Thursday 27 August 2020

 

सनातन गुरुप्रकाश


अशोक कुमार सिन्हा 

त: स्मरणीय वेदव्यास जी वैदिक वांगमय के संकलनकर्ता तथा महाभारत ग्रंथ के रचयिता के रूप में विख्यात हैं। यही कारण है कि अति प्राचीनकाल से ही हिंदू समाज में उन्हें गुरूपद प्राप्त था।

भारतीय समाज में गुरू धारण करने की परम्परा अति प्राचीन है। वैदिक काल के आरम्भ से ही गुरू परम्परा विद्यमान रही हेै। हमारे पूर्वजों की मान्यता थी कि बिन गुरूज्ञान कहां से पाऊं अर्थात गुरू के अभाव में ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। जीवन के प्रति सही दृष्टि गुरू के मार्गदर्शन से ही मिलती है। वेदों में गुरू की महिमा का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है। देवताओं के गुरू बृहस्पति तथा असुरों के गुरू शुक्राचार्य का वर्णन मिलता है। भगवान श्रीराम के गुरू महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र प्रसिद्ध हैं। भगवान श्रीकृष्ण के गुरू संदीपनी थे। हिंदू समाज की मान्यता है कि गुरू कृपा से ही ईश्वर का साक्षात्कार संभव होता है।

राष्ट्र जीवन में अत्यंत प्रभावकारी भूमिका निर्वाहन करने के कारण ही गुरू को समाज में अत्यधिक श्रद्धा और सम्मान का स्थान प्राप्त हुआ था। इसी कारण गुरू को बह्मï, विष्णु और महेश कहा गया -

गुरूबह्मïा गुरूविष्णु: गुरूदेवो महेश्वर:।

गुरू साक्षात् परब्रहम तस्मै श्री गुरूवे नम:।। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक परम पूज्यनीय डा. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने भी हिंदू समाज की गुरू परम्परा को राष्ट्र जीवन मेंं पुन: प्रस्थापित करने का निर्णय लिया परंतु किसी व्यक्ति विशेष को संघ का गुरू स्वीकार न करते हुए परम पवित्र भगवा ध्वज को गुरू रूप  में मान्यता प्रदान की। डाक्टर जी की मान्यता थी कि कोई व्यक्ति किसी संगठन का गुरू नहीं हो सकता। व्यक्ति का जीवन आयु सीमा में बंधा हुआ है और व्यक्ति की सोच सदैव ही एक समान रहेगी यह भी आवश्यक नहीं है। व्यक्ति कभी पूर्ण नहीं है। अत: उन्होंने स्वयंसेवकों को व्यक्ति पूजा के स्थान पर तत्व की आराधना करने का मार्ग प्रदान किया। 

तत्व पूजा अपनाने वाला संघ प्रथम संगठन नहीं था इसके पूर्व श्री गुरू गोविंद सिंह जी महाराज ने सिख पंथ के लिए दशम गुरू के पश्चात पवित्र संतों की वाणी के संग्रह गुरूग्रंथ साहब की गुरूरूप में प्रतिष्ठा की और अब गुरूग्रंथ साहब ही सिख समुदाय का मार्गदर्शन करता चला आ रहा है।

भगवाध्वज :

भगवा ध्वज त्याग, तपस्या, ज्ञान, पवित्रता, तेज का संदेश देने वाला अग्नि, सूर्य और यज्ञ का प्रतीक है। यह हमारे धर्म, संस्कृति और इतिहास का स्मरण दिलाकर साहस, त्याग, स्फूर्ति और बलिदान की दिशा में मार्गदर्शन करने वाला है। अनेक अवसरों पर  फिर चाहे वह वैदिक काल रहा हो अथवा रामायण तथा महाभारत का समय हिंदू समाज ने पुरूषार्थ और पराक्रम इस ध्वज की छत्रछाया में ही प्रकट किया है। गुरूपूर्णिमा के दिन सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज का पूजन कर नवीन उत्साह के साथ कार्य में संलग्न हो जाते हैं।

गुरू कैसा होना चाहिये, गुरू किसे मानना चाहिये इत्यादि का वर्णन हमारे शास्त्रकारों ने किया है। इन सभी के द्वारा वर्णित गुरू के लिए आवश्यक सदगुण किसी एक व्यक्ति का पा सकना असंभव है। गुरूत्व की इस कसौटी पर कसकर ही संघ ने परम पवित्र भगवा ध्वज को जो हमारे हिंदू राष्ट्र के प्राचीन गौरव सभ्यता और इतिहास परम्परा का प्रतीक स्वरूप है, अपना गुरू माना है। 

गुरूस्थान पर किसी भी व्यक्ति को मान लेने पर पश्चाताप का प्रसंग आ सकता है। संघ में किसी प्रकार का अनर्थ न पैदा हो इसलिए डाक्टर जी ने शुरू से ही हमें व्यक्ति पूजा के पाठ नहीं सिखाये।

हमारे ध्वज में अपनी पूर्व परम्परा को प्रकट करने की जो शक्ति है उसको नष्ट करने के लिए न काल समर्थ है और न यमदंड। इस प्रकार के चिरंजीवी उदीयमान बाल सूर्य का तेज धारण करने वाले प्राची के मुख की अरूण ज्योति के समान इस पवित्र त्यागमय ध्वज को हमने अपना पवित्र गुरू माना है। इस पर हमें गर्व है। किसी व्यक्ति विशेष के कुछ गुणों का अवलोकन करने पर व्यक्ति के सम्बंध में मन में आदर की भावना निर्मित होती है किंतु कभी-कभी कुछ काल बीतने पर व्यक्ति के सम्बंध में वह सम्मान की भावना यथापूर्व नहीं रह पाती। कभी-कभी सव्यक्ति के बारे में मन में तिरस्कार की भावना पैदा होती है। अति प्राचीनकाल से अपने इस राष्ट्र में जो जीवनधारा सतत् चली आयी है उसमें यज्ञ को अत्यधिक महत्व दिया गया है। यज्ञ कर्म के पीछे जो तत्व है उसका अवलोकन करें। यज्ञ अग्निप्रधान है। अत: उस अग्नि का प्रतीक जो उसकी ज्वाला है उस ज्वाला के रंग के प्रतीक इस ध्वज को हम लोगों ने गुरूरूप में स्वीकर किया है। 

हमारे नित्य के जीवन में ध्वज का भली भांति दर्शन होता है। प्रात:काल भगवाध्वज अपने सात घोड़े वाले रथ पर लहराने वाला ध्वज लेकर आता है और सारा अंधेरा नष्ट करता है। वह ध्वज स्वच्छ आकाश में देखा जाये तो हल्के लाल रंग का दिखायी देता है। उसमें सुवर्ण रंग की छटा रहती है। वही है भगवान की प्रकाशवान ज्ञान की ध्वजा। वही ध्वजा हम लोगों ने अपनी राष्ट्रीय विषमताओं के आविष्कार अथवा प्रतीक के रूप में मानी है। भगवाध्वज का अपभ्रंष होकर भगवा ध्वज कहा जाता है। राष्ट्र का प्रत्यक्ष रूप प्रकट करने वाला  यज्ञ ज्वाला का प्रतीक, प्रकाशमान सूर्य का यह ध्वज जीवन में अंधेरे को दूर कर प्रकाश देने वाला है। इसे ही हमने अपना गुरू माना है।

अपना ध्वज ही अपने राष्ट्र का उपास्य देवता है। श्रद्धा के श्रेष्ठ केंद्र और सब शक्तियों को चुनौती देने वाले इस ध्वज को ही हम अपने हृदय में उच्चतम स्थान देंगे इसके सामने नतमस्तक होंगे और इसी को जीवन समर्पित करेंगे  यह धारणा लेकर हम लोगों ने इस पवित्र पताका को अपना गुरू माना है । 

गुरूदक्षिणा :

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जहां कहीं भी  हम रहें अंत:करण में तीव्र ज्वाला लेकर ऐसा आदर्श जीवन प्रकट करें कि प्रत्येक मुंह में हमारा ही नाम रहे। उस क्षेत्र में अपने जीवन का एक आदर्श उपस्थित करें।

केवल स्कंध, अक्षत, फूल चढ़ाकर पूजा करना पर्याप्त नहीं उसमें सर्वस्व समर्पण की भावना होनी चाहिए। पूजा करके धन रूप से दक्षिणा अर्पण करना उस समर्पण भावना का दृष्य स्वरूप है।  स्वार्थ के लिए उपयुक्त तथा संसार की सारी उपभोग्य वस्तुएं जिसके द्वारा प्राप्त होती है वह वस्तु है धन।  उसका समर्पण गुरू को किया जाये तो सर्वसमर्पण की भावना को स्पष्ट करने वाला वह एक प्रतीक होता है।  सहजता से पैसा ध्वज के सामने रखना समर्पण नहीं है। उसके पीछे तुच्छता की भावना नहीं होनी चाहिए तथा किसी के अनुरोध पर भी यह  कार्य नहीं होना चाहिये। स्वयं को धन के अभाव का कष्ट अनुभव होकर श्रद्धा से गुरू को धन देना चाहिये। संघ ने इसी पद्धति को अपनाया है।

गुरूदक्षिणा निश्चित धनराशि देने का आग्रह अथवा नियमित रूप से इकटï्ठा किये जाने वाला चंदा नहीं है। यह कार्य केवल स्वेच्छा का है। किन्ही भी परिस्थितियों में यह पूजन नहीं टालना चाहिये। अंत:करण की ओतप्रोत श्रद्धा से ध्वज को प्रणाम कर केवल एक पुष्प अर्पण किया तो भी काफी है। इस प्रकार के भाव से दिया हुआ एक पैसा भी धनी व्यक्ति द्वार्रा अर्पित किये गये सहस्रों रूपयों से अधिक मूल्य का है। संघ कार्य के लिये  प्रत्येक व्यक्ति की शक्ति और बुद्धि पूर्ण रूप से काम में आनी चाहिये। राष्ट्रकार्य के लिये  परमेश्वर की कृपा से जो कुछ प्राप्त हुआ है वह सब गुरूचरणों में अर्पण करना चाहिये। 

जिस प्रकार रोज खाना, पीना निद्रा आदि लेते हैंं उसी प्रकार पूजन भी नित्य होना चाहिये। संघ पिता की वह निष्ठा, वह लगन और वे सारे भाव हम अपने व्यक्तिगत जीवन में लाने के लिये  प्रयत्नशील रहें। तभी कह सकेंगें कि हमने वास्तविक गुरू पूजा की है। हमारा उदï्देश्य सफल होता है  तो होता है हमारा सबकुछ सफल। उसी में जीवन सर्वस्व की सफलता है अन्यथा सारी बातें सब व्यर्थ है। इसी निष्ठा से प्रेरित होकर हम अपने अंदर का ईश्वरी अंश प्रकट करें। कार्य में अग्रसर हों, यही आज परमावश्यक हैं।     

गुरूदक्षिणा

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जहां कहीं भी  हम रहें अंत:करण में तीव्र ज्वाला लेकर ऐसा आदर्श जीवन प्रकट करें कि प्रत्येक मुंह में हमारा ही नाम रहे। उस क्षेत्र में अपने जीवन का एक आदर्श उपस्थित करें। केवल गंध, अक्षत, फूल चढ़ाकर पूजा करना पर्याप्त नहीं उसमें सर्वस्व समर्पण की भावना होनी चाहिए। पूजा करके धन रूप से दक्षिणा अर्पण करना उस समर्पण भावना का दृष्य स्वरूप है।  स्वार्थ के लिए उपयुक्त तथा संसार की सारी उपभोग्य वस्तुएं जिसके द्वारा प्राप्त होती है वह वस्तु है धन।  उसका समर्पण गुरू को किया जाये तो सर्वसमर्पण की भावना को स्पष्ट करने वाला वह एक प्रतीक होता है।  सहजता से पैसा ध्वज के सामने रखना समर्पण नहीं है। उसके पीछे तुच्छता की भावना नहीं होनी चाहिए तथा किसी के अनुरोध पर भी यह  कार्य नहीं होना चाहिये। स्वयं को धन के अभाव का कष्ट अनुभव होकर श्रद्धा से गुरू को धन देना चाहिये। संघ ने इसी पद्धति को अपनाया है।

 

 

 

 

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