी अर्थ है कि, जिस रक्षा से महाशक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था उसी से मैं तुम्हे बांधता हूं। हे रक्षे, (राखी) तुम अडिग रहना (तु अपने संकल्प से कभी विचलित न हो)

इसी प्रकार विष्णु पुराण के एक प्रसंग में यह भी कहा गया है की श्रावण पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु नें हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रम्हा के लिये फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतिक माना जाता है।

इतिहास में वर्णन है कि राजपूतिनियां युद्ध में जाते समय राजपूतों को उनके माथे पर कुमकुम लगा कर रेशमी धागा दाहिनें हाथ की कलाई पर रक्षासूत्र के रूप में बाध्ंाती थी। एक बार मेवाण की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाण पर हमले की पूर्व सूचना मिली तो उसने मुगल बादशाह हूंमायंॅु को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हूंमायॅुंं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाण की ओर से लड़ते हुए रानी कर्मावती  व उसके राज्य की रक्षा की। एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी नें हिन्दू शत्रु पुरूवास  को राखी बांध कर मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। युद्ध के समय पुरूवास ने बहन को दिये वचन का सम्मान करतें हुए सिकन्दर को

जीवनदान दिया। महाभारत के युद्ध के समय युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी  संकटों को कैसे पार कर सकता हंू तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना को राखी का त्यौहार मनानें की सलाह दी थी। द्रोपदी द्वारा भगवान कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यू को राखी बांधने का उल्लेख मिलता है।

वर्तमान युग में बहनें अपने भाई की रक्षार्थ उसकी दाहिनी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधती हैं यह उत्सव भाई बहन के निष्छल प्रेम से बंधा है। भाई भी बहन की रक्षा का वचन देता है। नेपाल में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय समुदाय रक्षाबन्धन गुरू और भगिनेय के हाथ से तथा बहन के हाथ से राखी बंधवाते हैं।

सामान्य जीवन में प्रधानमंत्री मोदी सीमा पर जाकर सैनिकों को राखी बांधते हैं। धर्म, देश, जाति बन्धन से परे जाकर जनता राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को राखी बांधती है। गुरू शिष्य को राखी बांधता है। आज भी धार्मिक अनुष्ठान में पुरोहित यजमान को रक्षा सूत्र बांधता है। विवाह के बाद अपनें भाई का घर छोड़ कर अपने पति घर गई बहन इस पर्व पर अपनें भाई के घर आकर भाई को राखी बांधनें आती हैै और रिश्तो का नवीनीकरण करती है।

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जनजागरण हेतु आपस में राखी बाधनें की परम्परा निभाई गई थी  बंगभंग आंदोलन में इसका राष्ट्रीय एकता हेतु सहारा लिया गया। उत्तरांचल में श्रावणी के दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म कर यज्ञोपवीत धारण करता है। इसी दिन अमरनाथ यात्रा हिमानी शिवलिंग के समक्ष पूर्ण होतीे है। महाराष्ट्र में नारियाल पूर्णिमा या श्रावणी इसी दिन मनाया जाता है। राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी बाधनें का रिवाज है। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और दक्षिण भारतीय ब्राहम्ण इस पर्व को अवनि अविन्तम कहते है। ब्रज में हरियाली तीज के अवसर पर भगवान झूले पर झूलतें रहते है।

सम्पूर्ण भारत ही नहीं विदेशों में भी इस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में वर्ण, जाति पंथ, प्रांत आदि भेदों से अलिप्त एकरस तथा स्नेहपूर्ण समाज के मानविन्दुओं की रक्षा करने के लिए त्यागपूर्ण, कटिबद्ध होने की जिम्मेदारी का स्मरण करने हेतु अपनें 6 उत्सवों में से एक उत्सव रक्षाबन्धन महोत्सव मनातें हैं।

यह पर्व भारतीय समाज कही समरसता तथा समाज की एक चैतन्यता शक्ति के अभार का प्रतीक है। पंथ, भाषा, भेदभाव, छुआछूत का भेदभाव मिटा कर समाज को एक सूत्र में बांधने का संकल्प आज लिया जाता है भारत में वैचारिक प्रवाह कभी भी ठहराव का शिकार नहीे हुआ। हिन्दू समाज की सबसे बड़ी समस्या अस्पृश्यता और जाति भेद रहा है। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गांधी तथा डॉ. केशव बली राम हेडगेवार जैसे समाज सुधारकों नें विकेन्द्रीकृत अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रमों को केन्द्रीकृत करने का प्रयास किया। महात्मा गांधी ने 1934 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्धा शीत शिविर  में  आश्यर्चयजनक रूप से ब्राह्मणों, महारों को सहज स्वाभाविक सरल तरीके से साथ साथ जीवनचर्या निभाते देखा था। उनके अंन्तर्मन को यह मूलभूत परिर्वतन छू गया था संघ का यह सामाजिक समता मात्र वैचारिक विलास नहीें था। 1969, विश्व हिन्दू परिषद का उडुपि में प्रान्तीय अधिवेशन में छुआछूत के विरूद्ध सभी साधु संत एक हुए। 1974 में बसंत व्याख्यानमाला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बाला साहब देवरस ने कहा कि, अगर अस्पृश्यता पाप नहीं है तो कुछ भी पाप नहीं है। अस्पृश्यता में सामंतवादी छाप, हीनता और क्रूरता तो है ही, साथ ही सवेदनहीनता तथा मानसिक जकडऩ भी है। भारतीय परिस्थिति मेंं सामाजिक समता का दृश्य बहुत ही जटिल एवं बहुभाषी तो है परन्तु सतही राजनेता अपनें दिखावटीपन और उपरी प्रचार के कारण इसे और जटिल बनातें जा रहें है। कानपुर का विकास दूबे काण्ड इस जटिलता का एक वीभत्स्व रूप है। आज कोई भी वर्ण या जाति अस्तित्व में नहीं है। हम सभी का एक ही वर्ण और एक ही डीएनए है और वह है हिन्दू। समरसता ही बन्धुत्व है और इसका क्रियात्मक स्वरूप है रक्षाबन्धन का महाउत्सव। परस्पर सम्पर्क द्वारा परिवर्तन आयेगा। मानवता का आधार समरसता है। समाज के प्रति प्रतिष्ठा का भाव जागृत करते हुए उपेक्षित एवं पिछडें़ बन्धुओं को समता एवं एकात्मता की अनुभूति कराना रक्षाबन्धन का मूल उद्देश्य है। हजारी प्रसाद द्विवेदी बलिया के अपने गृह जनपद में खेतों से होकर जा रहे थे जहां खेत में एक हरिजन अछूत मजदूरन को सांप नेे पैर में डंस लिया था। उन्होंने तत्काल अपनें जनेउ से उसका पैर बांधा, चीरा लगाया और मुंख से रक्त चूसकर निकाला अस्पताल ले गये। यह एकात्मभाव का दिन भी श्रावणी था। जनेउ रक्षाबन्धन बन गया था। सत्यवती और शान्तनु, मुनि व्यास, कृष्ण और देवकी, सत्यकाम और ऋषि गौतम, भीम और हिडिम्बा, अर्जुन और मणिपुर की राजकुमारी चित्रांगदा, ऋषि जरातकरू, और नांगवशी कन्या का विवाह, शकुन्तला, और भरतजन्म, बरबरीक, एकलव्य आदि उदाहरण इसी हिन्दू समाज के है। रक्षाबन्धन का पवित्र दिन सब भेदों से उपर उठ कर एक सूत्र में बंध कर एक राष्ट्र के रूप में खडें़ होने का सन्देश देता है। सम्पूर्ण विश्व एक कुटुम्ब है तो हिन्दू समाज भी एक कुटुम्ब है। आदि शंकराचार्य का भी काशी में एक म्लेच्छ को अपना गुरू बनानें का यही उद्देश्य था। रक्षाबन्धन समाज को सुदृढ़ करने तथा विषमता को समाप्त करनें का कार्य करता है।  राजनीति जटिलता को बढानें को कार्य करती है। समरसता समाजिक पहल से आयेगी। रक्षाबन्धन महोत्सव एक अवसर है। उठें, जागें और लक्ष्य की प्राप्ति तक चलते रहें। यही इस पर्व का मूल है।

No comments:

Post a Comment